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नेहरू अब भी उदास हैं

8. ‘पुत्री के नाम पिता का पत्र‘ तथा ‘विश्व इतिहास की झलक‘ सीधी-सादी प्रवाहमान निश्छल भाषा में जीवन के विभिन्न पक्षों का चित्रण उपस्थित करते हैं. नेहरू की व्यापक मानवीय सहानुभूति तथा मानवतावादी दृष्टिकोण ही इनकी विशेषता है. नेहरू का विशद् अध्ययन प्राचीन ग्रीक वैभव की कहानी कहता है. उसमें बीसवीं सदी के भारत का संघर्ष मुखर हो उठता है.

उनका स्वर निराश बुद्धिजीवी का नहीं है. मर्मान्तक पीड़ा से व्यथित होकर भी यह महान् सेनानी प्रचण्ड आत्मविश्वास के स्वर में बोल उठता है-‘इस बीसवीं सदी में शांति नहीं है. सारा संसार कड़ी मेहनत कर रहा है और दुनिया को शांति तथा युद्ध की काली छाया ओढ़े हुए है. यदि हम इस नियति से बच नहीं पाये, तो उसका सामना कैसे करेंगे? क्या हम घोंघों की तरह अपना मुंह छिपा लेंगे या हमें इस नये इतिहास का निर्माण करने में महत्वपूर्ण हिस्सा लेंगे? क्या हम खतरों और संकटों का मुकाबला कर सकेंगे, और यह महसूस करेंगे कि हमारे कदम इतिहास का निर्माण कर रहे हैं?‘

विश्व का इतिहास एक ही ग्रंथ में लिखना दुष्कर कार्य है. फिर भी जवाहरलाल ने विषय वस्तु के साथ यथेष्ट न्याय किया. मूल कारण यह था कि सम्बद्ध युग की आत्मा को पहचानने एवं अभिव्यक्त करने में जवाहरलाल ने ग्रंथागारों एवं दंतकथाओं की अपेक्षा कविता, साहित्य, ललित कलाओं, धर्मगृहों तथा यात्रा विवरणों का अधिक सहारा लिया है. ‘विश्व इतिहास की झलक‘ उन्हें अप्रतिम इतिहासकारों के समकक्ष प्रतिष्ठित करती है. उनमें अपूर्णता का आभास नहीं होता.

9. 1942 में ‘भारत छोड़ो‘ आंदोलन के अन्तर्गत जवाहरलाल नेहरू नौवीं बार गिरफ्तार कर आगाखां महल में रखे गये. लेखक नेहरू के लिये यह वरदान था. उन्होंने कारावास की अवधि में ही अपनी विख्यात कृति ‘ए डिस्कवरी ऑफ इंडिया‘ लिखी. छः सौ से अधिक पृष्ठों का यह ग्रंथ उन्होंने पांच महीनों (अप्रैल-सितम्बर 1944) से भी कम अवधि में लिखा.

भारत के विशाल नक्शे की एक एक रेखा नेहरू ने एक कुशल चित्रकार की तरह आंकी है. इठलाती हुई नदियां, सूखे बेजान मरुस्थल, उछलते हंसी बिखेरते झरने, डरावने, रहस्यमय जंगल, काली, अभेद्य घाटियां, ऊंचे ऊंचे बर्फीले पर्वत, फैले हुए मैदान-सारा भारत एक ही दृष्टि में जैसे सजीव हो उठता है. भूगोल ही नहीं इतिहास की घटनाएं भी एक एक कर स्मृति-पटल पर नाचने लगती हैं.

बादशाहों के वैभव तथा ऐश्वर्य की गाथाएं, सत्ता के लिए षड़यंत्र, साम्राज्यों का पतन, कला एवं संगीत के चरमोत्कर्ष के क्षण, महाकाव्यों की महान परम्पराएं, भारत के वक्ष पर प्रस्तुत होने वाली झांकियां आंखों के सामने नाचती हैं. वर्णन की सहजता, अनुभूतिजन्य विवेचना, वातावरण की सजीवता, सांसों की गरमाहट व तकनीकी मानदंड से ‘भारत की खोज‘ नेहरू की सर्वश्रेष्ठ कृति घोषित की जा सकती है.

इतना सशक्त वर्णन किया है लेखक ने कि अक्षर बोलने के साथ साथ चित्र खींचते से प्रतीत होते हैं. इस महान् कृति के माध्यम से पाठक इतिहास के बारे में अपने ज्ञान में वृद्धि करने के साथ ही समय की पर्तों की गहराइयों में डूबता चला जाता है. स्वप्निल बोझिलता से उसके अन्तर की आंखें मुंदने लगती हैं. इतिहास का महान् विद्यार्थी नेहरू उंगली पकड़कर वर्तमान और अतीत की दुनिया की नुमाइश में सैर कराता है. पाठक अपनी बौद्धिक उपस्थिति का लबादा उतारकर फेंक देता है. अद्भुत प्रेषणीयता, अतुलनीय वर्णन—शक्ति, अद्वितीय सृजनशीलता से युक्त इस कृति में पाठक को महाकाव्योचित उदात्तता के दर्शन होते हैं.

10. विश्व इतिहास में शायद ही कोई वसीयत नेहरू की गंगा वसीयत से ज्यादा प्राणवान हो. प्राणवान होना स्थायी होना है जबकि वसीयतें मृत्यु के बाद का अफसाना हैं. गंगा-वसीयत शरीर के नष्ट होकर फुंकी हुई राख का जल तर्पण नहीं है. राख स्मृति की मुट्ठी है. वह यादों के आचमन योग्य भी नहीं है. हमारी स्मृतियां तक बोझ नहीं बन जाएं, इससे उनका इतिहास में ठहरा यश वक्त के आयाम में बहता हुआ अहसास बन जाये-यह वसीयतकार जवाहरलाल का इच्छा लेख है.

इसलिए गंगा एक पहेली, क्लिष्ट दार्शनिक सवाल, बहता भूचाल सभी कुछ है. उसमें एक साथ थपकियां और थपेड़े, रुद्र गायन और अभिसार, उन्मत्त यौवन और गहरा सन्यास सभी कुछ है. सभ्यता नदी की तरह विकसित होती है, अपने शैशव के कौमार्य से संन्यस्त जीवन के वीतराग होने तक. लेकिन नदी सभ्यता की तरह बनती, बिगड़ती नहीं. वह अनन्त होने पर भी आदिम बनी रहती है.

नदी की ऐसी मान्यता नेहरू के लिए अधिमान्यता हुई. गंगा हमारी सबसे बड़ी राष्ट्रीय धरोहर भर नहीं है कि वह हमारी सभ्यता और संस्कृति का थर्मामीटर या बैरोमीटर है. वह निखालिस पारे की तरह है जो किसी भी आकार में रखे या रचे जाने पर भी अपना गुरुत्व, घनत्व और चरित्र नहीं बदलता. गंगा से हम हैं, हमसे गंगा नहीं. जवाहरलाल की वसीयत का प्रतिमान एक राष्ट्रीय पक्षी, पशु या प्रतीक की तरह कोई जलांश नहीं है. वह है हमारी समग्र अस्मिता का लगातार जल-कायिक वाचन. गंगा का चलना भारत का चलना है. भारत के बहुलांश का लेकिन विपथगा हो जाना गंगा हो जाना कतई नहीं है.

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