प्रसंगवश

लोकतंत्र, ‘न्यूटन’ और बस्तर

बिकास शर्मा
महान राजनीतिक चिन्तक एवं अमरीका के 16वें राष्ट्रपति रहे अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र को व्याख्यायित करते हुए लिखा है कि चूंकि वे दास नहीं बने रहना चाहते हैं इसलिए शासक बनना भी उनको शोभा नहीं देता, अतएव यहीं उनके लोकतंत्र की परिभाषा है.

भारत 70 वर्षों से आजाद है एवं लोकतंत्र के बने रहने के प्रमाण के रुप में चुनाव एक बहुत बड़ा मापदण्ड हमारे समक्ष है. किन्तु क्या चुनाव ही हमारा अंतिम सत्य है, जिसके आधार पर हम कह सकते हैं कि हम पूर्णतः लोकतांत्रिक व्यवस्था के सुख को भोग पा रहे हैं? या चुनाव हो भी रहे हैं तो क्या वे समूचे भारत की परिधि में एक समान ही संचालित किये जाते हैं? कुछ इस तरह के ही प्रश्नों को ध्यान में रखकर युवा फिल्म निर्देशक अमित मासुरकर ने ‘न्यूटन’ को बनाया है.

‘न्यूटन’ का निर्माण करने के पूर्व निर्देशक को इसे कश्मीर में फिल्मांकित करने का सुझाव कुछ करीबी लोगों ने दिया था, किन्तु मासुरकर ने उसका बड़ा हिस्सा नक्सली हिंसा या कहें आंतरिक हिंसा से प्रभावित राज्य छत्तीसगढ़ में फिल्माने की ठानी. फिल्म ने प्रतिष्ठित ‘बर्लिन फिल्म महोत्सव’ में खूब सराहना बटोरी है. वहां फिल्म ने कला सम्मान भी जीता है.

‘न्यूटन’ की कहानी अपने आप में अनोखी इसलिए है कि यह पहली हिन्दी फिल्म होगी जिसका विषय पूरी तरह से चुनाव प्रक्रिया के इर्द-गिर्द घूमता है. एक नवप्रवेशी शासकीय कर्मचारी को चुनावी माहौल में कार्य के दौरान मिलने वाले विभिन्न नए अनुभवों के जरिए एक नई दुनिया भी यह फिल्म खोलती है. मनुष्य के मस्तिष्क में बनी विचार की चौखट जब टूटती है तो सबसे ज्यादा पीड़ा होती है और ‘न्यूटन’ इस पर ही बात करती है.

बस्तर में वर्तमान में बसे माहौल में चुनाव वाकई एक चुनौती बना हुआ है किन्तु उसको ढाल बनाकर वोट की हेरा-फेरी या मोबिलाईजेशन के आरोप भी पिछले दो चुनावों में सामने आए हैं. इन पंक्तियों के लेखक ने भी चार साल पहले हुए विधानसभा चुनाव के दौरान सुकमा का दौरा किया था. तब कुछ ग्रामीणों ने यह बात साझा की थी कि उन्हें किसी दल विशेष से मतलब नहीं है, कुछ खास लोगों द्वारा जिन्हें वोट देने कहा जाता है उनको वोट डाल देते हैं. इसके साथ ही नक्सली नेताओं द्वारा ग्रामीण आदिवासियों पर वोट बहिष्कार का दबाव बस्तर में एक रूटीन प्रक्रिया रही है.

देश में चुनाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सबसे बड़े त्यौहार के रुप में हमारे सामने है और प्रत्येक वर्ष कोई-न-कोई चुनाव यहां संपन्न होते ही हैं. यह त्यौहार ऐसा है जब दूल्हा भी चुनाव के दिन होने वाली अपनी शादी के बाद सबसे जरूरी चीज वोट देना समझता है. बूढ़े से लेकर जवान एक बेहतर भविष्य की आशा से मताधिकार का प्रयोग करते हैं. देश की आजादी के बाद चुनाव के साथ शादी की ही तर्ज पर ‘जो खाए वो भी पछताय, जो न खाए वो भी’ का जुमला फिट बैठने लगा और राजनैतिक शुचिता के ह्रास के फलन में लोकतंत्र को बहुसंख्य नेताओं और अधिकारी वर्ग ने अपने हिसाब से प्रयोग करना शुरू किया जो आज भी जारी है.

यद्यपि ‘न्यूटन’ का भारत में प्रदर्शित होना अभी शेष है, किन्तु बर्लिन फिल्म महोत्सव जैसे विश्वव्यापी मंच में सराहना मिलने के उपरांत निर्देशक और अभिनेतागण राजकुमार राव, अंजलि पाटिल सहित पंकज त्रिपाठी एवं अन्य क्रू-मेंबर्स को फिल्म के भारतीय दर्शक वर्ग के बीच होने वाले प्रदर्शन से काफी उम्मीदें भी हैं. उनकी उत्सुकता फेसबुक, ट्विटर सरीखे सोशल मीडिया मंचों पर देखी जा सकती है. ‘न्यूटन’ की स्टोरी भी बस्तर जैसे देश के अन्य स्थानों में होने वाले चुनावों के संचालन से जुड़ी है जहां कई प्रश्न लोकतंत्र के जिन्दा रहने पर उठाए जाते हैं.

फिल्म की शूटिंग 41 दिनों तक छत्तीसगढ़ के दल्लीराजहरा में हुई और स्थानीय व्यवस्था हेतु निर्देशक मासूरकर ने अमित जैन को जिम्मेदारियां सौंपी. कोंडागांव में कृष्णा गोंड के लोक कलाकारों के समूह से कुछ लोगों को फिल्म में काम करने का मौका मिला है और अच्छी संख्या में क्राउड के लिए राज्य के लोगों ने फिल्म में सेवाएं दी. मध्यप्रदेश में गुलजार से लेकर प्रकाश झा ने फिल्मों का निर्माण किया है जिससे वहां फिल्म के लिए बेहतर माहौल बना. मुख्य धारा के सिनेमा निर्माण से जुड़े फिल्मकारों का छत्तीसगढ़ में आगमन यहां शिथिल हो रही स्थानीय फिल्मी दुनिया में ऊर्जा का संचार कर पाएगा, ऐसी आशा की जानी चाहिए.

एक तथ्य यह भी कि चुनाव पर आधारित इस फिल्म का निर्माण करने की सोच अमित मासूरकर के दिमाग में कुछ सालों पहले ही आ गई थी और कश्मीर में होने वाली समस्याओं के आलोक में उन्होंने छत्तीसगढ़ का रास्ता चुना. यहां पहले बारनवापारा अभ्यारण में सभी दृश्य फिल्मांकित होने थे किन्तु शासकीय प्रक्रिया में कुछ अड़चनें आने के बाद दल्लीराजहरा के नाम पर मुहर लगी.

यह भी गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ में फिल्म की शूटिंग करने का निर्णय मासूरकर ने लेखक एवं पत्रकार राहुल पंडिता के उपन्यास ‘हेलो बस्तर’ को पढ़कर किया था किन्तु बस्तर में फिल्म को फिल्माया नहीं गया, जबकि कहानी में बस्तर एक अनिवार्यता की तरह व्याप्त है. जो पत्रकार, शासकीय अधिकारी, सिपाही एवं शोधकर्ता बस्तर जा चुके हैं वे भलीभाँति अवगत हैं कि केरल से भी बड़े क्षेत्रफल वाले उस सुरम्य स्थान में हथियारबंद माओवादियों एवं पुलिस-सेना के लोगों के बीच जबरदस्त जंग चल रही है और इसका सबसे ज्यादा खामियाजा स्थानीय आदिवासियों को झेलना पड़ रहा है.

कुछ-एक वर्षों में बस्तर में पुलिसिया बर्बरता के कई आरोप सामने आए हैं, जिससे भी शायद फिल्मकारों एवं पत्रकारों की बस्तर से दूरी बढ़ती गई. अन्यथा बस्तर में दर्जनों डॉक्यूमेंट्री एवं लघु फिल्में बनाई जा चुकी हैं जिनमें ‘अल जजीरा’ द्वारा बनाई गई एक डॉक्यूमेंट्री बहुत सार्थक है.

वर्तमान में बस्तर की दीवारों का कंपन कम-से-कम मुंबइया फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों को वहां से दूरी बनाने के लिए पर्याप्त है क्योंकि बहुत सीमित लोग ही आज भी बस्तर से काम करके लौट आते हैं और उनसे दहशत का कोई साबका नहीं हो पाता. फिल्मों के केंद्र में बस्तर होकर भी नहीं होता, यह शायद बस्तर की नियति बनता जा रहा है.

तभी तो ‘चक्रव्यूह’ से लेकर ‘न्यूटन’ तक में दंडकारण्य ‘यूटोपिया’ ही बन गया और अपने हिसाब से उसकी व्याख्या फिल्मकारों ने दूरी बनाकर की. क्या बस्तर का सच यही है जो हमको दिखलाया जा रहा है या कुछ और? हमें तो ‘न्यूटन’ का बेसब्री से इंतजार है.

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