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बाज़ारु कंपनियों से किसानों को बचाना होगा

देविंदर शर्मा
भारतीय नीति-निर्माताओं ने अमरीकी कृषि नीतियों के अनुरूप बनी बाजार व्यवस्था की असफलता और यहां तक कि तीन विवादित कृषि कानूनों को रद्द करने से भी सीख नहीं ली है. कीमतों का निर्धारण ‘मांग-आपूर्ति संतुलन वाले सिद्धांत’ से होता है, यही दोहरा रहे हैं. जबकि अनुभव बताता है कि उपरोक्त बाजार व्यवस्था में, उत्पाद के भाव में उतार-चढ़ाव अमरीकी किसानों की सम्मानजनक आजीविका सुनिश्चित करने में असफल रहा है, अब बारी पशुपालकों की है.

यहां तक कि राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी इस विद्रूपता को स्वीकार किया है, जब उन्होंने कहा, ‘पचास साल पहले खुदरा दुकान से बीफ खरीदने में चुकाए गए प्रत्येक डॉलर से पशुपालक के हिस्से 60 सेंट आते थे. आज वह घटकर 39 सेंट रह गया है. ऐसे ही उस वक्त सूअर-पालक को उपभोक्ता के हर डॉलर से 48-50 सेंट पहुंचते थे, जो फिलहाल लगभग 19 सेंट है. दूसरी ओर बड़ी कंपनियां भारी मुनाफा बना रही हैं.’

जबकि अमरीकी कृषि विभाग का अनुमान है कि आने वाले सालों में बीफ की खुदरा कीमत में 21 प्रतिशत, सूअर-गोश्त में 17 फीसदी तो मुर्गे के मीट में 8 प्रतिशत औसतन मूल्य वृद्धि होती रहेगी.

राष्ट्रपति बाइडेन ने आगे कहा, ‘कंपनियों का मुनाफा बढ़ने के साथ-साथ अंतिम विक्रय बिंदु पर उत्पाद की कीमत में वृद्धि होती गई, किंतु मंडी में किसान को मिलने वाला मूल्य घटता चला गया.’ इसको आगे विस्तार देते हुए अमरीकी कृषि विभाग के सचिव टॉम विल्सेक ने अपने ट्वीट में कहा ‘इन गर्मियों में मेरी भेंट आयोवा प्रांत के किसानों से हुई, जिन्हें मांस प्रसंस्करण इकाइयों को बेचे अपने प्रत्येक पशु पर 150 डॉलर का घाटा उठाना पड़ा, जबकि उसी उद्योग ने एक जानवर का मांस बेचकर 1800 डॉलर का मुनाफा बनाया. कल्पना करें कि मांस प्रसंस्करण करने वाली कंपनियां किसान की आमदनी मारकर किस मात्रा में लाभ कमा रही हैं.’

भारत में, हम अक्सर आढ़तियों और व्यापारियों पर बतौर बिचौलिए मुनाफाखोरी का इल्जाम लगाते आए हैं, लेकिन अमरीका के मांस उद्योग के 85 प्रतिशत हिस्से पर काबिज चार बड़ी कंपनियां असल में इनसे कहीं ज्यादा बड़े बिचौलिए हैं, जिनकी प्रवृत्ति बड़ी शार्क मछली सरीखी है. भारत में भी, बड़ी कंपनियां, जो उक्त शार्कों से कम नहीं, उनकी आमद मंडी व्यवस्था में सही ठहराने की खातिर आढ़तियों को निशाने पर लिया जा रहा है.

यह ठीक है कि बिचौलियों पर नियंत्रण-अंकुश बनाने की आवश्यकता है लेकिन अमरीकी अनुभव बताता है कि मांस उद्योग को सुदृढ़ करने की सोच से अपनाए उपाय वास्तव में जहां मंडी का नियंत्रण चंद बड़ी कंपनियों के हाथ में होने का जरिया बने, वहीं पशुपालक किसान की आजीविका दूभर करते गए. पिछले सालों के दौरान, मांस की खुदरा कीमतों में सिलसिलेवार कमी आने से पशुपालक किसानों की पीढ़ियां इस व्यवसाय से किनारा करती गईं. जैसे-जैसे यह ग्रामीण तबका लुप्त होता गया वैसे-वैसे ‘खेत से प्लेट’ वाला प्रयोग केवल उद्योग आधारित कृषि को ही बढ़ावा देने में सहायक होता गया.

अमरीकी कृषि नीति की यह असफलता ‘मुक्त मंडी व्यवस्था’ से किसानों की बर्बादी का मुंह बोलता उदाहरण है. तुर्रा यह कि इस तथ्य को अभी भी नकारा जा रहा है कि बहुचर्चित ‘मांग-आपूर्ति सिद्धांत’ पशुपालक किसानों की आमदनी सुनिश्चित करने में असफल रहा है. यही कुछ पहले डेरी उद्योग के साथ हो चुका है. खेत से लेकर खुदरा बाजार तक सप्लाई चेन को इसी तरह ‘सुदृढ़’ किया जा रहा है.

वास्तव में, केंद्रीकरण से एकाधिकार बनता है और चंद कंपनियों का गुट, उत्पादक एवं उपभोक्ता, दोनों का बेदर्दी से दोहन करता है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा अपना हिस्सा हड़पते देख अमरीकी राष्ट्रीय किसान यूनियन अब ‘किसानों को न्याय’ नामक राष्ट्रव्यापी अभियान चलाए हुए है ताकि कॉर्पोरेट कंपनियों का एकाधिकार खत्म कर एंटी-ट्रस्ट कानून का पालन बेहतर कड़ाई से हो सके.

अमरीकी सरकार की प्रतिक्रिया में, राष्ट्रपति बाइडेन ने चंद बड़े खिलाडि़यों द्वारा वस्तु-कीमत ऊंची बनाए रखने वाले खेल पर नकेल कसने का आह्वान किया है. इसकी शुरुआत सरकार ने छोटी मांस प्रसंस्करण इकाइयों को 1 बिलियन डॉलर मुहैया करवाकर की है ताकि स्थानीय इकाइयां महाकाय कंपनियों को टक्कर दे सकें. बेशक यह उपाय सर्वोत्तम नहीं है, किंतु कम-से-कम यह स्वीकारोक्ति जरूर है कि कॉर्पोरेट एकाधिकार आपूर्ति के दोनों छोर -उत्पादक और उपभोक्ता का किस कदर दोहन कर रहा है.

हालांकि बेहतर हल है, कृषि उत्पाद और पशुधन को न्यूनतम मूल्य की गारंटी सुनिश्चित करना. आय समानता बनाने की मांग को लेकर वर्ष 1979 में राजधानी वाशिंगटन में किसानों का विशाल ट्रैक्टर विरोध इसीलिए था.

भारतीय किसान भी न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी कानूनन सुनिश्चित करने की मांग कर रहे हैं, ताकि मंडी में कोई भी खरीद इस कीमत से कम पर न होने पाए. इसी तरह यूरोप में भी किसान अपने लगातार जारी संकट से निजात पाने को गारंटिड न्यूनतम उचित मूल्य की मांग बार-बार करते आए हैं.

पिछले कुछ सालों से खेती से लगातार घटती आय की वजह से ही वैश्विक कृषि संकट बना है. इसका उदाहरण वर्ष 2005 है, जब कनाडा की राष्ट्रीय किसान यूनियन ने ‘कृषि संकट : कारण एवं निदान’ नामक विस्तृत रिपोर्ट पेश की थी. इसमें विगत 20 साल (1985-2005) के दौरान दुनिया भर में व्याप्त अभूतपूर्व खेती संकट के पीछे कारण गिनाए थे. यह ठीक वही थे जिन्हें यूएनसीसीएडी ने भी अपने अध्ययन में स्वीकार किया था कि विश्वभर में उत्पाद की कीमत, मुद्रास्फीति जोड़ने के बाद, पिछले 20 सालों से जस-की-तस रही है.

रिपोर्ट यह भी बताती है कि यूरोप में अपनाई गई उच्च नियंत्रणों वाली कृषि-आर्थिक नीतियों और ऑस्ट्रेलिया, अर्जेंटाइना की अपेक्षाकृत कम नियंत्रण वाली, किंतु इतनी ही मारक नीतियों ने कृषि संकट को गहराया ही है.

कनाडा की राष्ट्रीय कृषि यूनियन को यह भी रोष था कि 2005 में मिलने वाली कीमतें 1930 के दशक में आई महामंदी के वक्त रहे मूल्यों से कहीं कम हैं. वह भी ऐसे समय पर जब विश्वभर की आर्थिकी, स्टॉक मार्केट, व्यापार में विस्मयकारी उछाल हुआ हो और खाद्यान्न उत्पादन भी रिकॉर्ड तोड़ हो. इसमें कृषि-संकट का हल निकालने को 16 सूत्रीय पैकेज में उपाय सुझाए गए थे, सूची में न्यूनतम कृषि आय सुनिश्चित करना सबसे ऊपर था.

यूनियन ने सरकार को कृषि आय-सहायता कार्यक्रम लागू करने को कहा ताकि कम-से-कम 95 प्रतिशत किसान उत्पादन की लागत निकाल पाएं, इसकी गणना में श्रम, प्रबंधन का मेहनताना और निवेश पर सूद भी शामिल हो. लेकिन अमरीका की तरह कनाडा की सरकार ने भी गारंटिड मूल्य बनाने की किसानों की इस जायज मांग को नज़रअंदाज़ कर दिया. यह होना ही था क्योंकि क्योंकि दुनिया भर की सरकारें कृषकों-पशुपालकों की सम्माननीय आजीविका सुनिश्चित करने की जरूरत को स्वीकार करने से कतराती हैं. नतीजतन, दुनिया भर के किसान घाटा उठाकर भी अनाज उगाने का अभिशाप ढो रहे हैं.

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