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अनाज की कमी का सच क्या है?

देविंदर शर्मा
चार मई के दिन जब संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के महानिदेशक डॉ. क्यूउ डोंग्यू ने कहा कि दुनिया में फिलहाल 19.3 करोड़ की रिकॉर्ड संख्या में लोग, तीव्र भुखमरी और खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे हैं तो स्थिति की गंभीरता समझ में आती है. नि:संदेह यह इस ओर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यान खींचने का प्रयास था कि कैसे हालिया संकट ने ग्रामीणों का जीवनयापन छिन्न-भिन्न करके बड़ी जनसंख्या को भुखमरी-रेखा से नीचे धकेल दिया है.

तथ्य बताते हैं कि दुनिया उस संकट के चंगुल में फंस चुकी है, जिसे तीसरा वैश्विक खाद्य संकट कहा जाता है.

सतत खाद्य तंत्र पर अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ पैनल (आईपीईएस-फूड) ने ‘एक और संपूर्ण तूफान’ नामक विशेष रिपोर्ट में यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के बाद पैदा हुए गंभीर खाद्य संकट पर विचार करने का प्रयास किया है. साथ ही इस सवाल का जवाब पाने का प्रयास है कि कैसे खाद्य सुरक्षा व्यवस्था में सुधार लाने की विफलता ने पिछले 15 सालों में तीन वैश्विक खाद्य संकट बना डाले.

वर्ष 2007-08 में पहली बार वैश्विक खाद्य संकट बना था, वह भी ऐसे वक्त पर जब वैश्विक खाद्य उत्पादन में जरा भी कमी नहीं आई थी. जिसमें 37 मुल्कों को खाद्यान्न को लेकर दंगे भुगतने पड़े थे, लेकिन तब से लेकर दुनिया ने कोई सबक नहीं सीखा है.

यहां तक कि यूक्रेन-रूस युद्ध शुरू होने से पहले भी, खाद्य कीमतें नई ऊंचाई छू चुकी थीं, जो 2007-08 के खाद्य संकट के बाद का सबसे ऊंचा स्तर रहा.

एफएओ का खाद्य मूल्य सूचकांक इस साल फरवरी में बढ़कर 140.7 प्वाइंट हो गया जो पिछले साल से 20.7 प्वाइंट अधिक था. मक्का, दलहन, खाद्य तेल, कपास, सोयाबीन, चीनी इत्यादि की कीमतों ने ऊंचाई पकड़नी शुरू कर दी.

दूसरे शब्दों में, लड़ाई से पहले भी, खाद्य कीमतें रिकार्ड स्तर छूने के साथ दुनिया तेजी से खाद्य संकट की ओर बढ़ रही थी. दुर्भाग्यवश ठीक इन्हीं वजहों ने प्रथम वैश्विक खाद्य संकट पैदा किया था और इन पर ध्यान देकर ढांचागत सुधार करने की विफलता ने एक बार फिर से संकट बना दिया है.

‘एक नई पीढ़ी पुनः बढ़ती खाद्य असुरक्षा का सामना कर रही है और लगता है पिछले खाद्य संकटों सें कोई सबक नहीं लिया’, ये शब्द हैं आईपीईएस-फूड के सह-अध्यक्ष जेनिफर क्लैप के. उन्होंने आगे कहा : ‘साक्ष्य बताते हैं कि वित्तीय सट्टेबाज कूदकर वस्तु निवेश धंधे में शामिल हो रहे हैं और बढ़ती खाद्य कीमतों पर जुआ खेल रहे हैं और इस काम ने विश्व के सबसे गरीबों को भूख की दलदल में गहरे धकेल दिया है.’

जी-7 संगठन के कृषि मंत्रियों की बैठक में भावी बाजार निगरानी बनाने और सट्टेबाजी की प्रवृत्ति के खिलाफ लड़ने की बात तो सुनाई दी थी, लेकिन यह संकल्प वस्तुओं के मूल्य निर्धारण में होती सट्टेबाजी को प्रतिबंध करना तो दूर, इसको सीमित तक नहीं कर पाया.

जब 2007-08 का खाद्य संकट बना था, उस वक्त संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद को बताया गया था कि अत्यधिक वस्तु व्यापार और सट्टेबाजी अतंर्राष्ट्रीय कीमतों को चला रहे हैं. इस तरह संकट के लिए भावी बाजार को कम से कम 75 प्रतिशत जिम्मेदार ठहराया गया.

अमेरिका के लोकप्रिय टेलीविजन चैनल ‘डेमोक्रेसी नाउ’ पर प्रसारित एक विस्तृत रिपोर्ट में बताया गया कि जहां दुनिया में करोड़ों लोग भूखे पेट सोने को विवश हैं, वहीं सट्टेबाजी ने कृषि-उत्पाद कंपनियों को भारी मुनाफा दिलवाया है. वैश्विक खाद्य उत्पाद में कोई कमी नहीं आई फिर भी खाद्य मूल्य ऊंचे बने हुए हैं. तमाम बड़ी खाद्य कंपनियां जमकर मुनाफा कमा रही हैं.

भूख
भूख

‘द वायर’ नामक समाचार चैनल पर 6 मई, 2022 को ‘लाइटहाउस रिपोर्ट्स’ नामक गैर-मुनाफा संगठन की एक अन्य खोजपरक रिपोर्ट के हवाले से बताया गया है कि वस्तु व्यापार कंपनियों और निवेश फंड्स ने खाद्य वस्तुओं की कीमतों में उछाल में योगदान दिया है.

इससे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन कह चुके हैं : ‘बहुत सारे उद्योगों में, बाजार को चंद भीमकाय कंपनियों ने कब्जा रखा है. अक्सर वे अपनी ताकत का इस्तेमाल कर छोटी कंपनियों को निचोड़ने के साथ ही नव-उद्योगियों का सफाया कर देती हैं. यह हरकत हमारी अर्थव्यवस्था को न केवल कम गतिशील बना रही है बल्कि मनमाफिक कीमतें बढ़ाने की खुली छूट पाना, विकल्प घटाना और कामगारों का दोहन करती है.

उन्होंने पशुपालन उद्योग का उदाहरण दिया कि कैसे यह लगभग सारा केवल चार बड़ी कंपनियों के हाथ में सिमटकर रह गया है, जो अपनी इच्छा से बाजार मूल्य तय करती हैं. लेकिन हैरानी की बात है कि इस मूल्य-दरिंदगी को लेकर कोई हल्ला नहीं मचता.

जहां वस्तु व्यापार गतिविधियों में निवेश फंड्स की संख्या बढ़ी है वहीं गेहूं की अनुबंध खेती करवा कर वायदा-व्यापार में पैसा लगाने वालों में 10 में से कम से कम 7 सट्टेबाज थे. इससे वस्तु मूल्य में इजाफा होता है.

कोई हैरानी नहीं कि विश्व बैंक के मुताबिक, कृषि मूल्य सूचकांक में पिछले साल रही कीमतों के मुकाबले 41 प्रतिशत की वृद्धि पहले ही हो चुकी है. गेहूं का भाव 60 फीसदी तो मक्का का 54 प्रतिशत बढ़ा है.

भले ही यह चिन्ह बढ़ती खाद्य कीमतों और सट्टेबाजी के बीच सीधे संबंध का संकेतक नहीं है किंतु भारत में बढ़ते व्यापारिक हितों का द्योतक जरूर है.

उदाहरणार्थ जितना संभव हो सके गेहूं का अधिक से अधिक निर्यात करना. अवश्य ही व्यापारी जगत चाहेगा कि उसे अबाध निर्यात की इजाजत हो. उन्हें अपना मुनाफा बढ़ता दिखाई दे रहा है, आगे भी इसके बढ़ने की आस है.

बढ़ती वैश्विक खाद्य कीमतों ने सबसे ज्यादा चोट गरीब देशों को पहुंचाई है और ठीक वक्त आयात को महंगा किया है. पहले ही 53 मुल्कों के गरीब– सूडान से लेकर अफगानिस्तान तक– अत्यंत खाद्य असुरक्षा से जूझ रहे हैं. एफएओ ने कहा है : ‘यह भूख है, जिसका अकाल में बदलने का खतरा है और इसके कारण बहुत बड़े पैमाने पर मौतें होंने का अंदेशा है’.

पिछले सालों में, कुछ देशों में निरंतर संघर्ष जारी रहने के बावजूद, अन्य मुल्कों को अपनी खाद्य-सुरक्षा यकीनी बनाने के लिए प्रोत्साहित करने वाले अंतर्राष्ट्रीय प्रयास यथेष्ट नहीं रहे. इसी तरह, क्षेत्रीय आपातकालीन खाद्य भंडार बनाना– ताकि उपज में कमी की भरपाई हो सके- यह काम बढ़ नहीं पाया.

हालांकि ऊंची उठती खाद्य कीमतों के पीछे वजह अक्सर खूनी लड़ाई, पर्यावरण में बदलाव, गरीबी और आर्थिक झटके (सट्टेबाजों के वायदा व्यापार से) का मिलाजुला नतीजा बताया जाता है, लेकिन जिस अवयव को नज़रअंदाज किया जाता है वह है खाद्य आयात पर अत्याधिक निर्भरता.

उदाहरणार्थ, रूस-यूक्रेन इलाका 30 देशों को गेहूं निर्यात करता है और इन खाद्य-आयातक मुल्कों में बहुत से यदि चाहते तो अन्न के मामले में खुद को आत्मनिर्भर बना सकते थे. यहां भी एक सबक है.

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