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खाली हाथ रामेश्वर

राजेश जोशी | फेसबुक

रामेश्वर ने एक वीडियो के ज़रिए हमारी चेतना में प्रवेश किया, हममें से कुछ को बेचैन किया और ग़ायब हो गया.

वो दिल्ली की एक मंडी में सुबह सुबह अपनी रेहड़ी लेकर सब्ज़ी ख़रीदने गया था. सब्ज़ी ख़रीदता, उसे अपने रिक्शे पर लादकर गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले बेचता, थोड़ा पैसा बचता जिससे अगले दिन सब्ज़ी ख़रीदता और शाम को खाने के लिए राशन घर ले जाता. लेकिन सब्ज़ी महँगी थी और उसके पास पैसा कम था. वो ख़ाली रिक्शा लेकर ही मंडी से लौट रहा था कि नौजवान पत्रकार की नज़र उस पर पड़ी और उसने रामेश्वर से जानना चाहा कि वो ख़ाली हाथ क्यों लौट रहा है?

रामेश्वर के लिए ख़ाली हाथ लौटना कोई नई या असामान्य बात नहीं रही होगी. वो अक्सर हर जगह से ख़ाली हाथ ही लौटता रहा होगा – अपने गाँव से, सरकारी दफ़्तर से, राशन की लाइन से या भगवान की चौखट से. बार-बार ख़ाली हाथ लौटने के बावजूद जीवित रहने से उसके चेहरे पर एक आत्मविश्वास-सा आ गया था. शायद वो हालात पर थोड़ा मुस्कुरा भी रहा था. पत्रकार ने पूछा ख़ाली हाथ क्यों लौट रहे हो?

“टमाटर बहुत महँगा है, मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही है. अब वहाँ जाकर क्या भाव बिके, क्या भाव न बिके… अब हमें घाटा लग जाता है. गुज़ारा नहीं हो पाता है. और गुज़ारा करने के लिए तो कुछ ही मिले. यानी सारी चीज़ें ही महँगी हैं. हमारे पास गुंजाइश नहीं है.”

ये कहते हुए पूरे १५ सेकेंड तक रामेश्वर अपने चेहरे पर आत्मविश्वास की मज़बूत चादर ताने रखने में कामयाब रहा. फिर पत्रकार ने सवाल किया: “आपका ठेला ऐसे ही ख़ाली जाएगा वापिस? कुछ और तो भरोगे टमाटर के अलावा?”

खाली हाथ रामेश्वर
खाली हाथ रामेश्वर

अपने भीतर उमड़ आ रहे भीषण आवेग को थामने की भरसक कोशिश करते हुए रामेश्वर कुछ देर रिपोर्टर की आँखों में आँखें गड़ाए रहा. फिर वो फ़ेल हो गया. बोला – “इतना पैसा नहीं है.” उसने अपना मुँह फेर लिया. आँसुओं को रोकने की कोशिश में आँखें बड़ी कीं, मुँह खोला, अपने को किन्हीं और ख़यालों में डुबाने की कोशिश भी की हो शायद. फिर भी उसकी चुप्पी नि:शब्द रुदन में बदल गई. नौजवान रिपोर्टर समझदार था, उसने कोई सवाल नहीं किया. रामेश्वर ने कंधे पर पड़े सफ़ेद गमछे से आँखें पोंछ डालीं और कुछ देर की ख़ामोशी के बाद जैसे हथियार डालते हुए कहा,“हमारी गुज़र नहीं हो रही.”

यही वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया. राहुल गाँधी, प्रियंका गाँधी सहित तमाम लोगों ने वीडियो शेयर किया. लोग पूछने लगे कि रामेश्वर की मदद कैसे करें. रिपोर्टर Bhanu Kumar Jha ने बड़ी विनम्रता से स्वीकार किया कि वो रामेश्वर का नंबर लेना भूल गए हैं. “आज सुबह से उन्हें ढूँढ रहा हूँ लेकिन वो अब तक मिले नहीं हैं.”

अब पत्रकार कहाँ ढूँढें रामेश्वर को? बहुत कोशिश की लेकिन उसका पता ही नहीं चल रहा. वो जिस तरीक़े से हठात् परिदृश्य में आया उसी तरह अलोप भी हो गया.

रामेश्वर हमें अक्सर नज़र नहीं आते. वो हमें तब दिखते हैं जब हुक्मरान अचानक लॉकडाउन घोषित कर देते हैं. फिर परिवार सहित पैदल सड़कें नापते रामेश्वरों की क़तार का क़तार हमारे सामने होती हैं. कुछ समय बाद वो और उनकी तमाम दहला देने वाली तस्वीरें हमारी स्मृतियों से लुप्त हो जाती हैं.

खोया हुआ रामेश्वर पत्रकारों को मिल जाए तो एक और द्रवित कर देने वाली कहानी बन जाएगी. अगर वो मिल जाए तो उससे पूछा जाएगा – कहाँ के रहने वाले हो? घर में कमाने वाले कितने और खाने वाले कितने? बच्चों को पढ़ने भेज पाते हो या वो भी रेहड़ी लगाते हैं? सुबह-शाम घर का चूल्हा कैसे जलता है? हारी-बीमारी हो जाए तो दवा-डॉक्टर के लिए पैसे जुटा लेते हो या गंडा-ताबीज-भभूत के भरोसे बीमारी कट जाने का इंतज़ार करते हो?

रामेश्वर मिल जाए तो पूरा देश अपने स्मार्ट फ़ोन और टीवी पर उसके जीवन के जंजाल का रेशा-रेशा देख पाए और भर-भर आने वाली अपनी आँखों को पोछते हुए अफ़सोस करे कि देखो, बेचारे पर कैसी मुसीबत आई हुई है. ऐसे ही अफ़सोस हम पहले भी तो किया करते थे जब किसी के पास स्मार्ट फ़ोन और टीवी नहीं थे. तब हम अफ़सोस करने और अपनी गीली आँखों को पोछने शहर के नज़दीकी टॉकीज़ों में जाया करते थे जहाँ दिलीप कुमार-मीना कुमारी की कोई दुखांत फ़िल्म चल रही होती थी. भयानक बारिश-झंझावात में अपने भूखे बच्चे के लिए रोटी की तलाश में बाहर निकली और फिर ख़ाली हाथ लौटी हिरोइन के साथ पूरा राष्ट्र न जाने कितनी बार रोया होगा. रामेश्वर के वीडियो ने भी तो हमारा वैसा ही मनोरंजन किया जैसा दिलीप कुमार-मीनाकुमारी का दुखांत किया करता था.

सिनेमा हॉल से बाहर निकलने के बाद तब क्या हमने चुटकुले सुनने-सुनाने बंद कर दिए थे? क्या हमने चुहलबाज़ियाँ नहीं की थीं? क्या साज़िशें रचनी बंद कर दी थीं? लूट और अन्याय की अनदेखी नहीं की थी? रामेश्वर का वीडियो देखने के बाद क्या हम अगली रील में ठुमके लगाकर नाच रहे अधेड़ सज्जन की कारस्तानियाँ नहीं देख रहे थे?

हाँ अगर अब भी आप ग़रीबों की दुखभरी दास्तान सुनकर सुबकना चाहते हैं तो अपनी ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी के बाहर खड़े पल्लेदारों, झल्ली वालों, रेहड़ी वालों, रिक्शे वालों के झुण्ड की ओर चले जाइए. रामेश्वर वहीं खड़ा मिलेगा. ख़ाली हाथ.
(समय का सच के लिए विशेष. फ़ोटो साभार – द लल्लनटॉप)

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