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वे कहीं गए हैं, बस आते ही होंगे

दूसरी घटना- भोपाल रेलवे स्टेशन की. हमीदिया अस्पताल में उनकी सेहत सुधरती न देखकर उन्हें नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में भर्ती कराने की व्यवस्था की गई थी. हम रेलवे स्टेशन पर थे. एक कंपार्टमेंट में बर्थ पर पिताजी अद्र्धचेतनावस्था में लेटे हुए थे. आसपास के वातावरण से एकदम बेखबर. माँ साथ में थी और पिताजी मित्रगण – परसाई जी, प्रमोद वर्मा जी और भी कई. पिताजी की ऐसी अवस्था देखकर मन फिर भीग गया. लगा जैसा कि यह उनका अंतिम दर्शन है. वाकई मेरे लिए वह अंतिम दर्शन ही था. उनसे मिलने हम दिल्ली जा नहीं पाए. पिताजी 11 सितंबर 1964 को विदा हो गए. हूमायूं का किस्सा मुझे लगता है, मेरे लिए हकीकत बन गया. मेरे लिए, मेरे जीवन का यह सबसे बड़ा सत्य हैं.

मुझे याद नहीं पिताजी कभी बीमार पड़े हो. ऊंचे पूरे, स्वस्थ और सुदर्शन व्यक्तित्व. हमेशा प्रसन्न रहने वाले. मैंने उन्हें गुस्से में कभी नहीं देखा. अलबत्ता कभी-कभी विषाद और चिंताएं उनकी बेचैनी भरी चहलकदमी से महसूस की जा सकती थी. स्वामी कृष्णानंद सोख्ता के रोड एक्सीडेंट में मारे जाने की खबर जब उन्हें मिली तो वे बेहद दु:खी हुए. इसी तरह भोपाल के हमीदिया अस्पताल में बिस्तर पर पड़े-पड़े जीवन के प्रति उनका निराशा को चेहरे पर देखा-पढ़ा जा सकता था. हालांकि इलाज के चलते उनकी तबीयत में कुछ सुधार हुआ था. सहारा लेकिन वे कुछ कदम चलने-फिरने लगे थे लेकिन इलाज का प्रभाव सीमित ही रहा. मुझे लगता है दो बड़ी घटनाओं ने उन्हें तगड़ा मानसिक आघात दिया जिसका असर उनकी सेहत पर पड़ा. पहली घटना जब तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार के पाठ्यपुस्तक के रुप में स्वीकार की गई उनकी किताब भारत: इतिहास और संस्कृति पर प्रतिबंध लगा, संघ समर्थकों ने जगह-जगह किताब की होली जलाई और दूसरी घटना बीमारी के दौरान उनके लिए की गई आर्थिक सहायता की अपील. धर्मयुग में प्रभाकर माचवेजी का लेख और मदद की अपील ने उन्हें बहुत विचलित किया. स्वाभिमान पर ऐसी चोट उनके जैसा संवेदनशील कवि कैसे बर्दाश्त कर सकता था? उन्होंने इस अभियान को पसंद नहीं किया किन्तु उसे रोक नहीं पाए. शारीरिक अवस्था ऐसी नहीं थी कि प्रतिकार किया जाए. पर वे बहुत दुखी थे.

पिताजी को गुजरे 52 वर्ष हो गए. आधी शताब्दी बीत गई. हम, उम्र दराज हो गए, एक को छोड़ तीनों भाई 60 के पार. इस बीच माँ नहीं रही, विवाहिता बहन नहीं रही, भाभी नहीं. कितना कुछ बदल गया लेकिन नहीं बदला तो घर का वातावरण. वह अभी भी वैसा ही है जैसा हमारे नागपुर में नयी शुक्रवारी, गणेश पेठ, राजनांदगाँव में बसंतपुर व दिग्विजय कॉलेज परिसर वाले मकान में था. पिताजी की सशरीर मौजूदगी वहाँ थी और अब रायपुर में हमारे घर में उनकी अदृश्य उपस्थिति, हमारी आत्मा में उपस्थिति मौजूद हैं. इसलिए हमेशा यह महसूस होता हैं, वे कहीं गए हैं, बस आते ही होंगे.
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मुक्तिबोध जन्मशताब्दी वर्ष की शुरुआत 13 नवंबर 2016 से हो चुकी है. एक बेटे के तौर पर बचपन एवं किशोर वय की ओर बढ़ते हुए हमें उनके सान्निध्य के करीब 10-12 वर्ष ही मिले. जन्म के बाद शुरु के 5-6 साल आप छोड़ दीजिए क्योंकि यादों के कुछ पल, कुछ घटनाएँ ही आपके जेहन में रहती है जो जीवन भर साथ चलती हैं.

“”पता नहीं कब कौन कहां, किस ओर मिले,
किस सांझ मिले, किस सुबह मिले,
यह राह जिंदगी की, जिससे जिस जगह मिले.”

कविता की ये वे पंक्तियां हैं जिन्हें मैं बचपन में अक्सर सुना करता था, पाठ करते हुए मुक्तिबोधजी से. स्व. श्री गजानन माधव मुक्तिबोध मेरे पिता, जिन्हें हम सभी, घरवाले दादा-दादी भी बाबू साहेब के नाम से संबोधित करते थे. मैं उनका श्रोता उस दौर में बना जब मुझे अस्थमा हुआ. दमे के शिकार बेटे को गोद में लेकर हालांकि वह इतना बड़ा हो गया था कि गोद में नहीं समा सकता था, थपकियां देकर वे जो कविताएं सुनाया करते थे, उनमें “”पता नहीं” शीर्षक की इस कविता की प्रारंभिक लाइनें मेरे दिमाग में अभी भी कौधंती हैं. वह शायद इसलिए कि मैंने उसे उनके स्वर में बार-बार सुना है. जिस लयबद्ध तरीके से वे इसे सुनाया करते थे, कि मुझे थोड़ी ही देर में नींद आ जाती थी. अस्थमा एक ऐसा रोग है जो आदमी को चैन से सोने भी नहीं देता. धाैंकनी की तरह बेचैनी होती सांसें ऊपर-नीचे होती रहती हैं जिसकी वजह से सीधा लेटा नहीं जा सकता. दो-तीन तकियों के सहारे आधा धड़ ऊपर रखकर-एक तरह से बैठे-बैठे राते काटनी पड़ती हैं. 10-11 साल की उम्र में मुझे दमे ने कब कब पकड़ा, याद नहीं, अलबत्ता पिताजी की बड़ी चिंता मुझे लेकर थी. इसलिए जब अधलेटे बेटे की हालत उनसे देखी नहीं जाती थी, तब वे उसे गोद में लेकर सस्वर कविताओं का पाठ करते थे, आगे पीछे अपने शरीर को झुलाते हुए ताकि मुझे नींद आ जाए और वह आ भी जाती थी.

बाबू साहेब की उर्दू शायरी में भी गहरी दिलचस्पी थी. उस दौर के प्रख्यात उर्दू शायरों की किताबें उनकी लायब्रेरी में थी, जिन्हें वे बार-बार पढ़ा करते थे. जिन पंक्तियों को मैने अक्सर उन्हें गुनगुनाते हुए सुना है वह है – “अभी तो मैं जवान हूँ, अभी तो मैं जवान हूँ, अभी तो मैं जवान हूँ.”

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