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वे कहीं गए हैं, बस आते ही होंगे

बहरहाल सन् 1960 में जब हम वसंतपुर से दिग्विजय कॉलेज में एरिया में रहने गए थे, तब भी उसका सौंदर्य अद्भुत था, हालांकि वह खुरदुरा था. शहर में रहते हुए गाँव जैसा अहसास. सिंह द्वार, आम रास्ता था. सुबह-शाम खुलता-बंद होता. दरवाजों पर बड़ी-बड़ी कीलें ठुकी हुई थीं जो राजशाही की प्रतीक थीं. वे अभी भी वैसी ही हैं. इस द्वार से सबसे ज्यादा आते-जाते थे वे धोबी जिनके लिए दोनों तालाबों के घाट ज्यादा मुफीद थे. धोबीघाट पर कपड़े पटकने की ध्वनि में भी एक अलग तरह की मिठास थी. मकान की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से टकराती ध्वनियां मधुर संगीत का अहसास कराती थी. पिताजी के जीवन के ये सबसे अच्छे दिन थे. राजनांदगाँव का वसंतपुर व दिग्विजय कॉलेज का हमारा किराए का मकान.

जहाँ तक मुझे स्मरण है, बाबू साहेब ने नागपुर आकाशवाणी की नौकरी छोडऩे के बाद, “नया खून’ में काम किया. यह उनकी पत्रकारिता का दौर था जिसमें उन्होंने सम-सामयिक विषयों जिसमें राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दे भी शामिल है, काफी कुछ लिखा. उन दिनों के नागपुर का भी उन्होंने बड़ा भावनात्मक चित्र खींचा. माँ से मैंने सुना था “नया खून’ में रहते हुए उनके लिए दो नौकरियों की व्यवस्था हुई थी. दिल्ली श्री श्रीकांत वर्मा ने प्रयत्न किए थे और राजनांदगाँव से श्री शरद कोठारी ने. अब समस्या दो शहरों में से एक को चुनने की थी. अंतत: बाबू साहेब ने महानगर की बजाए कस्बाई राजनांदगाँव को चुना. दिग्विजय कॉलेज जो उन दिनों निजी था, में उन्हें प्राध्यापकी मिली. यह एकदम सही निर्णय था क्योंकि जो शांतता और सौहाद्र्रता इस शहर थी, वह उन्हें संभवत: दिल्ली में नहीं मिल सकती थी. राजनांदगाँव उनके लेखन एवं जीवन की दृष्टि से इसीलिए महत्वपूर्ण रहा.

वे कितने पारिवारिक थे, कितने संवेदनशील यह बहुतेरी घटनाओं से जाहिर है. एक प्रसंग है- वसंतपुर में हमारे मकान के सामने आगे बड़ा था मैदान था जहां हम प्राय: रोज पतंग उड़ाया करते थे. एक दिन पतंग उड़ाते- उड़ाते मैं पीछे हटता गया और अंत में मेरा पैर एक बड़े पत्थर से जा टकराया. हड्डी में चोट आई. कुछ दिनों में वह बहुत सूज गया और उसमें मवाद आ गया. सरकारी अस्पताल में डॉक्टर ने कहा – चीरा लगाना पड़ेगा. दर्द के उन दिनों में पिताजी हर पल मेरे साथ रहे. अस्पताल लाना-ले-जाना, पास में बैठना, पुचकारना और आखिर में सरकारी अस्पताल में चीरा लगाते समय मुझे पकड़कर रखना. उन दिनों ऐसी छोटी-मोटी सर्जरी पर एनेस्थिया नहीं दिया जाता था. छोटे बच्चे इंजेक्शन से वैसे भी घबराते है और ऊपर से चीरा. भयानक क्षण थे. मेरी दर्द भरी चीखें और मजबूती से मेरे पैर पकड़े हुए घबराए से पिताजी. उनका कांपता चेहरा, वह दृश्य अभी भी आँखों के सामने हैं.

मुझे अस्थमा था. जब यह महसूस हुआ कि घर के दोनों तरफ के तालाब और उमस भरा वातावरण इसकी एक वजह है तो मेरे रहने की अलग व्यवस्था की गई. माँ के साथ एवं बड़े भैय्या के साथ. गर्मी के दिन थे. शहर से बाहर जैन स्कूल में छुट्टियां थी इसलिए स्कूल के एक कमरे में मैं माँ के साथ रहा. इसके बाद मेरे लिए शहर के नजदीक लेबर कॉलोनी में एक कमरे का मकान किराये पर लिया गया जहाँ मैं भैया के साथ रहने लगा. पिताजी रोज शाम को पैदल मिलने आया करते थे, किसी नजदीकी मित्र के साथ. मेरे लिए उनकी चिंता गहन थी. अभावों के बावजूद उन्होंने हमें किसी बात की कमी नहीं होने दी. समय के साथ मैं तो ठीक हो गया पर वे बीमार पड़ गए. ऐसे पड़ गए कि फिर बिस्तर से उठ नहीं पाए.

यकीनन राजनांदगाँव उनकी सृजनात्मकता का स्वर्णिम काल था. जीवन में कुछ निश्चिंतता थी, कुछ सुख थे पर दुर्भाग्य से यह समय अत्यल्प रहा. लेकिन मात्र 6-7 साल. इस अवधि में उनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण लेखन यही हुआ. वे छत्तीसगढ़ के प्रति कितने कृतज्ञ थे, इसका प्रमाण श्री श्रीकांत वर्मा को लिखे गए उनके पत्र से मिलता है – 14 नवंबर 1963 के पत्र में उन्होंने लिखा है -“उस छत्तीसगढ़ का मैं ऋणी हूँ जिसने मुझे और मेरे बाल बच्चों को शांतिपूर्वक जीने का क्षेत्र दिया. उस छत्तीसगढ़ में जहाँ मुझे मेरे प्यारे छोटे-छोटे लोग मिले, जिन्होंने मुझे बाहों में समेट लिया और बड़े भी मिले, जिन्होंने मुझे सम्मान और सत्कार प्रदान करके, संकटों से बचाया”.

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