Columnistताज़ा खबर

ब्रेवो जस्टिस धूलिया!

कनक तिवारी
कर्नाटक के हुगली से उपजे हिजाब विवाद पर फैसला आधा अधूरा फिलवक्त सुप्रीम कोर्ट से हुआ है.जस्टिस हेमन्त गुप्ता की वरिष्ठता वाली द्विसदस्यीय बेंच में जस्टिस धूलिया का असहमत फैसला है. उम्मीद के मुताबिक जस्टिस हेमन्त गुप्ता ने कर्नाटक सरकार और एक स्कूल प्रबंधन के पक्ष में फैसला किया. वही हाई कोर्ट ने पहले कर दिया था.

इन जजों ने माना कि सरकार और स्कूल प्रबंधन को स्कूल में ड्रेस कोड लागू करने का हक है. हिजाब पहनती मुस्लिम समाज की लड़कियां ड्रेस कोड का उल्लंघन नहीं कर सकतीं.

इसके बरक्स मुस्लिम लड़कियों ने पहले तो अपमान और हमले सहे. फिर कर्नाटक हाई कोर्ट की ड्योढ़ी पर असफल दस्तक दी. उस फैसले के खिलाफ दाखिल अपील में सुप्रीम कोर्ट ने दोनों पक्षों के बीच आधा आधा फैसला कर दिया.

तुर्रा यह कि 133 पृष्ठ के जस्टिस हेमन्त गुप्ता के फैसले की ज़्यादा चर्चा नहीं हुई. संवैधानिक नायक की मुद्रा में इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट और सोशल मीडिया में जस्टिस सुधांशु धूलिया का निर्णय चर्चित और वैचारिक रहा.

अब तक सामान्य समझ रही है कि सभी धर्मों मसलन इस्लाम, की भी कुछ पारम्परिक नीतियां, हिदायतें और मुमानियत हैं. जो अनुयायी व्यक्ति उन्हें नहीं मानेगा. वह काफिर, तनखैय्या या धर्मच्युत जैसा करार भी दिया जा सकता है.

आज कबीलाई समाज भले नहीं हो, लेकिन भारत में जातीय और मजहबी समाजों द्वारा किसी असहमत या विरोधी लगते उसी समूह के सदस्य की ज़िंदगी दूभर तो की जाती है.

पिछले बरसों में खाप पंचायत नाम का अत्याचारी जमावड़ा खासतौर पर हरियाणा के युवक युवतियों का ऐलानिया कत्लेआम भी करता रहा जो कथित सामाजिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर अंतरजातीय या अंतरधार्मिक विवाह अपने दम पर कर लेते रहे.

जस्टिस हेमन्त गुप्ता ने पूरा ध्यान फैसले में इस तर्क पर लगाया कि इस्लाम की धार्मिक परंपराओं, प्रक्रियाओं या नसीहतों का मूल इस्लाम धर्म की आंतरिक बनावट नहीं है, जिसकी आड़ में हिजाब पहनने की जिद की जाए. अमूमन यही तर्क अब तक समाज में भी जीवित और वाचाल रहा है.

जस्टिस धूलिया ने इतिहास के ऊसर खेत में लगभग पहली बार उर्वरता का हल चला दिया. उन्होंने मूल स्थापना यही की कि हिजाब पहनने की कथित इस्लामी परंपरा का अपने आप में कोई औचित्य नहीं है. नए ज़माने की स्कूल, कॉलेज जाने वाली बच्चियां धर्म अंध होकर हिजाब पहन रही हैं. ऐसा भी नहीं माना जा सकता.

जस्टिस धूलिया ने गौरतलब नया तर्क उछाला कि हिजाब पहनने का मूल अधिकार परम्परा से नहीं, संविधान के अनुच्छेद 19 (क), 21 और 25 (2) से उपजता है. अब तक हिजाब पहनना एक तरह से धर्मानुगत आचरण समझा जाता रहा है. उससे जस्टिस धूलिया ने सहमति व्यक्त नहीं की.

उन्होंने दो टूक कहा हिजाब पहनना अपनी पसंद का निजी अधिकार है उसका समाजिक प्रतिबंधों, समझाइश या कथित धार्मिक आचरण से क्या लेना देना? पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट की एक बड़ी बेंच ने निजता के अधिकार का फैलाव करते यहां तक कहा ही था कि गरिमामय जीवन जीना निजता के अधिकार पर निर्भर है, किसी संसदीय, सरकारी या सामाजिक छूट या प्रतिबंध के तहत नहीं.

हिजाब प्रकरण में भी जज ने कहा कि कोई लड़की हिजाब पहने या नहीं पहने, यह उसका अधिकार है. उसकी पसंद है. यहां ठहरकर उन्होंने उन कठमुल्ला ताकतों को भी इशारा कर दिया कि वे भी मजहबी हुक्मनामे के आधार पर किसी बच्ची को हिजाब पहनने की बंदिश नहीं लगा सकते.

संविधान का अनुच्छेद 21 उसकी आत्मा है. मनुष्य का सबसे बड़ा अधिकार तो उसकी जिंदगी है. यदि वही नहीं रहेगी तो बाकी बकवास में क्या रखा है. अनुच्छेद 21 कहता है किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रकिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं.

उस दैहिक स्वतंत्रता के क्या मायने जहां व्यक्ति को अपनी पसंद के कपड़े तक पहनने की छूट या इजाज़त नहीं है?

जस्टिस धूलिया के अनुसार हिजाब पहनना उसी बच्ची का अधिकार अपने घर में है. सड़कों और बाजार में है. कार्यक्रमों में है और इसी तरह स्कूल प्रांगण और कक्षा के कमरे तक है. निजता का यह मूल अधिकार उसकी देह की आत्मा है. (अर्थात मुझे लगता है धूलिया कह रहे थे यह अधिकार ही देहात्मा है.) सच भी यही है.

जस्टिस हेमन्त गुप्ता सहित अब तक बहस अनुच्छेद 25 (1) के तहत होती रही है जो व्यक्तियों को धर्म के अबाध रूप से मानने का हक देता है. उसके बरक्स यही तर्क हुआ कि हिजाब पहनना इस्लाम के बुनियादी आदेशों के तहत नहीं है. वह तो समाज द्वारा ओढ़ी गई एक प्रथा है.

जस्टिस धूलिया ने इस धरातल को ही खिसका दिया. उन्होंने लिखा कि धार्मिक आधार पर कोई रीति रिवाज, हुक्मनामा या बंदिश है. उस पर विचार करने की ही ज़रूरत नहीं है. एक व्यक्ति की निजता को लेकर धर्म को ही क्यों सामने किया जाए? धर्म का काम है अच्छाई को करे. यह तो निजी व्यक्ति का हक है कि वह बुराई से लड़े. उन्होंने दो टूक लिखा कि सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का अधिकार संविधान ने दिया है.

यह कैसा अंतःकरण है जो किसी के द्वारा लगाए गए प्रतिबंध को मानता हुआ भी खुद को अंतःकरण कहेगा? किसी भी स्कूल को अनुशासन संहिता लगाने का अधिकार है क्योंकि वह संविधानसम्मत है. लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि ड्रेस कोड अपनाने से याने बिल्कुल एक जैसे कपड़े पहनने से ही अनुशासन कायम होता है. ऐसा कोई भी ड्रेस कोड किसी की निजता और उसके अंतःकरण की स्वतंत्रता या अभिव्यक्ति की आजादी का छीनना सुनिश्चित नहीं कर सकता. हिजाब पहनकर भी लड़कियां अपने स्कूल में अनुशासनपरायण रह सकती हैं.

सबसे महत्वपूर्ण बात धूलिया निर्णय में यह है कि लड़कियों के हिजाब पहनने की आड़ में जो लोग अकादमिक शेखी बघारते हैं. उनके लिए भी मुनासिब चेतावनी पढ़ी जा सकती है. कर्नाटक में हिजाब विवाद पैदा करने से यह भी हुआ है कि कई कम उदार मुस्लिम परिवारों ने अपनी बच्चियों को या तो मदरसा स्कूलों में भर्ती करा दिया जहां पढ़ाई का स्तर उतना अच्छा और वैज्ञानिक नहीं है अथवा उनकी पढ़ाई ही बंद कर दी.

यह चेतावनी गौरतलब और जेरेबहस है कि भारतीय निम्न और मध्यवर्गीय परिवारों और खासतौर पर मुस्लिम परिवारों में लड़कियों की संस्थागत पढ़ाइयों में औसत प्रतिशत कम है. यह दुखद हुआ कि हिजाब प्रकरण को इस्लाम की हिदायतें या हिन्दुत्व के कठमुल्ला आग्रहों और आक्रमणों के कारण बच्चियों की पढ़ाई का बेहद नुकसान हुआ और आगे भी यथास्थिति रहने पर नुकसान होने की संभावना बनी हुई है.

संविधान के समतामूलक सिद्धांतों में यह भी शामिल है कि किसी भी कानून या आदेश को शब्दों की दुनिया से बाहर ले जाकर असलियत की दुनिया में देखा परखा जाए. आगे सुप्रीम कोर्ट जो फैसला करे और हिजाब की प्रथा का जो भी हो. मुख्य सवाल यही है कि समाज और अदालतों के आचरण से क्या तरुण उम्र की बच्चियों के शिक्षा भविष्य को बर्बाद तो नहीं किया जाएगा.

मुझे लगता है सुप्रीम कोर्ट में अब बहस को जस्टिस धूलिया द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों की बुनियाद पर जिस तरह चाहे विकसित किया जाए लेकिन हिजाब पहनना न तो धार्मिक आचरण की परिधि में है और न ही वह किसी सरकारी हुक्मनामे का ताबेदार है.

एक व्यक्ति की निजता उसके जीवन और अभिव्यक्ति की आजादी सहित अंतःकरण की स्वतंत्रता के आधार पर ही होना चाहिए. जस्टिस धूलिया ने ठीक कहा न तो इससे ज़्यादा, न इससे कम.

ईरान से तुलना इसलिए नहीं हो सकती क्योंकि ईरान में एक ही इस्लामिक धर्म शिया है. वहां की युवतियां हिजाब के पक्ष या विरोध के बदले आयातुल्ला खोमैनी के सरकारी फरमान के खिलाफ लड़ रही हैं कि सरकार तय नहीं करेगी हमें क्या पहनना है.

भारत में मुसलमान एक सेक्युलर राज्य में हैं लेकिन अल्पसंख्यक हैं. जिस तरह का हिन्दू राष्ट्रवाद हिंसा की सड़कों पर उभारा जा रहा है. वहां हर मस्जिद तक को डर लगता है कि हनुमान चालीसा और जय श्री राम का इस्तेमाल धार्मिक सद्भाव के बदले राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने में किया जा रहा है.

ईरान के ठीक उलट भारत में यदि हिजाब नहीं पहनने का फरमान होगा तो निजाम के हुक्म के खिलाफ प्रतिकार करने की भारतीय छात्राओं की हिम्मत उन्हें दकियानूस नहीं कह सकती. इन दोनों विपरीत स्थितियों के बीच जस्टिस धूलिया का फैसला एक नई जमीन तोड़ता है.

कोई तय मत करे यहां तक कि अदालत भी कि मुस्लिम बच्चियों को या अन्य धर्मावलंबियों को अपनी पसंद की ज़िंदगी गुजारने से कैसे रोका जा सकता है, यदि वे संविधान की आज्ञाओं के तहत आचरण कर रहे हैं. भारतीय संसदीय लोकतंत्र में एक व्यक्ति की गरिमा को उसकी स्वतंत्रता सहित रूढ़िवादी आचरण और निजाम की तुनक के बनिस्बत तरजीह दी जाए. यह भारतीय संविधान की असल ताकत है. वही भारत होने का प्राण तत्व है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!