नक्सलियों ने कहा-जघन्य अपराध
दंतेवाड़ा में धीमी शुरूआत तो थी ही, साथ ही यह पहला मौका था जब किसी अखबार के लिए बतौर जिला प्रतिनिधि जिम्मेदारी का निर्वहन कर सकूं. यहां उस समय नवभारत और दैनिक भास्कर में ही पत्रकार की नियुक्ति हुई थी. बाकि अखबारों में एजेंसी, संवाददाता व जिला प्रतिनिधि एजेंसी, विज्ञापन के आधार पर कार्यरत थे. हालांकि नवभारत और दैनिक भास्कर में विज्ञापन का काम तो जिला प्रतिनिधि को देखना ही होता था. सर्कुलेशन का काम आंशिक रूप से मुक्त था. जिम्मेदारी होती थी कि जिले के सभी सेंटरों के भुगतान समय पर आ जाएं. विज्ञापनों की बिलिंग की जिम्मेदारी बड़ी थी. यानी अखबार अगर वेतन देता था तो इसके पीछे कहीं ना कहीं विज्ञापनों की बिलिंग का आधार बड़ा होता था.
जब मैंने दंतेवाड़ा ब्यूरो का काम संभाला तो यहां न तो अखबार का दफ्तर था और ना ही कोई संसाधन. अखबार के लिए खबरें लिखने के बाद दंतेवाड़ा जिले को भी समझना जरूरी था. यह बेहद जरूरी काम है. इसके बगैर किसी भी खबर की विश्वसनीयता पर खतरा हो सकता है. फील्ड रिपोर्टिंग के लिए यह अनिवार्य है. अगर आपने सभी जगहों को देखा है तो यहां से किसी भी खबर की पुष्टि कई माध्यमों से कर सकते हैं. वैसे भी संवेदनशील जिला होने के कारण यह जिम्मेदारी कुछ ज्यादा ही आवश्यक है.
सलवा जुड़ूम और पत्रकारिता
यह सवाल कई मंचों पर कई बार उठा है कि आखिर सलवा जुड़ूम का सच क्या है? माओवादी और सरकार के अपने-अपने तर्क हैं. पर एक पत्रकार के रूप में मैंने जो कुछ देखा, वह बिल्कुल जुदा है. (इसके बारे में फिर कभी) पर यहां यह बताना चाहूंगा कि एक पत्रकार को अपनी खबर के लिए क्या तकलीफ उठानी पड़ती है?
बात 25 मई 2004 को दंतेवाड़ा जिला गठन के वर्षगांठ की है. इसी दिन मेरे पास एक खबर आई कि बीजापुर इलाके में कई जगहों पर नक्सलियों के खिलाफ बैठकें हो रही हैं. यह बैठक कुटरू क्षेत्र में लगातार होने की सूचना मिली. मैंने खबर बनाई और रायपुर भेज दी. रिजनल डेस्क इंचार्ज वीरेंद्र शुक्ल हुआ करते थे. उन्होंने इस खबर को शाम की बैठक में संपादक प्रदीप कुमार को बताई और इसे फ्रंट पेज के लिए दे दिया. खबर नहीं लगी.
तीन दिनों तक खबर के बारे में ना तो संपादक प्रदीप कुमार जी ने कुछ स्पष्ट किया और ना ही खबर प्रकाशित करने के लिए रिलीज की. 29 मई को मैंने इस संबंध में आगे की बात पता करके वीरेंद्र शुक्ल जी को बताया कि भैय्या खबर क्यों नहीं लग रही है? उन्होंने कहा कि पता नहीं वे यानी प्रदीप कुमार जी कुछ बता नहीं रहे हैं, दिखवाता हूं.
2 जून को फिर मैंने फोन पर खबर के बारे में जानकारी ली. शुक्ल जी ने कहा कि संपादक मूलत: बिहार पृष्ठभूमि के हैं उन्हें लगता है कि यह खबर बेबुनियाद टेबल डिस्पेच हो सकती है. क्योंकि नक्सलियों के खिलाफ ग्रामीण कैसे विद्रोह कर सकते हैं? इसका जवाब उन्हें नहीं मिल रहा है.
वीरेंद्र जी ने कहा- अगर आज वे खबर नहीं देते हैं तो कल मैं इसे पुल आउट में ले लूंगा. 4 जून को दैनिक भास्कर में बीजापुर क्षेत्र में नक्सलियों के खिलाफ बैठकों के दौर को लेकर खबर पुल आउट में लीड प्रकाशित हुई.
4 जून 2004 को शाम को खबर तेजी से फैली कि अंबेली-करकेली में ऐसी ही एक बैठक में नक्सलियों ने हमला कर दिया है. भारी भगदड़ मची. कितने मारे गए, इसकी कोई खबर नहीं मिल पाई. देर शाम तक खबर की पुष्टि का दौर चलता रहा. आंशिक खबर प्रकाशित हुई सभी अखबारों में. इसके बाद 5 जून को पत्रकारों का दल कुटरू इलाके में पहुंच चुका था. वहां जो कुछ देखा भयावह करने वाली स्थिति थी.
अंदर गांवों के सैकड़ों लोग कुटरू में पहुंच गए थे. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में पीड़ितों का उपचार चल रहा था. किसी को यह पता नहीं था कि कितने मारे गए. कितने गायब हैं. सामान के साथ लोग कुटरू में पहुंच चुके थे. इसके बाद जो दौर चला, दैनिक भास्कर में लगातार 20 दिनों तक फ्रंट पेज लीड खबर प्रकाशित हुई. यह भी एक रिकार्ड था. नक्सलियों के खिलाफ बैठकों का दौर और हालात को लेकर की गई रिपोर्टिंग के लिए मुझे प्रतिदिन अपनी मोटर साइकिल से दो सौ से ढाई सौ किलोमीटर का सफर तय करके पहुंचना होता.