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नक्सलियों ने कहा-जघन्य अपराध

इसके बाद तत्काल दैनिक भास्कर से संदेश आया कि मैं कुछ समय के लिए जगदलपुर चला जाउं. मेरा पूरा परिवार दहशत में था. आशंका मन में घर करने लगी थी. हालिया नक्सली हिंसक घटनाओं के बाद हर कोई दहशत में था.

जगदलपुर में ब्यूरो
इसी बीच जगदलपुर में अखबारी राजनीति का नया दौर भी चल रहा था. राजेश दुबे जी को जगदलपुर भेजा गया था. ब्यूरो प्रमुख भंवर बोथरा जी के साथ प्रबंधन की पटरी नहीं बैठ रही थी. राजेश दुबे जगदलपुर पहुंच चुके थे. मुझे जगदलपुर बुला लिया गया.

एक दिन सुबह दुबे जी ने कहा कि मैं अब सुबह की बैठक लेना शुरू करुं. बैठक लेना शुरू किया तो बहस छिड़ गई कि क्या आंतरिक बदलाव हो गया है. इसे लेकर जब बात रायपुर कार्यालय में ब्यूरो के पत्रकारों की ओर से चिठ्ठी भेजी गई तो पहले राजेश दुबे को फोन किया गया. वे बाहर चले गए. बातें होती रही. मुझे पूरे घटनाक्रम की कोई जानकारी नहीं थी. रायपुर कार्यालय से जो कहा जा रहा था उसे पूरा करना मेरी जिम्मेदारी थी. आखिर मैं भी एक नियमित कर्मचारी के रूप में काम कर रहा था.

एक दिन दुबे जी बैठक के दौरान कक्ष के अंदर आए. इसके बाद बैठक के दौरान ही रायपुर कार्यालय से एक फैक्स आया जिसमें मेरे जगदलपुर ब्यूरो प्रभारी होने और समस्त जिम्मेदारियों को निभाने का आदेश था. सभी कर्मचारियों से हस्ताक्षर करवाने के बाद पत्र रायपुर फैक्स किया गया. तेजी से बदलते घटनाक्रम में मुझे जगदलपुर ब्यूरो नियुक्त कर दिया गया था. छह माह के बाद ही परिस्थितियां बदली और पुन: दैनिक भास्कर व्यवसायिक मजबूरियों के चलते ब्यूरो में परिवर्तन की तैयारी में जुट गया था. वजह थी कि मुझे विज्ञापन एजेंसी लेने का दबाव डाला गया. मैंने मना कर दिया. वजह साफ थी खबर के साथ विज्ञापन की जिम्मेदारी को निभाने में मैं स्वयं को असहज महसूस करने लगा था. क्योंकि तब तक मुझे लग चुका था कि खबर का मतलब सिर्फ खबर होता है.

दंतेवाड़ा वापसी और नई शुरूआत
जगदलपुर में बदलाव के बाद मैंने दंतेवाड़ा वापस लौटने की बात प्रबंधन के सामने रखी. दिवाकर जी ने मुझे दंतेवाड़ा की जगह धमतरी, राजनांदगांव, दर्ग आदि जगहों के लिए प्रस्ताव भी दिया. पर मैंने इंकार कर दिया था. क्योंकि तब तक बीबीसी के संवाददाता फैसल मोहम्मद अली ने बता दिया था कि गुड्सा उसेंडी ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस में पत्रकारों के सामने किसी भी पत्रकार को नुकसान नहीं पहुंचाने की बात स्वीकार की थी और कहा था कि प्रभात में जो कुछ छपा था, वह नक्सलियों के नियमित प्रेस समीक्षा का हिस्सा है.

इसके बाद दंतेवाड़ा पहुंचा पर नई सोच के साथ यह तय कर चुका था कि अब बस दो बरस दैनिक भास्कर में काम करना है. इसके बाद आगे अपनी राह तलाशनी है.

बीते करीब एक बरस में काफी कुछ सीखने समझने का मौका मिला. यह इसी का परिणाम था. इसके बाद मई 2008 में मैंने दैनिक भास्कर में अपना त्यागपत्र भेज दिया. जिसमें साफ लिखा कि मैं अब अपना अखबार निकालना चाहता हूं. इसलिए कार्यमुक्ति से एक माह पूर्व सूचित कर रहा हूं. रात को राजेश जोशी जी का फोन आया ‘पगला गए हो क्या?’

इसके बाद रायपुर से दिवाकर जी, सीपी शर्मा, राजेश जोशी जी आदि दंतेवाड़ा पहुंचे. यहां उन्होंने समझाने की कोशिश की. उसके बाद भद्राचलम साथ लेकर निकले. भद्राचलम होटल में रात करीब डेढ़ बजे तक इसी मुद्दे को लेकर बात चलती रही, मैं अडिग रहा. जोशी ने प्रस्ताव दिया कि साप्ताहिक निकाल लो. भास्कर में भी बने रहो. मैंने इंकार कर दिया. दो नाव की सवारी पसंद नहीं थी. दंतेश्वरी मंदिर के ठीक सामने रायपुर लौटने से पहले दिवाकर जी ने एक बार फिर पूछा कि क्या सोचा? मैंने कहा भैय्या मैं अपनी बात पर कायम हूं.

वे लौट गए यह बताकर कि जिस दिन अखबार का प्रकाशन शुरू हो जाएगा तब बताना. तब ही त्यागपत्र स्वीकार करुंगा. चार सितंबर 2008, गणेश चतुर्थी के दिन बस्तर इम्पेक्ट का प्रकाशन शुरू हुआ. छह सितंबर को दिवाकर जी ने पूछा कि तन्ख्वाह खाते में जमा हो गई क्या? मैंने एटीएम से चेक किया और बताया ‘हां’.

इसके बाद उन्होंने एकाउंट विभाग में लिखकर दे दिया कि सुरेश महापात्र का त्यागपत्र स्वीकार किया जाता है. ऐसे संपादक अब कहां मिलेंगे ! शायद नहीं. 2008 से बस्तर इम्पेक्ट के प्रकाशन पर फिर कभी होगी बात. अभी बस इतना ही.

ओह, ये ही होते हैं पत्रकार !

आवारा है, पत्रकार बना लो

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