Columnist

मेरा मुझको अर्पण

सुनील कुमार
इसी महीने 29 तारीख को वर्ल्ड गिविंग डे मनाया जाएगा. परोपकार या देने का, दूसरों के लिए कुछ करने का दिन. और इसके लिए एक अंतर्राष्ट्रीय गैरसरकारी संगठन ने अभी दो-चार दिन पहले एक सर्वे के नतीजे जारी किए हैं, उनके मुताबिक भारत के पड़ोस में बसा हुआ म्यांमार दुनिया में इस बात में सबसे आगे है. हालांकि यह देश बहुत संपन्न नहीं है, और यह आंतरिक अशांति से भी गुजर रहा है, लेकिन फिर भी लोगों में अजनबियों की मदद करना, दूसरों के लिए धन या समय देना, इन सभी पैमानों पर म्यांमार दुनिया में अव्वल है. अमरीका दूसरे नंबर पर है, और हिन्दुस्तान 140 देशों की इस लिस्ट में 91वें नंबर पर है.

अब इससे जुड़ी हुई बहुत सी छोटी-छोटी बातें याद पड़ती हैं कि किस तरह हिन्दुस्तान के लोग अपनी संस्कृति, और अपने जीवन मूल्यों को लेकर कुछ लोगों द्वारा खड़े किए गए एक पाखंड को हकीकत मानकर जीते हैं. वे अपने इतिहास की ऐसी गैरमौजूदगी कहानियों को सच मान बैठते हैं कि दुनिया में सबसे अधिक विकसित संस्कृति, विज्ञान, और सबसे महान नीति-सिद्धांत यहीं के थे. लेकिन जब कुछ देने की बात आती है, दूसरों के लिए कुछ करने की बात आती है तो यह देश कतार में सबसे आखिर में खड़ा दिखता है.

और ऐसा तब है जब महावीर और बुद्ध जैसे लोग इस देश में हुए जिन्होंने सांसारिकता को छोडऩे, और दूसरों के लिए करने की मिसालें कायम कीं. इसी देश में गांधी हुए जिन्होंने अपने तन पर एक लंगोटी सी आधी धोती के अलावा शायद चप्पल, चश्मा और एक घड़ी की विरासत भी समाज के लिए छोड़ी, और परिवार के लिए तो अपने नाम के बोझ ढोने के अलावा और कुछ नहीं छोड़ा. यह वही देश रहा जहां जवाहर लाल नेहरू ने अपनी निजी संपत्ति समाज के लिए दी, यह एक अलग बात है कि उन्हीं के कुनबे की आल-औलाद से लेकर कुनबे के दामाद तक ने सरकारी नियम-कायदों के लूटपाट से निजी जागीर खड़ी करने का काम किया, कहीं ट्रस्ट का बेजा इस्तेमाल किया और कहीं पार्टी के रूपयों का.

अब इस देश में अगर हम बड़े-बड़े लोगों को देखें, तो उनमें दो किस्म के लोग दिखते हैं. दूसरों को देने वाले लोग गिने-चुने हैं, और वे बस मिसाल तक सीमित रह जाते हैं. बाकी संपन्न तबका अपने लिए इतना ऊंचा मकान बनाने की सोच रखता है कि उसकी छत पर से हाथ बढ़ाकर चांद को छुआ जा सके. भारत में नारायण मूर्ति और अजीम प्रेमजी जैसे लोग हैं जिन्होंने अपने खुद के खड़े किए हुए पहली पीढ़ी के कारोबार से अपने कमाए हुए पैसों में से दसियों हजार करोड़ समाज के लिए देना तय किया है, देना शुरू कर दिया है, और यह एक अलग बात है कि इनको सार्वजनिक जीवन में विमान की इकॉनॉमी क्लास की सबसे सस्ती सीटों पर बैठे सफर करते देखा जा सकता है, हालांकि इनकी कम्पनियों के दूसरे अफसरों को महंगी सीटों पर भी सफर करने का हक हासिल है.

दूसरी तरफ अदानी और अंबानी जैसे लोग हैं जो कि सत्ता के चहेते रहकर लगातार लाखों-करोड़ रूपए कमा रहे हैं, और अपने देश की सरकार से सीधे और दूसरे देशों के साथ कारोबार में इस कमाई को जारी रख रहे हैं, लेकिन इनका दान किसी ने सुना नहीं है. फिर पुराने कारोबारियों में बिड़ला जैसे लोग हैं, जिनके घर में गांधीजी ठहरा करते थे, प्रवचन किया करते थे, और वहीं उन्होंने आखिरी सांस भी ली थी. एक वक्त बिड़ला को हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा औद्योगिक घराना माना जाता था, और हमें पहली नजर में बिड़ला का जो सामाजिक योगदान याद पड़ता है वह है कुछ शहरों में बिड़ला मंदिर बनवाने का. अब मंदिर के भीतर पता नहीं किस देवी-देवता की प्रतिमाएं हैं, लेकिन वह मंदिर कहलाता बिड़ला मंदिर है. इसलिए कुछ करोड़ रूपए खर्च करके इस कारोबारी ने अपने नाम को भगवान के नाम के साथ अमर कर लिया है, और ऐसा लगता है कि जिस तरह गांधी इस कुनबे के घर में ठहरते थे, उसी तरह देवी-देवता भी इन्हीं के घर में ठहरते हैं.

आज अमरीका में अपनी पीढ़ी से ही कारोबार को शुरू करके आसमान पर ले जाने वाले वारेन बफेट और बिल गेट्स जैसे लोग हैं जो कि खुद अमरीका में सबसे संपन्न लोगों में से हैं, और इन्होंने अपने सारे साम्राज्य के आधे या अधिक हिस्से को दान में देने की शपथ ली है, और देना शुरू भी कर दिया है. जिस उम्र में एक आम हिन्दुस्तानी अपनी पहली कार खरीदने की सोचते हैं, उस उम्र में फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग ने दसियों हजार या लाखों-करोड़ दान में देने की घोषणा कर दी है, ट्रस्ट बना दिया है, और दान का काम शुरू कर दिया है.

लेकिन दान का मौका अकेले दौलतमंद को नहीं मिलता, मामूली हैसियत के लोग भी समाजसेवा में अपना समय दे सकते हैं. हिन्दुस्तान में लोगों के बीच में इस बात को लेकर भी कोई जिम्मेदारी नहीं दिखती है, और गिने-चुने लोग किसी शहर में ऐसे दिखते हैं जो कि दूसरों के लिए खून जुटाने का काम करें, अपने इलाके की सफाई करें, बीमार जानवरों की मदद करें, फुटपाथ पर जी रहे इंसानों के लिए कुछ करें. इन सबमें पैसा नहीं लगता लेकिन एक दिलचस्पी लगती है, और हमदर्द होने की एक सोच लगती है. जाहिर है कि जब भारत 140 देशों में 91वें नंबर पर आ रहा है, तो यहां के लोग चाय ठेले या पान ठेले पर वक्त को बर्बाद कर लेते हैं, लेकिन उस वक्त का धरती के लिए, अपने लिए, दूसरों के लिए बेहतर इस्तेमाल नहीं करते.

और हिन्दुस्तान में दान का शायद पूरे का पूरा हिस्सा धर्म से जुड़ा हुआ है जिसमें लोग अपने धर्म के गुरुओं को, मंदिरों को ऐसा दान देते हैं जो कि उनके ही धर्म के दूसरे धर्मालु लोगों के काम आता है. जो पैसा सबसे जरूरतमंद के सबसे अधिक काम आए, वही दान हो सकता है. जब किसी का दिया हुआ दान अपने धर्म, अपनी जाति, अपनी आस्था, अपने ईश्वर, या अपने गुरू के लिए दिया हुआ होता है, तो वह उनकी निजी आस्था ही होती है, कोई दान नहीं होता.

हिन्दुस्तानी सड़कों के किनारे हर त्यौहार पर लोग भंडारा लगा देते हैं, और वहां पर बिना जाति या धर्म पूछे भी लोगों को प्रसाद खिलाते हैं, या ईश्वर के नाम पर कुछ और खिलाते-पिलाते हैं. लोगों को लग सकता है कि वे भूखे-गरीबों को खिला रहे हैं, लेकिन हकीकत यह रहती है कि राह चलते रूककर यहां पर खाने वाले लोग भूखे बिल्कुल भी नहीं होते, क्योंकि शहरों में भूख की जगह नहीं होती है. वे दिखने में गरीब जरूर होते हैं, और आस्था के नाम पर, या कि मुफ्त मिलने के नाम पर रूककर खा लेते हैं, या उससे उनके जिंदा रहने की बात नहीं जुड़ी होती. जो हकीकत में भूखे हैं, और जो बिना खाने के मरने की कगार पर हैं, वे शहरी भंडारों तक पहुंच भी नहीं पाते, और न इन भंडारों का कुछ प्रसाद वहां तक पहुंच पाता. लेकिन ऐसे भंडारों पर खर्च करने वाले लोगों को यह तसल्ली रहती है कि वे दान कर रहे हैं.

यह तसल्ली उसी तरह की है जिस तरह मुम्बई के एक राजनीतिक-डॉन राज ठाकरे ने पिछले दिनों वहां के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस की मौजूदगी में एक फिल्म से सैनिक कल्याण के लिए पांच करोड़ का दान दिलवाकर पाई है. इस फिल्म में पाकिस्तान के एक कलाकार को लिया गया था, और उसकी सामाजिक सजा के रूप में, फिल्म को बिना हिंसा सिनेमाघर पहुंचने देने के लिए मुम्बई में गुंडागर्दी के लिए कुख्यात इस नेता ने यह दान दिलवाया, और इसकी घोषणा से ही देश भर से इसकी निंदा भी होने लगी कि क्या देश के सैनिकों को गुंडों की बंदूक की नोंक पर उगाहे गए दान की जरूरत है?

दान और परोपकार का यह पूरा सिलसिला लोगों की धार्मिक सहूलियत से भी चौपट हो जाता है. जो लोग मंदिरों के बाहर बैठे भिखारियों को कुछ सिक्के देकर बाद में दिन भर अपने काम और कारोबार में भ्रष्टाचार, टैक्स चोरी, और कालाबाजारी के लिए मानसिक ताकत पा जाते हैं, वे भी अपने आपको दानी और परोपकारी मान लेते हैं. यह तो अपनी ही आत्मा को बोझमुक्त करने का सबसे सस्ता और आसान रास्ता रहता है, और हिन्दुस्तान में इसी का चलने सबसे अधिक है.

लेकिन आने वाले 29 नवंबर को वर्ल्ड गिविंग डे मनाया जाने वाला है, हर बरस की तरह. और इस दिन लोगों को सचमुच अपने भीतर झांककर देखना चाहिए कि उनकी कितना देने की ताकत है, दूसरों के लिए कितना करने की ताकत है, और वे अब तक क्या करते आए हैं? मिसाल के लिए अमरीका तक जाने की जरूरत नहीं है, भारत की सरहद से लगकर बसा हुआ म्यांमार एक मिसाल है. हम अभी पूरी लिस्ट नहीं देख पाए हैं, लेकिन भारत की दूसरी सरहद पर बसा हुआ श्रीलंका एक दूसरी बात के लिए मिसाल है कि वहां लोग इतना नेत्रदान करते हैं कि वहां से आंखें दूसरे देशों के नेत्रहीन लोगों के लिए भी भेजी जाती हैं.

हिन्दुस्तानी सोच और संस्कृति में कहने के लिए तो कह दिया जाता है कि तेरा तुझको अर्पण. लेकिन जब ऐसा करने की नौबत आती है तो लोग मेरा मुझको अर्पण पर ही अमल करते दिखते हैं. मुकेश अंबानी जैसे लोग अपने लिए दुनिया का सबसे ऊंचा रिहायशी मकान बनाते हैं, और उनके हिसाब से वह स्वर्ग से चार हाथ नीचे ही होगा. दूसरी तरफ नारायण मूर्ति और अजीम प्रेमजी जैसे लोग हैं जो कि सादगी और किफायत में जीकर अपना कमाया हुआ सब कुछ समाज को देने पर आमादा और उतारू हैं, और भारत संस्कृति को महान बनाने का काम कर रहे हैं.

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