राष्ट्र

विकास रैली में कितने लोग?

रैली में आखिर लाखों लोग आए कहां से? क्या सिर्फ 26 मेट्रो से? बसों और निजी वाहनों से तो जाम लग जाता, जबकि ग़ाजि़याबाद से रोहिणी और वहां से वापस रिंग रोड, आउटर रिंग रोड व भीतर की पंजाबी बाग वाली रोड को कुल 125 किलोमीटर हमने पूरा नापा. ग़ाजि़याबाद का जि़क्र इसलिए विशेष तौर पर किया जाना चाहिए क्योंकि राजनाथ सिंह यहां से सांसद हैं और पिछले दो दिनों से बड़े पैमाने पर यहां रैली की तैयारियां चल रही थीं.

इसे इस बात से समझा जा सकता है कि मोदी की जनसभा में जितने भी नेताओं के कटआउट आए थे, सब ग़ाजि़याबाद से आए थे जिन्हें एक ही कंपनी ”आज़ाद ऐड” ने बनाया था. सवेरे साढ़े आठ बजे तक ये कटआउट यहां ट्रकों में भरकर पहुंच चुके थे, हालांकि ग़ाजि़याबाद से श्रोता नहीं आए थे. वापस पहुंचने पर इंदिरापुरम, ग़ाजि़याबाद के स्थानीय भाजपा कार्यकर्ता टीवी पर मोदी का रिपीट भाषण सुनते मिले.

बहरहाल, मोदी जब बोल चुके थे तो भाजपा कार्यालय के एक प्रतिनिधि ने फोन पर बताया कि रैली में आने वालों की कुल संख्या 50,000 के आसपास थी. अगर हम इसे भी एकबारगी सही मान लें, तो याद होगा कि इतने ही लोगों की रैली पिछले साल फरवरी में दिल्ली में कुछ मजदूर संगठनों ने की थी और समूचा मीडिया यातायात व्यवस्था और जनजीवन अस्तव्यस्त हो जाने की त्राहि-त्राहि मचाए हुए था.

अजीब बात है कि बिना हेलमेट पहने और लाइसेंस के बतौर भारत का झंडा उठाए दर्जनों बाइकधारी नौजवानों के आज सड़क पर होने के बावजूद कुछ भी अस्तव्यस्त नहीं हुआ, लाखों लोग रोहिणी जैसी सुदूर जगह पर आ भी गए और चुपचाप चले भी गए.

यह नरेंद्रभाई मोदी की रैली में ही हो सकता है. उत्तराखंड की बाढ़ में फंसे गुजरातियों को जिस तरह उन्होंने एक झटके में वहां से निकाल लिया था, हो सकता है कि ऐसा ही कोई जादू चलाकर उन्हों ने दिल्ली की विकास रैली में लाखों लोगों को पैदा कर दिया हो. ऐसे चमत्कार आंखों से दिखते कहां हैं, बस हो जाते हैं.

ऐसे चमत्कारों का हालांकि खतरा बहुत होता है. उत्तराखंड वाले चमत्कार में ऐपको नाम की जनसंपर्क एजेंसी का भंडाफोड़ हो चुका है. दिल्ली में किस एजेंसी को भाजपा ने यह रैली आयोजित करने के लिए नियुक्त़ किया, यह नहीं पता. देर-सवेर पता चल ही जाएगा. मेरी चिंता हालांकि यह बिल्कुल नहीं है.

मैं इस बात से चिंतित हूं कि मोदी जैसा कद्दावर शख्स दिल्ली में बोल गया और दिल्ली वाले नहीं आए. वजह क्या है? कहीं तुग़लक जैसी कोई समस्या तो इसके पीछे नहीं छुपी है? मोदी दिल्लीवालों को न समझें न सही, क्या? विजय गोयल आदि आयोजकों से भी कोई चूक हो गई? ठीक है, कि टीवी चैनलों के हवा में लटकते पचास फुटा कैमरों ने टीवी देख रहे लोगों को काम भर का भरमाया होगा, जैसा कि उसने अन्ना हज़ारे की गिरफ्तारी के समय किया था.

अन्ना से याद आया- वह भी तो रोहिणी जेल का ही मामला था जहां दो-चार हज़ार लोगों को कैमरों ने एकाध लाख में बदल दिया था. इत्ते फाक कहें या बदकिस्माती, कि रोहिणी में ही इतिहास ने खुद को दुहराया है. मोदी चाहें तो किसी ज्योतिषी से रोहिणी पर शौक़ से शोध करवा सकते हैं. वैसे रोहिणी तो एक बहाना है, असल मामला दिल्ली के मिजाज़ का है जिसे भाजपा (प्रवृत्ति और विचार के स्तर पर इसे अन्ना आंदोलन भी पढ़ सकते हैं) समझ नहीं सकी है.

भाजपा और संघ के पैरोकार वरिष्ठ पत्रकार वेदप्रताप वैदिक ने आज तक एक ही बात ऐसी लिखी है जो याद रखने योग्य है. उन्हों ने कभी लिखा था कि इस देश का दक्षिणपंथ जनता की चेतना से बहुत पीछे की भाषा बोलता है और इस देश का वामपंथ जनता की चेतना से बहुत आगे की भाषा बोलता है. इसीलिए इस देश में दोनों नाकाम हैं. कहीं मोदी समेत भाजपा की दिक्कत यही तो नहीं? कहीं वे भी तो शायर मीर की तरह ”लगाने” और ”बनाने” का फर्क नहीं समझते?

मुझे वास्ताव में लगने लगा है कि किसी को जाकर नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी को यह बात गंभीरता से समझानी चाहिए कि 29 सितंबर, 2013 को दिल्लीं के जापानी पार्क में उनकी ”बनी” नहीं, ”लग” गई है. ग़ालिब तो शेर कह के निकल लिए, इस ”भारत मां के शेर” का संकट उनसे कहीं बड़ा है. दिल्लीवालों ने आज संडे को टीवी देखकर मोदी और भाजपा की आबरू का सरे दिल्ली में जनाज़ा ही निकाल दिया है.

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