अनन्त भी अतिरिक्त नहीं
कनक तिवारी
कवि और कविता का रिश्ता बेहद जटिल होता है. कविता कवि का माध्यम है या कवि कविता का-यही तिलिस्म है. कोई भी कविता शब्दों में वह नहीं कहती जो कवि मूलतः शब्दहीनता में कहना चाहता है. जब कभी कवि कविता को वह सब कहने का आयाम बनाता है, जो उसने अपने मन में लगभग कहा होगा, तब कविता कवि के जुमले को समझती हुई कविता कहलाती है.
कविता कभी भी बेचारगी का विषय नहीं होती. अपनी कविताओं को मुग्ध होकर देखने वाला कवि कई बार बेचारा भले होता हो, विद्रोही बने रहना कवि का शाश्वत लक्षण है. अपनी कविता से आंतरिक संवाद करना कवि का नैसर्गिक अधिकार भले हो, उसका अवसर मिलते रहना कविता की नीयत पर निर्भर करता है.
हर अच्छी कविता खुद की सम्भावना ही होती है क्योंकि वह सदैव कुछ कहना ही चाहती है. विनोद कुमार शुक्ल की अधिकतर रचनाएं केवल संख्याएं नहीं हैं. उन्हें पढ़ने की ललक बनी रहती है. वे अपनी भाषायी सम्भावनाओं में ही नहीं उलझी रहतीं. विनोद कुमार शुक्ल की कविता अपनी पहचान शब्द-प्रयोग के परे जाकर भी करती है.
किसी भी कविता के पहले मुक्ति को मुक्तियों में दोहराने और शब्दशः नहीं ध्वनिशः कहने में विश्वास रखता है. यदि यह कवि सच कह रहा हो (गो कि कविता सच के प्रक्षेपण के बिना है ही क्या?) तो विनोदकुमार शुक्ल कविता के शिल्प में एक पंक्ति और दूसरी पंक्ति, एक कदम और दूसरे कदम, एक क्षण और दूसरे क्षण के बीच ही कविता को अनहद कहते चलते हैं.
बेहद सीधे सादे शब्दों की बेचारगी में विरोधाभास, विपर्यय, दुहराव और श्लेष-यमक की छटाओं के बावजूद विनोद जी शब्दार्थ के कवि तो हैं नहीं. शब्द त्वचा, पोशाक या केंचुल की तरह उस अनकथ के आवरण बनते बिगड़ते रहते हैं जो कविता का दिगंबर निःसंग सच है. कुछ असंभावित और अब तक अपरिभाषित मानवीय स्थितियां हैं जो सहज संभावनाओं की तरह इस कवि के प्रयोगों में साकार हुई हैं.
विनोद जी आप्त या सूत्र वाक्यों के रचयिता कतई नहीं हैं लेकिन एक गहरा सूफियाना, उनकी कविता का उत्स है. ‘अब पहुंच ही गये हैं‘ में इस कवि के जेहन में काल ठहर गया है. वह क्षण क्षण में अपनी करवटें लेता रहता है. अत्यन्त निकट भविष्य और अभी अभी अतीत हुए वर्तमान में समय खुद बहती हुई महाकविता है.
शायद किसी अनवरत जलराशि के बहाव की तरह. शायद यह केवल विनोदकुमार शुक्ल ही कह सकते हैं कि उनमें ‘अतीत का विस्तृत कबाड़ है और स्मृति में नया बहुत नया‘ लेकिन ये ही पंक्तियां कविता की शक्ति या उपलब्धि नहीं है.
तिलिस्म का लोक तो उन मुहावरों में लीपा जाता है जो अब तक और रचना कर्मियों की पहुंच के बाहर हैं. कितनी मार्मिक पंक्तियां हैं-‘‘न पहुंचने के अंत तक लगता है/कि अब पहुंच ही गये हैं/कि जैसे पहुंचने के अंत तक‘/यादों का एक दरख्त भी होता है वटवृक्ष की तरह. उसमें से प्रतिस्मरणों की शाखाएं फूटती हैं-नई नई जड़ों की तरह.
यादें ही तो बोधिवृक्ष हैं. इस शाश्वत बिम्ब विधान का निर्वाह करते हुए सर्जक सर्जन की तरह विनोदकुमार शुक्ल ‘न पहुंचने के अंत तक‘ जैसा मुहावरा गढ़ कर कविता के हृदय को शब्दशः से ज्यादा ध्वनिशः आत्मसात करते हैं. ‘न पहुंचने का अंत‘ एक असंभव सम्भावना की कविता है. यह कविता वाचाल नहीं होने के कारण आत्मा का अबूझा बयान है, जिसका हर अवयव एक अनंत यात्रा की थकान से हमें मुक्त करता है.
बहुत कुछ है जो विनोद जी की कविताओं में सहसा समझ आने के लिए नहीं है. मसलन ‘सुबह है‘ में ‘‘दो दिन के दो सुबह उपराहा पाता हूं/इसी उम्र में दो उम्र जीवन पाता हूं.‘‘ या कि ‘कितना बहुत है‘ में, ‘तुम ही नहीं हो केवल बंधु/सब ही/परन्तु अतिरिक्त एक बंधु नहीं.‘
लेकिन ये अर्थमय पंक्तियां विनोदकुमार शुक्ल के कवि का उफान नहीं प्रतीति हैं. ‘जीने की आदत‘ वह कविता है जिसमें वे कह पाते हैं. ‘थोड़े थोड़े भविष्य से/ढेर सारे अतीत इकट्ठा करता हूं/बचा हुआ तब भी ढेर सारा भविष्य होता है‘/कविता का चमत्कार फिर भी यहां नहीं है. यह कवि आध्यात्मिकता और नैतिकता और कलात्मकता के रेशे रेशे से कविता का सहज मर्म रचता है. ‘पुराना जंग लगा ताला कहीं दिखता है!‘ मजबूत कविता का अक्स है.
विनोदकुमार शुक्ल आत्मा की कसक के कवि हैं. वे उतनी ही करुणा उकेर देते हैं. अपेक्षाकृत यह लंबी कविता बेहद नवोन्मेषी उक्तियों और मुहावरों में भी उलटबांसी करती हुई हमारे होने को ही खंगालती है. इस कविता में ‘पच्चीस वाट का टिमटिमाता तारा‘ मानवाधिकार में मिली यह सहूलियत है.
‘प्रश्न में प्रश्नवाचक चिन्ह एक चाबी की तरह लगा‘ ‘भाग्य का व्याकरण‘ और ‘अंदर एक अनंत बीतता है‘ जैसे वाक्यांशों की अजंता भित्तियां हैं. यह कविता काल कवलित होते काल का अंतिम इच्छा लेख है. एक बेहद बल्कि निहायत मामूली आदमी के लिए संवेदनाओं के संसार की सुरक्षा करना भी कवि का कर्तव्य है.
विनोदकुमार शुक्ल होने की यह भी एक अन्योक्ति है, अर्थ भी. जो लोग उनकी कविताओं में शब्दों और आवाज का आर्केस्ट्रा नहीं सुन पाते, शायद उन्हीं के लिए कवि कहता है कि उसे ‘ध्वनियों के कैमूफ्लाज़ में/सुनाई नहीं दिया.‘
विनोदकुमार शुक्ल गहरे आदिवास के बोधमय कवि होने के बावजूद इस पचड़े में नहीं हैं कि उनकी कुछ सामाजिक प्रतिबद्धताएं भी हैं. वे अपने सोच और संवेदना में शायद सबसे ज्यादा आदिवासी सरोकारों के कवि हैं. दलित लेखन का मुखौटा ओढ़े बिना यह कवि आदिम जीवन के उन बिम्बों को समुद्र में रेत में पड़ी सीपियों की तरह सागर के गहरे एकांत क्षणों में एकत्रित करता है.
‘जंगल के उजाड़ में‘ जैसी कविता के उपकरण निहायत छत्तीसगढ़ी शब्द (हिन्दी के भी) कान्दा, हण्डी और भात की दुनिया में कविता की दुनिया समो देते हैं. बहुत से प्रतिवेदनों और जांच दलों को अपने कथानक में उपसंहार के बतौर कविता का यह निकष जोड़ लेना चाहिए ‘कुछ ही दिनों से यह एक आदिवासी कथा है/कि बहुत बरस से जंगल में/बहुत से आदिवासी भूख से मर जाते हैं/‘
विनोदकुमार शुक्ल की निर्दोष कविताएं कई स्थलों पर चाहें तो संतवाणी का चोला पहन सकती हैं. लेकिन वे अपनी अभिव्यक्तियों में अपना आदिवास नहीं भूलतीं. वे तकनीकी अर्थ में सभ्य और अभिजात्य कुल की कविताएं नहीं हैं लेकिन अपनी मूल संरचना में निष्कपट सादगी, सहकार और सामूहिकता के बावजूद अकेलेपन के साथी भाव का हमारी सदी का एक बहुत महत्वपूर्ण कुलीन प्रामाणिक दस्तावेज है.
‘कोई नहीं है का अंतहीन एकांत है‘ का शीर्षक एक वाक्य में पूरी कविता है. फिर आगे प्याज के छिलकों की तरह कविता में कविता उतरती चली जाती है. लेकिन इस कुलीन कवि में उच्च मध्य वर्गीय शहरी अभिजात्य की ठसक नहीं है जो हिन्दी के कई श्रेष्ठ कवियों में ठुंसी पड़ी है.
इस कवि में वह गहरा और क्षुब्ध आक्रोश भी नहीं है, जैसा बहुत से निम्न मध्यम वर्गीय कवियों के आह्वान में है. विनोद कुमार शुक्ल को पढ़कर उनकी सामाजिक भौगोलिक पृष्ठभूमि की आसानी से पड़ताल की जा सकती है.
उनके कवि होने को लेकर तब आलोचकीय दृष्टि भौंचक होती है, जब कवि के मन पर पड़े तरह तरह के आघातों के प्रत्युत्तर में कविता की उनकी समझ तटस्थ निस्पृह और क्षमाशील मुद्रा में खड़ी उस समूची पृष्ठभूमि से कविता के अवयव ढ़ूंढती है. बहुत बड़े कवियों की पंक्ति में अपनी जगह सुरक्षित कर चुका यह कवि पाठकों पर अपने नुकीले अहसासों का ठीकरा नहीं फोड़ता है.