शहरी नक्सल : सत्ता का नया हथियार
अनिल चमड़िया
भीमाजी कोरेगांव में इस वर्ष 1 जनवरी को दलितों के खिलाफ हिंसा हुई थी. 31 दिसंबर 2017 को दलित बड़ी संख्या में वहां जमा हुए थे और हिंसा के लिए जिम्मेदार हिन्दुत्ववादी तत्वों के खिलाफ थाने में एफआईआर दर्ज कराई गई थी. लेकिन उस एफआईआर पर कार्रवाई के बजाय हिंसा में जो लोग शामिल थे, उनकी पुणे में 8 जनवरी को यह एफआईआर पुलिस ने दर्ज कर ली कि 1 जनवरी की हिंसा के लिए अल्गार परिषद के वे लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने भीमाजी कोरेगांव में महार रेजिमेंट की जीत के दो सौ वर्ष पूरे होने के मौके पर दलितों की विजय दिवस के लिए 31 दिसंबर 2017 को मीटिंग की थी.
इसी मुकदमे को पुणे पुलिस ने मार्च 2018 को आंतरिक सुरक्षा के खिलाफ षड्यंत्र के रूप में बदल दिया और उसमें शामिल होने के लिए मशहूर वकील सुरेन्द्र गडलिंग, अंग्रेजी की नागपुर में प्रोफेसर शोमा सेन, मशहूर मराठी कवि व संपादक सुधीर धावले, राजनीतिक बंदी रिहाई अभियान के दिल्ली में सक्रिय रोमा विल्सन और ‘प्रधानमंत्री फेलोशिप’ धारक महेश राउत को 6 मई को गिरफ्तार कर लिया.
वकील सुरेन्द्र गडलिंग के घर और दफ्तर में अप्रैल 2018 को पुलिस ने छापेमारी भी की थी. ये दलितों, आदिवासियों के लिए लड़ने वाले वकील के रूप में लोकप्रिय है. पुलिस ने उनके खिलाफ यूपीएपी की धाराएं भी लगी दी ताकि कम से कम छह माह तक जेल से बाहर आने के लिए जमानत नहीं मिल सके.
राजनीतिक निहितार्थ
देश में आतंकवाद के नाम पर मुस्लिम युवकों की धड़ाधड़ गिरफ्तारियां और आरोपों के झूठे होने के कई दर्जन उदाहरण सामने हैं. पुलिस की ‘थ्योरी’ में राजनीतिक निहितार्थ के संकेत मिलते हैं. गिरफ्तार पांच लोगों को शहरी इलाके में सक्रिय नक्सली कनेक्शन का नाम दिया गया. आतंकवाद के प्रचार ने जिस तरह मुस्लिमों के भीतर डर पैदा किया है उसी तर्ज पर शहरी नक्सल का निशाना उनके खिलाफ है जो तत्कालीन सत्ता और उसकी वैचारिक राजनीति के खिलाफ जी जान से लगे हुए हैं.
6 मई के बाद महाराष्ट्र की पुलिस ने प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में चर्चित पत्रकार विश्व दीपक तलाश में आई, क्योंकि प्रेस क्लब के नियमों के अनुसार उसने वहां प्रेस कांफ्रेंस के लिए आवेदन पर दस्तख्त किए थे.
शहरी नक्सल थ्योरी को प्रधानमंत्री की हत्या के षड्यंत्र से जोड़ा गया. पिछले कुछ वर्षों में बड़े नेताओं की हत्या की साजिश के आरोप में दर्जनों लोगों को गिरफ्तार किया गया लेकिन अदालतों ने आरोपों को झूठा माना.
शहरी नक्सल थ्योरी और प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश पुलिस को बेशुमार पॉवर से लैस कर देती है. इसी पॉवर का इस्तेमाल कर महाराष्ट्र की पुलिस ने देश के विभिन्न हिस्सों दिल्ली, गोवा, हैदराबाद, रांची, थाणे, मुंबई में 28 अगस्त को एक साथ दर्जन भर प्रोफेसर, वकील, पत्रकार, सांस्कृतिक कर्मी, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के घरों पर सुबह छह बजे छापेमारी की और उन्हें देशद्रोह के षड्यंत्र में शामिल होने की जानकारी दी.
पहले प्रचार फिर गिरफ्तारी की रणनीति
इन वर्षों में पुलिस और मीडिया का बड़ा हिस्सा एक-दूसरे के पूरक के रुप में सक्रिय हुआ है. मीडिया ने पहले शहरी नक्सल का जोर-शोर से प्रचार किया लेकिन बिना किसी नक्सल चेहरे के. केवल शब्द का प्रचार आम लोगों के बीच इसीलिए किया जाता है ताकि उस शब्द के रंग में जरूरत के अनुसार किसी भी चेहरे को रंग दिया जा सके. शहरी नक्सल के आरोप का प्रचार सबसे पहले गिरफ्तार कार्यकर्ताओं को जनतांत्रिक चेतना से लैस उन लोगों से काट देता है,जिनका दिमाग नक्सल आंदोलन को अपराधी होने के प्रचार से भरा जा चुका है.
28 अगस्त को जिस सुधा भारद्वाज को गिरफ्तार किया गया है, उनके बारे में पहले कुख्यात टीवी चैनल ने शहरी नक्सलवादी होने का प्रचार कार्यक्रम चलाया. ये छुपाते हुए कि वे देश के जाने-माने बुद्धिजीवी परिवार से जुड़ी है और आदिवासियों, मजदूरों के बीच अपना पूरा जीवन लगाया है. वे पेशे से वकील हैं और उन्होंने अपनी अमरीकी नागरिकता को भी उस दौर में त्यागने का फैसला किया, जिस समय हजारों की तादाद में ‘हमारे देशभक्त’ अमरीकी नागरिकता के लिए मुंह बाए खड़े दिखाई देते हैं.
इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के संपादक रहे गौतम नवलखा मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाले देश के एक मशहूर कार्यकर्ता के रूप में जाने जाते हैं. आतंकवाद निरोधक कानून के खिलाफ संघर्ष में लगे रहे हैं. कवि वरवरा राव सेवानिवृत प्रोफेसर हैं.
इनके अलावा डॉ. भीमराव अम्बेडकर के परिवार से जुड़े डॉ. आनंद तेलतुम्बड़े पूरी दुनिया में अपनी बौद्धिकता के लिए जाने जाते हैं. अरुण फरेरा वकील हैं और दलितों के आंदोलनों से जुड़े रहे हैं. उन्हें पहले भी माओवादी लिंक के आरोप में गिरफ्तार किया गया लेकिन अदालत ने छोड़ दिया और वर्नोन गोंजाल्विस मुंबई की एक मशहूर कॉलेज में प्रोफेसर थे.
शहरी नक्सल के प्रचार का उद्देश्य
शहरी नक्सल का प्रचार शहर में रहने वाले उन शिक्षकों, वकीलों, पत्रकारों, सांस्कृतिक कर्मियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और छात्रों की राजनीतिक स्वतंत्रता और चेतना को बंधक बनाने के लिए हैं, जो कि स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों और परंपरा को जारी रखने में यकीन करते हैं. वकील इसीलिए कि वे समर्पित भाव से उन मुकदमों को लड़ने की ताकत दिखाते हैं जिन्हें पुलिस झूठे आरोपों में जेल में डाल देती है.
आतंकवाद के झूठे मामलों को भी अदालत में चुनौती देने वाले वकीलों की हत्या और हमले की कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं. शिक्षक कैम्पस में छात्र-छात्राओं को समाज को देखने का नजरिया देता है और छात्रों को इसीलिए ताकि नई पीढ़ी में सत्ता की निरंकुशता के विरोध में संगठित होने के भाव को कुचला जा सकें जो कि वर्तमान दौर में सबसे ज्यादा सतह पर दिखाई देने लगा है.
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या और हमले की दर्जनों घटनाएं सामने आ चुकी हैं. कल्पना करें कि यदि मानवाधिकारवादी शहरों में नहीं होते तो क्या स्वतंत्रता को अंजाम दिया जा सकता था? हर तरह के गाने और मनोरंजन करने वाले सत्ता को नहीं चुभते हैं बल्कि वे चुभते हैं जो समाज के बहुजनों के हालात को बदलने की जरूरत पर बल देते हैं. दरअसल ये पात्र सामाजिक लिंक हैं जिन्हें तोड़ना सत्ता को सबसे ज्यादा जरूरी लगता है, क्योंकि मौजूदा सत्ता के लिए यह लिंक ही सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई हैं.
पहले शहरी आतंकवादी का जब प्रचार हुआ था
रामनारायण कुमार को इंडिया टुडे ने भारत का पहला शहरी आतंकवादी बताया था. दक्षिण भारतीय ब्राह्मण परिवार के राम महंत पिता के साथ अयोध्या के मठ में रहते थे लेकिन 1975 में उन्होंने मठ छोड़ दिया और 19 वर्ष की आयु में आपातकाल के विरोध के जेल में बंद कर दिए गए.
जब झागराखंड के कोयला खदान की हालात नहीं देखी गई तो वह सीधे मजदूरों को लेकर दिल्ली स्थित संसद सदस्य दलबीर सिंह के घर आ गए और 13 अप्रैल 1982 को उन्हें घंटों अपने कब्जे में रखा. जितने तरह के अखबार, उतने तरह के आरोप राम पर लगे.