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सपा की रणनीति में अति पिछड़ों

लखनऊ | एजेंसी: भाजपा से मुकाबले के लिये उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने अभी से रणनीति पर काम करना शुरु कर दिया है. सपा की नजर 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों पर है. उत्तर प्रदेश की सियासत हमेशा से ही जातीय समीकरणों के ईद-गिर्द घूमती रही है और नेताओं का कद भी उनकी जाति में हैसियत के हिसाब से तय होता रहा है. चाहे मुलायम सिंह यादव हों या फिर मायावती या दूसरे दलों के बड़े नेता, ये सभी अपनी जाति के बड़े नेता हैं और इन सबकी नजर जातीय वोटबैंक पर रहती है.

मौजूदा सियासी माहौल पर नजर डालें तो ‘सर्वजन’ की बात करने वाली मायावती बीते दिनों बहुजन समाज पार्टी सदस्यों के राज्यसभा नामांकन के दौरान एक बार फिर दलित सियासत की ओर लौटने का संदेश दे चुकी हैं.

मायावती उत्तर प्रदेश में वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव को लेकर भी अपना वोट बैंक मजबूत कर रही हैं. दूसरी ओर, समाजवादी पार्टी की नजर अतिपिछड़ों पर है.

राजनीतिक गलियारे में चर्चा है कि सपा प्रमुख मुलायम 2017 के विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए प्रभावी व जनाधार वाले नेताओं को समायोजित करने की कवायद में जुट गए हैं और उनकी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, सांसद प्रो. राम गोपाल यादव व प्रदेश सरकार में मंत्री शिवपाल यादव के साथ इस मुद्दे पर दो चरणों में वार्ता भी हो चुकी है.

कयास लगाए जा रहे हैं कि सपा अतिपिछड़ों को विशेष जिम्मेदारी देकर उनकी नाराजगी को दूर करने और उन्हें अपने पाले में लाने की कोशिश करेगी.

विधानसभा चुनाव-2012 के नतीजों पर नजर डालें तो सपा को 29.13 प्रतिशत, बसपा को 25.91 प्रतिशत, भाजपा को लगभग 15 प्रतिशत मत प्राप्त हुआ था. वहीं 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा को 29.5, सपा को 25.5, भाजपा को लगभग 17 प्रतिशत तथा लोकसभा चुनाव-2014 में भाजपा को 42.3, सपा को 22.6 व बसपा को 19.5 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे.

वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव को लेकर सियासी दल अभी से रणनीति बनाने में जुट गए हैं और अतिपिछड़ों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है. बसपा, भाजपा, सपा तीनों दल अपने-अपने स्तर से मत प्रतिशत बढ़ाने की कवायद में जुटे हैं. कौन दल 2017 में उत्तर प्रदेश का सिकंदर बनेगा, उसमें अत्यंत पिछड़े वर्ग की भूमिका महत्वपूर्ण रहेगी.

सपा के रणनीतिकारों का मानना है कि अगर पार्टी को सत्ता में फिर से वापसी करनी है तो उसके लिए अपने वोट बैंक को 10-15 प्रतिशत बढ़ाने की कवायद में जुटना होगा और इतने बड़े वोट बैंक का जुगाड़ अत्यंत पिछड़े वर्ग को जोड़कर ही प्राप्त किया जा सकता है.

अहम बात यह भी है कि सपा के पास तेज तर्रार व प्रभावी अतिपिछड़े नेताओं का अभाव है, जबकि भाजपा की बात करें तो पार्टी ने 15 अत्यंत पिछड़े को टिकट देकर संसद में पहुंचाया है और उसके पास सामाजिक न्याय मोर्चा व मछुआरा प्रकोष्ठ जैसे संगठन हैं. साथ ही सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट जैसा ज्वलंत मुद्दा भी है.

राजनीतिक विश्लेषक गुणाकर चौबे मानते हैं, “भाजपा की सदस्यता अभियान में अतिपिछड़ों, दलितों को जोड़ने के लिए विशेष बल दिया जा रहा है. इस लिहाज से समाजवादी पार्टी अत्यंत पिछड़ों के प्रति रणनीति बनाने में फिलहाल भाजपा से पीछे है.”

उत्तर प्रदेश सरकार के कैबिनेट में लोधी, कुशवाहा, मौर्य, शाक्य, निषाद, पाल, बघेल समाज का प्रतिनिधित्व शून्य है. अब देखना है पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर अतिपिछड़ों को अपने पाले में करने की किस तरह की रणनीति बनाती है.

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