छत्तीसगढ़ के तीन चेहरे
दिवाकर मुक्तिबोध
बाइस वर्ष के छत्तीसगढ़ में विधानसभा के नये चुनाव अगले साल दिसंबर में होंगे. राज्य का वह पांचवा चुनाव होगा. वर्ष 2000 के नवंबर में मध्यप्रदेश से पृथक होने के बाद बहुमत के आधार पर पहली सरकार कांग्रेस की बनी. अजीत जोगी नामित मुख्यमंत्री बने. जोगी सरकार का करीब तीन वर्ष का कार्यकाल पूरा होने के बाद नये छत्तीसगढ़ की पहली विधानसभा के लिए चुनाव 2003 दिसंबर में हुए. फिर 2008 , 2013 व 2018 के चुनाव के बाद अब पांचवें की प्रतीक्षा है.
इस बीच यानी दो दशक में छत्तीसगढ़ ने मुख्यमंत्री के रूप में तीन चेहरे देखे – अजीत जोगी, रमन सिंह और भूपेश बघेल. अजीत जोगी तीन साल तक मुख्यमंत्री रहे, भाजपा के रमन सिंह लगातार पन्द्रह वर्ष तक सत्ता प्रमुख रहे और भूपेश बघेल पांच साल का अपना कार्यकाल आगामी वर्ष यानी 2023 के अंत तक पूरा कर लेंगे.
इन तीनों सत्ताधीशों के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ ने लगभग प्रत्येक क्षेत्रों में बहुत तेजी से और बेहतर प्रगति की. जिन लोगों ने राज्य बनने के पहले छत्तीसगढ़ को देखा था अथवा वे कभी यहां रह चुके थे,आज जब इस प्रदेश के बारे में सुनते हैं या देखते हैं तो राजधानी रायपुर सहित अन्य शहरों, कस्बों या गांवों को देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं. यह प्रमाण है इस बात का कि वाकई इन बाइस वर्षों में छत्तीसगढ़ बहुत बदल गया. उसका अच्छा विकास हुआ तथा वह बेहतर से बेहतर की ओर बढ रहा है.
तो, जाहिर है तमाम सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक विसंगतियों के बावजूद राज्य की प्रगति का श्रेय सरकार के मुखिया को, जनप्रतिनिधियों को तथा नौकरशाही को जाता है. सरकार यानी प्रथम मुख्यमंत्री स्वर्गीय अजीत जोगी, डॉक्टर रमन सिंह व वर्तमान मुख्यमंत्री भूपेश बघेल. इस संदर्भ में यह भी महत्वपूर्ण है कि बीते दो दशक में जब अनेक प्रदेश राजनीतिक अस्थिरता व उठापटक के दौर से गुजर रहे थे, तब छत्तीसगढ़ में एकाध घटना को छोड़कर शांति कायम रही. कोई राजनीतिक संकट पैदा नहीं हुआ.
राजनीतिक अस्थिरता विकास की प्रक्रिया अवरुद्ध करती है. इस मायने में भी छत्तीसगढ़ भाग्यशाली रहा जबकि राज करने वाले तीनों मुख्यमंत्रियों की राजनीतिक तासीर भिन्न भिन्न है. तीनों की कार्यशैली अलग, मिजाज़ अलग तथा दृष्टि भी अलग.
अजीत जोगी के तीन साल
अजीत जोगी अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन नेतृत्व की दृष्टि से देखें तो अन्य की तुलना में उनका नेतृत्व, उनकी प्रशासनिक क्षमता, विकास को सही परिप्रेक्ष्य में देखने का दृष्टिकोण तथा बौद्धिकता बेमिसाल रही है. जबकि एक नवंबर 2000 को राज्य के गठन के बाद उनके सामने चुनौतियां बड़ी थीं. उन्हें विकास का ऐसा मॉडल गढ़ना था जिसके आधार पर छत्तीसगढ़ मजबूती के साथ खड़ा हो सके.
यह बड़ी जिम्मेदारी का, सोच विचार का काम था क्योंकि मध्यप्रदेश से रहते हुए छत्तीसगढ़ अत्यंत पिछड़ा व गरीब अंचल माना जाता था. इससे उबरने के लिए जिस दृष्टि सम्पन्नता की जरूरत थी वह अजीत जोगी में थी. अपने केवल तीन वर्ष के कार्यकाल में उन्होंने जो आधार तैयार किया, विकास की जो बुनियाद रखी ,उसी का नतीजा था कि दो दशक के भीतर ही छत्तीसगढ़ कहीं से कहीं पहुंच गया, अनेक राज्यों से आगे आ गया, और विकास की नई पहचान बना सका. जाहिर है अजीत जोगी ने जो नींव रखी उसी पर करीने से ईंटें जमाने और इमारत को बुलंद करने का काम डॉक्टर रमन सिंह ने अपने कार्यकाल के पंद्रह वर्षों में किया और अब भूपेश बघेल अपने नये विज़न के साथ जो लोकरंजक व प्रभावशाली है, कर रहे हैं.
कह सकते हैं कि यदि अजीत जोगी को अधिक समय मिलता तो छत्तीसगढ़ में सर्वविकास की गति अधिक तीव्र होती. शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, ऊर्जा, सिंचाई, उद्योग, रोजगार, ग्राम व ग्रामीण विकास आदि क्षेत्रों में उनकी योजनाएं छत्तीसगढ़ को पिछडेपन से हटाने तथा हर तरह से समृद्ध बनाने की योजनाएं थीं. चूंकि वे अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के दीर्घ अनुभव के बाद राजनीति में आए थे लिहाजा अफसरों से काम लेना और उन्हें नियंत्रण में रखना उन्हें अच्छी तरह आता था. इसलिए उनके कार्यकाल में न तो नौकरशाही की चली न संगठन के नेताओं की. वे शासन को अपनी मर्जी चलाते रहे.
यह अलग बात है कि उनमें जो कमियां थीं, वे अंततः उनके अच्छे पर भारी पड़ी. मोटे तौर पर कहें तो जाति विशेष के प्रति कटुता, राजनीतिक दुष्टता, खुद को पार्टी से बड़ा समझने की मानसिकता, अहंकार, प्रतिशोध व परिवारवाद में फंसे रहने की वजह से न केवल उनकी सत्ता का पतन हुआ बल्कि बहुत कुछ उनकी वजह से कांग्रेस भी डेढ़ दशक तक सरकार से बाहर रही.
अब स्थिति यह है कि जो नई पार्टी उन्होंने गठित की थी, वह उनके निधन के साथ ही रसातल में पहुंच चुकी है. फिर भी ख्याति-कुख्याति के बावजूद छत्तीसगढ़ में उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता. स्वयं को सपनों का सौदागर कहने वाले अजीत जोगी को एक ऐसे मुख्यमंत्री के रूप में याद किया जाएगा, जो अपनी तानाशाही प्रवृत्तियों के लिए जरूर जाना जाता रहा पर जिसने राज्य व राज्य के गरीब-गुरबों, हरिजनों व आदिवासियों के उत्थान को अपनी प्राथमिकता सूची में सर्वोपरि रखा तथा विकास से कोई समझौता नहीं किया. और इसी वजह से नये राज्य की नींव मजबूत पड़ी.
10 साल विकास के और 5 साल…
तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो अगले मुख्यमंत्री रमन सिंह को तैयारशुदा आधार मिला जिसे आगे बढ़ाने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई. उनकी सरकार के दस वर्ष विकास के थे तो शेष पांच वर्ष अकूत भ्रष्टाचार के माने जाते हैं.
दरअसल रमन सिंह ने अपनी छवि एक सीधे- साधे व सरल सहज इंसान की बनाई और वे वैसे हैं भी.
वे शासन के प्रमुख जरूर थे पर उन्होंने उसकी कमान नौकरशाही के हाथ में दे रखी थी और जैसा कि आमतौर पर देखने में आता है मुख्यमंत्री के आसपास चंद ऐसे अधिकारियों को घेरा बन गया जो अपने मर्जी से कुछ भी कर सकता था. मुख्यमंत्री की इच्छानुसार से भी और अपने हिसाब से भी.
इस वजह से सत्ता व संगठन के बीच धीरे धीरे दूरी इस कदर बढ़ गई कि सरकार का तीसरा कार्यकाल खत्म होते-होते खुद भाजपाई ही चाहने लगे थे कि सरकार को सबक मिलना चाहिए. और तो और प्रत्येक चुनाव में परदे के पीछे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी 2018 के चुनाव में स्वयं को दूर रखा.
रमन सिंह की यह विफलता रही कि पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं के असंतोष को वे अंत तक कमतर नहीं कर सके. लिहाज़ा सरकार के प्रति लोगों की नाराजगी चुनाव में भीषण पराजय के रूप में व्यक्त हुई. हालांकि कांग्रेस के शासन में अजीत जोगी भी इससे अछूते नहीं थे लेकिन उन्होंने सत्ता व संगठन पर अपनी पकड़ मजबूत रखी थी. कोई हूं का चूं नहीं कर सकता था. कोई उन्हें चला नहीं सकता था . न नेता न अफसर. इसलिए उन्होंने जो चाहा वहीं किया. जबकि रमन सिंह एक तरह से कठपुतली बने हुए थे.
लेकिन इसमें शक नहीं कि डॉक्टर रमन सिंह ने जिस राजनीतिक चतुराई से पंद्रह वर्षों तक शासन किया वह अद्वितीय है. जनता से मेलजोल और उनका दिल जीतने के मामले में उन्होंने अजीत जोगी को पीछे छोड़ दिया. उनके प्रारंभिक दस साल लोकप्रियता अर्जित करने के वर्ष थे. इन दस वर्षों में ही नयी-पुरानी योजनाओं पर काम करते हुए उनकी सरकार ने केवल राजधानी रायपुर का ही नहीं, छत्तीसगढ़ के अनेक शहरों ,कस्बों का नक्शा बदल दिया.
विभिन्न स्त्रोत से सरकार के पास खूब पैसा आया. इससे विकास तो हुआ पर भ्रष्टाचार भी खूब पनपा पर उसकी आंच रमन सिंह तक नहीं आई हालांकि सरकार बदनाम होते चली गई और अंततः समय आने पर चल बसी. अंतिम पांच वर्षों में रमन सिंह के बारे में आम चर्चा रही कि उन्होंने कंबल ओढ़कर घी पिया. अपना दामन साफ रखा पर सरकार की बदनामी की परवाह नहीं की.
यद्यपि रमन सरकार अपने कर्मों से धराशायी हुई किंतु मुख्यमंत्री को इसका श्रेय जाता है कि उनके नेतृत्व में राज्य ने प्रगति के नये आयाम स्थापित किए. जोगी ने जो नींव रखी थी, उस पर इमारत उन्होंने बुलंद की.
भूपेश बघेल की चुनौतियां
अब छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल हैं. 17 दिसम्बर 2018 को उनके नेतृत्व में पन्द्रह वर्षों बाद राज्य में दूसरी बार कांग्रेस की सरकार बनी. इसी दिसंबर की 17 तारीख को बघेल सरकार के चार वर्ष पूरे हो जाएंगे.
इन चार सालों में भूपेश बघेल एवं कांग्रेस ने अपनी स्थिति इतनी मजबूत कर ली है कि यह आम चर्चा है कि अगले वर्ष होने वाले चुनाव में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होगी यानी पार्टी को एक कार्यकाल और मिल जाएगा. यह अनुमान भाजपा की मौजूदा हालत के आधार पर है. उसकी स्थिति लगभग वैसी ही है जैसे कि अजीत जोगी ने अपने समय में बना रखी थी. कांग्रेस को इसका बड़ा फायदा है. हालांकि चुनाव के आते-आते कोई अप्रत्याशित घटनाएं हो जाए तो बात अलग है. पर इसकी संभावना नहीं के बारे में है.
बहरहाल राजनीतिक दृष्टि से देखें तो भूपेश बघेल अपने दोनों पूर्ववर्तियों की तुलना में कतिपय मामलों में अधिक सयाने,अधिक तेज,अधिक दृष्टिसंपन्न नज़र आते हैं.
उन्होंने प्रदेश की सामाजिक व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को अपनी राजनीति का बड़ा आधार बना रखा है. यह एक ऐसा अस्त्र है जो उन्हें शहरियों से कहीं अधिक ग्रामीणों के साथ आत्मीय बनाता है. इस मामले में वे दोनों पूर्ववर्तियों से आगे हैं. और जाहिर है आम तौर पर ग्रामीण वोट ही चुनाव में हार-जीत का फैसला करते हैं.
अपनी सत्ता के इन वर्षों में मुख्यमंत्री ने इसी बात का विशेष ध्यान रखा कि कृषि क्षेत्र सम्पन्न हो तथा किसान व खेतीहर मजदूर खुश रहे. लिहाज़ा उनकी अधिकतर योजनाएं ग्राम व ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने पर केद्रित हैं. नरवा गुरवा, घुरवा, बाड़ी, गौठान,गोबर, गोमूत्र कुछ ऐसी योजनाएं हैं जो अभिनव हैं और जिनकी देश में चर्चा है. इनके अलावा भी अनेक कार्यक्रम ग्राम विकास व शहरी योजनाओं पर हैं जिसमें शिक्षा व स्वास्थ्य प्रमुख हैं. इसके साथ ही छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक परिदृश्य को उन्होंने जिस तरह जीवंत किया है, उसने उन्हें गांव-,देहातों में पिछले दोनों मुख्यमंत्रियों की तुलना में कहीं ज्यादा लोकप्रिय बनाया हैं. यह उनकी राजनीति की एक बड़ी ताकत है, वोटरों को लुभाने की ताकत.
तबादलों की सरकार
प्रशासनिक नजरिए से देखें तो बघेल अजीत जोगी के अधिक निकट नज़र आते हैं. उनका शासन रमन सिंह की तरह लुंजपुंज नहीं हैं. वे फटाफट निर्णय करते हैं. सरकार बनाने के बाद उनके सामने बड़ी चुनौती थी, भगवा रंग से रंगे हुए अफसरों की पहचान करना, उन्हें आइना दिखाना, उन्हें सरकार के मनोभावों को समझाना व बेहतर से बेहतर के लिए प्रेरित करना. लेकिन इस चक्कर में बीते चार सालों में चिल्हर व थोक में इस कदर तबादले किए गए कि यह सरकार एक तरह से तबादलों की सरकार बन गई.
प्रशासनिक अधिकारियों को एक स्थान पर इतना भी वक्त नहीं दिया गया कि वे स्वयं को साबित कर सके. इससे न केवल योजनाओं की गति धीमी पड़ी वरन नौकरशाही का सरकार के प्रति विश्वास भी मजबूत नहीं हो सका. भ्रष्टाचार की बात तो छोड़ ही दें, अब तो वह तबादला उद्योग की अनिवार्यता है. इस उद्योग के अलावा भी सरकारी स्तर पर जमकर भ्रष्टाचार की भी खूब चर्चा है.
हालांकि भूपेश बघेल पर व्यक्तिगत रूप से कोई आरोप नहीं है पर इस दोष से मुक्त नहीं हो सकते कि वे इसे रोकने की कोशिश नहीं कर रहे हैं. इसके पीछे राजनीतिक कारण हो सकते हैं पर जनता को इससे मतलब नहीं है. भ्रष्ट राजनीति व अफसरशाही का तमगा सरकार पर चस्पा हो गया है.
उनकी प्रशासनिक कमजोरी यह भी है कि उन्होंने भी रमन सिंह की तरह स्वयं को कुछ अफसरों को घेरे में बंद रखा और उन्हें इतनी ताकत दे दी कि वे अपनी मनमानी करते रहे है. प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी के सरकार के उच्च अफसरों के यहां दनादन छापे एवं गिरफ्तारी यद्यपि राजनीति प्रेरित भी हैं लेकिन इनके पीछे कुछ तो आधार है, जैसा कि प्रदेश के वरिष्ठ मंत्री टी एस एस सिंहदेव ने भी कहा है.
2.5-2.5 साल का फार्मूला और..
राजनीतिक दृष्टि से देखें तो भूपेश बघेल ने कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति में अपनी अच्छी पकड़ बना रखी है पर राज्य के मामले में शतप्रतिशत ऐसा नहीं कहा जा सकता. यद्यपि संगठन में असंतोष का ज्वालामुखी कभी नहीं फूटा पर वह भीतर ही भीतर खदबदा जरूर रहा. खासकर पदों की उम्मीद लगाए नेता व कार्यकर्ता इंतजार करते रहे कि उनके दिन फिरने ही वाले हैं लेकिन वे तब फिरे जब कुछ बेहतर करने के लिए वक्त ही नहीं बचा. यानी प्रदेश के नगर निकायों, निगमों, आयोगों व इतर संस्थानों में नियुक्तियों को टाला गया और वे तब की गईं जब विधानसभा चुनाव के लिए महज 16-17 महीने शेष रहे.
वरिष्ठ मंत्री टी एस सिंहदेव के मामले में भी मुख्यमंत्री ने राजनीतिक उदारता नहीं दिखाई. उन्हें अपना प्रतिद्वंद्वी माना. वह इसलिए क्योंकि टी एस सिंहदेव कथित तौर पर ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे. उन्हें किनारे लगाकर भूपेश बघेल ने कूटनीतिक सफलता जरूर हासिल की लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि टीएस. का असंतोष प्रदेश में अगले वर्ष होने वाले विधान सभा चुनाव में कांग्रेस की संभावना को प्रभावित कर सकता है.
इतिहास इस बात का साक्षी है कि कांग्रेस ही कांग्रेस को हराती रही हैं. वर्ष 2003 में अजीत जोगी के कार्यकाल में दिग्गज नेता विद्दाचरण शुक्ल और भाजपा शासन के दौरान 2008 व 2013 के चुनाव में जोगी की नकारात्मक भूमिका की वजह से कांग्रेस को सत्ता से बाहर रहना पड़ा था. लिहाजा टीएस. कुछ तो गुल खिलाएंगे, इसकी आशंका तो बनी हुई है.
बहरहाल छत्तीसगढ़ की राजनीति के ये तीन प्रमुख चेहरे, तीनों की कार्यशैली व प्रवृत्तियां भी अलग लेकिन एक साम्य यह कि तीनों ने प्रदेश व प्रदेश की जनता के साथ छल नहीं किया. इसीलिए आज का छत्तीसगढ़ 22 साल पहले के मध्यप्रदेशीय छत्तीसगढ़ से काफी भिन्न हैं. खुशहाल है तथा अन्य बडे़ राज्यों से विकास की दौड़ में बेहतर प्रतिस्पर्धा कर रहा है.