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धर्म और राजनीति अलग- सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली | समाचार डेस्क: क्यों न धर्म के आधार पर वोट मांगने को अपराध माना जाये. सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच के अध्यक्ष चीफ जस्टिस ठाकुर ने एक मामले की सुनवाई करते हुये यह टिप्पणी की है. बेंच ने कहा है कि 20 सालों से मामला सुप्रीम कोर्ट में है तथा संसद ने कोई कानून नहीं बनाया है. क्या सुप्रीम कोर्ट का इंतजार किया जा रहा था. सुप्रीम कोर्ट ने इस सुनवाई में केन्द्र सरकार को पार्टी बनाने से भी इंकार कर दिया है तथा कहा है कि यह एक चुनाव याचिका है जिससे चुनाव आयोग जुड़ा हुआ है केन्द्र सरकार नहीं. इस मामले की अगली सुनवाई 25 अक्टूबर को होगी.

सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी याचिकाकर्ता सुंदरलाल पटवा के वकील की दलील पर की, जब कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट को 1995 के जजमेंट को बने रहने देना चाहिये. चीफ जस्टिस ने कहा कि पटवा का केस ही देखें तो वे जैन समुदाय से हैं और कोई उनके लिए कहे कि वे जैन होने के बावजूद राम मंदिर बनाने में मदद करेंगे तो यह प्रत्याशी नहीं बल्कि धर्म के आधार पर वोट मांगना होगा.

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने 20 साल पहले कहा था कि हिंदुत्व धर्म नहीं जीवन शैली है. लेकिन इस मामले में अब दोबारा सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने मंगलवार से सुनवाई शुरू की है. हिंदुत्व भारतीय जीवन शैली का हिस्सा है या फिर धर्म है, इस मामले की सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की बेंच ने समीक्षा शुरू की है. मंगलवार को चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर की अगुवाई वाली सात जजों की बेंच ने सुनवाई शुरू की.

मंगलवार को सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस ने कई बड़े सवाल उठाये. उन्होंने कहा कि क्या कोई एक समुदाय का व्यक्ति अपने समुदाय के लोगों से अपने धर्म के आधार पर वोट मांग सकता है? क्या यह भ्रष्ट आचरण की श्रेणी में आता है? क्या एक समुदाय का व्यक्ति दूसरे समुदाय के प्रत्याशी के लिए अपने समुदाय के लोगों से वोट मांग सकता है? क्या किसी धर्म गुरू के किसी दूसरे के लिए धर्म के नाम पर वोट मांगना भ्रष्ट आचरण होगा और प्रत्याशी का चुनाव रद्द किया जाये?

दरअसल, भारत में चुनाव के दौरान धर्म, जाति समुदाय इत्यादि के आधार पर वोट मांगने या फिर धर्म गुरुओं द्वारा चुनाव में किसी को समर्थन देकर धर्म के नाम पर वोट डालने संबंधी तौर तरीके कितने सही और कितने गलत हैं? इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा है.

गौरतलब है कि 1995 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘हिंदुत्व’ के नाम पर वोट मांगने से किसी उम्मीदवार को कोई फायदा नहीं होता है.’ उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने हिंदुत्व को ‘वे ऑफ लाइफ’ यानी जीवन जीने का एक तरीका और विचार बताया था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हिंदुत्व भारतीयों की जीवन शैली का हिस्सा है और इसे हिंदू धर्म और आस्था तक सीमित नहीं रखा जा सकता. कोर्ट ने कहा था कि हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगना करप्ट प्रैक्टिस नहीं है और रिप्रिजेंटेशन ऑफ पीपुल एक्ट की धारा-123 के तहत यह भ्रष्टाचार नहीं है.

याचिकाकर्ता के वकील ने रिप्रजेंटेशन ऑफ पिपुल एक्ट की धारा-123 व इसके अनुभाग तीन पर कहा कि वर्ण, धर्म, जाति, भाषा और समुदाय के आधार पर अगर कोई व्यक्ति वोट मांगता है तो इसे चुनाव के गलत तरीकों की संज्ञा दी जाती है. ऐसा मामला पाये जाने पर दोषी व्यक्ति का पूरा चुनाव रद्द कर दिया जाता है.

गौरतलब है कि 1992 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव हुये थे. उस समय वहां के नेता मनोहर जोशी ने बयान दिया था कि महाराष्ट्र को वे पहला हिंदू राज्य बनायेंगे. इस पर विवाद हुआ था और 1995 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने उक्त चुनाव को रद्द कर दिया था. फिर यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था. बाद में सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस जेएस वर्मा की बेंच ने फैसला दिया था कि हिंदुत्व एक जीवन शैली है, इसे हिंदू धर्म के साथ नहीं जोड़ा जा सकता और बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया था. वर्ष 2002 में मामले को विचार के लिए सात जजों की संवैधानिक पीठ को भेजा गया था. इसी तरह का एक मामला मध्य प्रदेश में भी हुआ था.

सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता शीतलवाड और कई अन्य लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर 20 साल पुराने हिंदुत्व जजमेंट को पलटने की मांग की है. याचिका में कहा गया है कि पिछले ढाई साल से देश में इन आदेशों की आड़ में इस तरह का माहौल बनाया जा रहा है जिससे अल्पसंख्यक, स्वतंत्र विचारक और अन्य लोग खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को ऐसे भाषण देने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिये.

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