Columnist

पल को बांटने का मजा

सुनील कुमार
कुछ महीने पहले एक अमरीकी पत्रिका न्यू यॉर्कर में एक लेख छपा जो फोटोग्रॉफी और फोटो एडिटिंग के भविष्य को लेकर था. उसका शीर्षक बड़ा दिलचस्प था- भविष्य में हम फोटो हर चीज की खींचेंगे, लेकिन देखेंगे कुछ भी नहीं. यह अप्रैल के पहले हफ्ते में आया हुआ लेख है, लेकिन मुझे अपने बरसों की याद बिल्कुल ताजा है कि किस तरह यह बात तबसे मेरे साथ होते आ रही है जबसे फोटोग्राफी शुरू की है.

आज तो फिर भी जेब के मोबाइल फोन पर भी ठीकठाक फोटो खींच देने वाले कैमरे रहते हैं, लेकिन जिस वक्त कैमरे ही फोटो खींचते थे, उस वक्त एक बार फोटोग्राफी सीख लेने के बाद मेरे लिए बिना कैमरे कहीं जाना, न जाने के बराबर ही हुआ करता था. और फिर जैसे-जैसे कैमरे अच्छे आते गए, मेरे पास आते गए, तरह-तरह के लैंस आते गए, वैसे-वैसे देखना कम होते गया, और फोटो खींचना ही बच गया. इसलिए इस ताजा लेख में जो बात कही गई है, वह एकदम खरी बात है, और हो सकता है कि यह बात आम लोगों पर आगे जाकर लागू हो, मेरे सरीखे आधे-पेशेवर फोटोग्राफर पर तो अब भी लागू होती है.

बहुत पुरानी बात है, शायद 1980 के आसपास की. एक बड़ा मामूली सा कैमरा तोहफे में मिला था क्योंकि उस वक्त मैंने बीस बरस की उम्र में फांसी का एक आंखों देखा हाल लिखा था, और अखबार के प्रधान संपादक ने योरप से अपना लाया हुआ कैमरा मुझे दिया था. उन्हें यह हैरानी थी कि बीस बरस की उम्र में मैं कैसे तो फांसी देख पाया, और कैसे लिख पाया. लेकिन फांसी तो आई-गई हो गई, कैमरा मेरे पास रह गया, और उस कैमरे ने न सिर्फ फोटोग्राफी का शौक पैदा किया, बल्कि डार्करूम का काम भी सिखा दिया, और एक वक्त ऐसा आया कि बीच में कुछ बरस अखबार के काम के साथ-साथ मैं हर तरह की फोटोग्राफी का काम करने लगा, जो कि अखबार की तनख्वाह से दर्जनों गुना अधिक पैसा दे जाता था. खैर वह एक अलग लंबी कहानी है, फिलहाल बात चीजों को देखने और फोटो लेने की है.

एक ऐसा फोटोग्राफर होने के नाते जिसे कि अपनी तस्वीरें छपी हुई देखने की सहूलियत हासिल थी, मेरे फोटो लेने का उत्साह कुछ अधिक रहता था. उस वक्त 1980 के आसपास उस कैमरे से तस्वीरें लेने का पहला मौका आया जब मदर टेरेसा छत्तीसगढ़ आईं थीं. रायगढ़ में दो दिन उनके कार्यक्रमों की तस्वीरें लेते हुए उन्हें देखने की याद बहुत कम है, बस कैमरे के व्यूफाइंडर से उन्हें देखने की याद है, और यह सिलसिला तब से लेकर अब तक जारी है, और अब तो तरह-तरह के लैंस की मदद से सैकड़ों मीटर दूर के चेहरे को छू लेने की दूरी जितना करीब देखने की सुविधा भी है, और एक बार में आसमान से लेकर अपने खुद के जूतों तक का सब कुछ देख लेने की सहूलियत भी किसी दूसरे लैंस से हासिल है.

मतलब यह कि आंखें जितना, जैसा, और एक साथ जितना देख सकती हैं, कैमरा उससे कहीं अधिक दिखाने को तैयार है. नतीजा यह है कि आंखों से किसी जगह या किसी को देखना तो बस उस पल देखने जैसा रहता है. कैमरे से किसी को देखना तो मानो जिंदगी भर जब चाहो तब उसे देखते रहने जैसा रहता है. नतीजा यह हुआ कि आने वाले बरसों में हैलीकॉप्टर से छत्तीसगढ़ को देखते हुए, भारत के उत्तर-पूर्व से लेकर कन्याकुमारी तक दर्जनों शहरों को देखते हुए, दक्षिण अफ्रीका से लेकर अमरीका और फिलीस्तीन तक दर्जनों देशों को देखते हुए तब तक कुछ देखना नहीं हुआ, जब तक कैमरा साथ न रहा हो. कैमरा साथ न रहने पर देखी हुई जगहों को भी देखने का सुख जाता रहा, क्योंकि उन्हें दर्ज न कर पाने का दुख हावी रहा. अगर कैमरा नहीं है, तो देखने का कोई सुख नहीं है, और देखने का कोई मतलब भी नहीं है, यह बेबसी मैं बरसों से देखते आ रहा हूं, झेलते आ रहा हूं, और शायद यही बेबसी जो हर जगह कैमरा लेकर जाने की याद भी दिलाती है.

कल तक जो फोटोग्राफी थी, वह आज कुछ बदल भी गई है, और आज तस्वीरों का एक बड़ा हिस्सा उस सेल्फी का भी रहता है जो कि लोग अपनी खुद की खींचते हैं, और दोस्तों के बीच या सोशल मीडिया में बांटते हैं. मतलब यह कि लोग अगर किसी जगह पर जाते हैं, या कुछ नए कपड़े-गहने पहनते हैं, या दोस्तों की किसी टोली में रहते हैं, तो उन सबको भी मोबाइल फोन के कैमरे से होते हुए देखने की आदत बढ़ती जा रही है, और अगर सेल्फी न रहें, तो लोगों को शायद यह याद रखना भी मुश्किल होने लगेगा कि वे कब, कहां, किनके साथ, और किस तरह थे. मतलब यह कि याददाश्त का एक जिम्मा धीरे-धीरे कैमरे के हवाले होते जा रहा है, चाहे वह फोटोग्राफी का कैमरा हो या कि मोबाइल फोन का कैमरा हो.

दरअसल चीजों को किसी कैमरे के मार्फत देखते हुए एक बोझ दिमाग पर से कम होने लगता है. जब कैमरा ही सब कुछ दर्ज कर रहा है, तो हमें उसे देखकर उसकी याद रखने का बोझ घट जाता है. अब तो लोग किसी स्मारक या पुरातत्व की किसी महत्वपूर्ण जगह की तस्वीरें खींचते हैं, और उसके साथ जानकारी वाले सरकारी बोर्ड की फोटो भी ले लेते हैं, और बिना यह पढ़े निकल आते हैं कि उस जगह का क्या ऐतिहासिक या पुरातात्विक महत्व है. और कई बार तो यह भी होता है कि जिंदगी में दुबारा कभी उस जानकारी को निकालकर पढऩा हो ही नहीं पाता. लेकिन मन के भीतर यह एक अतिआत्मविश्वास भरे रहता है कि जब जरूरत हो तब देखने के लिए वह तस्वीर तो कम्प्यूटर की हार्डडिस्क पर है ही.

अब सवाल यह है कि देखने का जिम्मा अगर फोटोग्राफी और कैमरे ने ले लिया है, तो उससे क्या नफा है, और क्या नुकसान है? मैं अपनी खुद की सोच और आदत की बात करूं, तो बिना कैमरे किसी जगह का मजा लेना मेरे लिए मुमकिन नहीं है. और साथ ही यह एक बात भी है कि जब किसी जगह को महज कैमरे की नजर से देखा जाता है, तो लैंस से परे भी जिन पलों में उस जगह को देखा जाता है, वह देखने सरीखा नहीं होता. मतलब यह कि वहां से तस्वीरें लेकर तो लौटना हो जाता है, लेकिन उस तरह की यादों को लेकर लौटना नहीं हो पाता जिस तरह की यादें बिना कैमरे की आदत वाले किसी सैलानी के लिए मुमकिन है.

पर टेक्नालॉजी लौटकर जाने के लिए नहीं आती, वह इंसान की जिंदगी में दखल बढ़ाती चलती है, और लोगों के मिजाज को अपने पर और अधिक टिकाते चलती है. नतीजा यह निकलता है कि कैमरे छोटे होते जाते हैं, हल्के होते जाते हैं, बेहतर होते जाते हैं, और संचार के साथ जुड़ जाने की वजह से आज कैमरे पल भर में तस्वीरों को भेज भी देते हैं, और सोशल मीडिया पर पोस्ट भी कर देते हैं. इसलिए कैमरे के साथ किसी जगह पर जाने का एक पेशेवर-फोटोग्राफर के लिए तो अलग तरह का लालच रहता है, आम लोगों के लिए अपने मोबाइल के कैमरे के साथ भी किसी जगह जाने का लालच यह रहता है कि वे अपने करीबी लोगों तक उन तस्वीरों को बांट पाएंगे. लेकिन उस पल को, उसके नजारे को दूसरों तक बांटते हुए वह पल काफी हद तक हो चुका रहता है, और फोटो खींचने और बांटने के साथ-साथ उस पल को उसी तरह जी पाना कभी भी मुमकिन नहीं हो पाता. लेकिन टेक्नालॉजी से उपजी संभावनाएं ऐसी हैं कि लोग पल को जीने के बजाय पल को बांटने का अधिक मजा पाते हैं!

और टेक्नालॉजी ने लोगों की सोच को लोगों के निजी और सामाजिक अंतरसंबंधों को, लोगों की प्रचार की चाह को इस तरह बदल दिया है कि अब यह बात बहुत लोगों के लिए अधिक, और अधिक, खरी होते दिख रही है कि लोग अब तस्वीरें हर चीज की खींचेंगे, देखेंगे कुछ नहीं! लोग गुजर चुके बहुत से पलों को शायद आगे जाकर उस वक्त पहली बार देख और भोग पाएंगे, जब आगे किसी वक्त बैठकर वे उन पुरानी तस्वीरों को देखेंगे. लेकिन तस्वीरें तो महज देखने की होंगी, गुजर चुके उस पल का एहसास शायद ही कभी लौट सकेगा, क्योंकि कैमरे ने वह संभावना खत्म कर दी है.

Columnist

पल को बांटने का मजा

सुनील कुमार
कुछ महीने पहले एक अमरीकी पत्रिका न्यू यॉर्कर में एक लेख छपा जो फोटोग्रॉफी और फोटो एडिटिंग के भविष्य को लेकर था. (more…)

error: Content is protected !!