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एक पाव सुर, दो पाव साहित्य और कई किलो सेल्फी

देव प्रकाश चौधरी | फेसबुक : कविता पढ़कर लौटी कवयित्री की तरह हवा मंद-मंद बह रही थी. सब्जीबाले के ठेले में इकलौते बच गए बैंगन की तरह वह खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे थे. अपने देश में ठेले पर बैंगन की उपेक्षा तब शुरु होती है, जब अंतिम तौल से कोई आखिरी बैंगन बचा रह जाता है और मन ही मन गुस्से में उबलता भर्ता बनता रहता है.

वह अब तक बचे रह गए थे.

समकालीन कविता पर कुछ बातें कह देने का जो कीरतनिया उत्साह था…वह हवा के साथ मंद पड़ रहा था. शायद अंतिम नाम उनका था. वक्त बीता जा रहा था. निगाहें मंच पर थीं. मंच पर कोई पर्दा नहीं था, तो न कुछ उठ रहा था, न गिर रहा था. लोग आ रहे थे. लोग जा रहे थे.

उनका चेहरा सूख रहा था. समकालीन कविता के मूल्यांकन की प्यास गहरी थी और प्याऊ तक पहुंचने में विलंब हो रहा था. और वो भी तब…साहित्य के उस महान मेले में सबके साथ उन्होंने भी अपनी प्रति सुरक्षित करवा ली थी. कार्ड बंटे थे. व्हाट्सएप पर कोरस की तरह लोगों ने निमंत्रण को स्वीकार किया. कुछ दोस्त सचमुच आ गए थे. लेकिन बारी नहीं आ रही थी.

आकाश में टंगे किताबों के कवर से टपकते साहित्य प्रेम में भीग कर आए एक दोस्त ने सूखे चेहरे पर पानी मारने की कोशिश की, “अब आपकी ही बारी है.” सचमुच उनको मंच पर बुला लिया गया और उन्हें माइक पकड़ा दी गई.

ऐसे आयोजन में फड़फड़ाते साहित्यिक व्यक्तित्व के लिए माइक पेवरवेट का काम करते हैं… उनके साहित्यिक डैने भी फड़फड़ाने लगे थे.. माइक ने सब संभाल लिया. साहित्य के कई सुलगते सवाल सामने आए, उनके बर्फानी जवाबों ने उन्हें पानी-पानी कर दिया.

साहित्य में मिलावट को लेकर वे कुछ मात्रा में चिंतित, कुछ मात्रा में क्रोधित और बहुत अधिक मात्रा में व्यथित दिखे. उनके चेहरे पर उस वैद्यराज का भाव था, जो दूध में पानी मिलाने पर गुस्सा नहीं करते थे, उन्हें चिंता इस बात की होती थी कि पानी बोतलवाला है कि नहीं. अपने अकाट्य तर्कों से उन्होंने साबित कर दिया कि साहित्य में जो कुछ मिलाया जा रहा है, उसकी शुद्धता पर कोई ध्यान नहीं देता…ये जिम्मेदारी युवा रचनाकारों की बनती है कि वे इस पर ध्यान दें….

मंच पर ठीक नीचे पहली कतार में बैठे कुछ युवा रचनाकारों ने पहली बार व्हाट्सएप से नजरें हटाकर उनको देखा…साहित्य में नजरें मिलती हैं तो नजारा बदल जाता है. वहां का नजारा भी बदल चुका था… समीक्षक के सुविधाजनक तकिये पर सिर टिका कर अपना सीना मापने वाले साहित्यकार पहले ही वहां से जा चुके थे.

इधर रात भी होने वाली थी. एक पाव सुर,दो पाव साहित्य, कुछ पाव बहस, कुछ ग्राम विचार और ढेर सारी सेल्फी के उस दौर में सब अपने-अपने साहित्य के प्रेम में डूबे हुए से अब घर लौटने की सोच रहे थे.

वैसे अपने यहां साहित्य प्रेम बड़ी लोचदार स्थिति है. साहित्य का मेला लगा हो तो टोंड दूध की तरह उबलता है और मेला खत्म हो जाए तो लुढ़ककर नार्मल से भी नीचे जा गिरता है.

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