बलात्कार पीड़ितों की कागज कथा
बलात्कार पीड़ितों और तेजाब हमलों के पीड़ितों के मुआवजा देने की नीतियां सिर्फ कागज पर ही अच्छी दिखती हैं. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने यौन उत्पीड़न और तेजाब हमलों में बचे पीड़ितों के लिए आर्थिक मुआवजे की नीतियों से संबंध में जो निर्णय दिया, उसकी अपेक्षा काफी समय से थी. हालांकि, राज्यों और केंद्र सरकार से पहले ऐसी नीतियों के क्रियान्वयन का अनुभव ठीक नहीं रहा है. निर्भया कोष 2013 में शुरू हुआ था. वकील इंदिरा जयसिंह के मुताबिक अब तक इस कोष से नौ राज्यों में सिर्फ 123 बलात्कार पीड़ितों को आर्थिक सहायता मिली है. नैशनल लीगल सर्विस अथाॅरिटी के मुताबिक कुल यौन पीड़ितों में से सिर्फ 5-10 फीसदी को ही इस तरह की योजनाओं के तहत मुआवजा मिल पाता है.
अदालत ने यह स्पष्ट किया कि इस तरह की योजनाओं के तहत मुआवजे के लिए पीड़ित को अदालत में चल रहे मामलों में निर्णय आने का इंतजार नहीं करना है बल्कि दुर्घटना के तुरंत बाद राज्य या जिला प्रशासन से संपर्क करना है. लीगल सर्विस अथॉरिटी स्वतः संज्ञान लेते हुए अंतरिम राहत दे सकती है. सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में बलात्कार और जान जाने या सामूहिक बलात्कार के मामले में कम से कम 5 लाख और अधिकतम 10 लाख रुपये का मुआवजा दिया जाना है. तेजाब हमले में मुआवजा 5 से 7 लाख के बीच होगा. हमले के 15 दिनों के अंदर एक लाख रुपये मिलना चाहिए और फिर हर दो महीने पर दो लाख रुपये. नाबालिग के लिए मुआवजे की रकम सामान्य से 50 फीसदी अधिक होगी.
कानूनी समितियों को अधिकार संपन्न बनाना और त्वरित राहत की व्यवस्था इसलिए की गई है ताकि इलाज शुरू हो सके. तेजाब हमले के बाद का इलाज बेहद महंगा होता है. 2012 में निर्भया सामूहिक बलात्कार मामले के बाद केंद्र और राज्य सरकारों ने कई घोषणाएं की थीं. 2015 में केंद्र सरकार ने बलात्कार, तेजाब हमले, मानव तस्करी और सीमा पर गोलीबारी में मारी गई महिलाओं के लिए 200 करोड़ रुपये के साथ एक केंद्रीय पीड़ित मुआवजा कोष बनाने की घोषणा की थी. माना गया था कि ऐसे ही कोष का गठन राज्य सरकार और केंद्र शासित प्रदेशों के स्तर पर भी होगा.
हालांकि, पीड़ितों और उनके परिजनों का अनुभव भयावह तस्वीर सामने रखता है. महाराष्ट्र में मनोधैर्य योजना का क्रियान्वयन एक उदाहरण है. बलात्कार पीड़ित एक नाबालिग के पिता की याचिका पर सुनवाई करते हुए बाॅम्बे हाई कोर्ट ने कहा था कि यह महाराष्ट्र सरकार की जिम्मेदारी है कि वह यौन अपराध के पीड़ितों को मुआवजा प्रदान करे. कानूनी समितियों के कामकाज पर भी कई सवाल खड़े होते हैं. वे अपने स्तर से जांच-पड़ताल करते हैं कि मुआवजा दिया जाना चाहिए या नहीं. एफआईआर दर्ज होते ही पीड़ित को 50 फीसदी मुआवजा पाने का हक है. बाकी रकम आरोपपत्र दाखिल होने के बाद दिया जाना है. लेकिन लेटलतीफी की वजह से इन योजनाओं का कोई लाभ नहीं दिखता. सामाजिक कार्यकर्ताओं की मांग है कि पुलिस के लिए यह अनिवार्य बना देना चाहिए कि एफआईआर दर्ज होते ही वह खुद कानूनी समितियों और राज्य सरकार को जानकारी दे.
नालसा ने खुद सुप्रीम कोर्ट में बताया कि आंध्र प्रदेश में यौन अपराध के 901 मामले दर्ज हुए लेकिन मुआवजा मिला सिर्फ एक को. बच्चों के खिलाफ यौन अपराध के 1028 मामले दर्ज हुए लेकिन 11 को ही मुआवजा मिल पाया. राजस्थान में 3,305 मामले दर्ज हुए और 140 को मुआवजा मिला. बिहार में 1199 मामलों में से सिर्फ 82 को मुआवजा मिला. मध्य प्रदेश में औसतन मुआवजे में हर पीड़ित को 6,000 से 6,500 रुपये के बीच मिला.
नालसा योजना को व्यापक रूप से तैयार किया गया है और यह उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य और केंद्र शासित प्रदेश इसे ठीक से लागू करेंगे.
दुनिया भर में इन अपराधों से बचने वाले लोगों के अधिकार को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है. उच्चतम न्यायालय ने उसी दिशा में कदम उठाया है. पहले भी सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि इस तरह के मुआवजे से न सिर्फ पीड़ितों को त्वरित राहत मिलती है बल्कि अपराध की रिपोर्टिंग भी हो पाती है. जरूरत इस बात की है कि इस नीति का क्रियान्वयन करने वाली एजेंसियां इसे ठीक से लागू करें.
यह विडंबना ही है कि जिस समाज में बलात्कार के दोषियों के लिए मौत की सजा की मांग होती है, उस समाज में यौन उत्पीड़न और तेजाब हमले के पीड़ितों के पुनर्वास के लिए उतनी बेचैनी नहीं दिखती.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय