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क्यों तूतीकोरिन उबला

स्टरलाइट कॉपर के खिलाफ विरोध कर रहे 13 लोगों की मौत से जुड़े कई सवाल अनुत्तरित हैं. 22 मई को तमिलनाडु के थूतुकुडी यानी तूतीकोरिन में पुलिस की गोलियों से 13 लोगों की जान गई. ये लोग उन हजारों लोगों में शामिल थे जो वेदांता समूह के स्टरलाइट कॉपर प्लांट के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे. पुलिस ने यहां भीड़ी नियंत्रण के लिए तय मानकों का इस्तेमाल नहीं किया और टेलीविजन फुटेज में स्पष्ट दिख रहा है कि लोगों को निशाने पर रखकर पुलिस ने गोलियां चलाईं. हालांकि, इस मामले में जांच के आदेश दिए गए हैं लेकिन राज्यों में ऐसी जांचों का हश्र हर कोई जानता है. इससे न तो लोगों का गुस्सा शांत होने वाला है और न ही पीड़ितों के परिजनों को कोई राहत मिलने वाली है.

भारत अब भी इस चुनौती से नहीं पार पा पाया है कि लोगों की सेहत और पर्यावरण से समझौता नहीं करते हुए औद्योगिक विकास कैसे किया जाए. कानूनों की अनदेखी करके औद्योगिकरण को बढ़ावा देना आम बात है. 22 मई को थूतूकुडी के लोगों के असंतोष की जानकारी पूरे देश को तब मिली जब लोग हजारों की संख्या में जमा हुए और इसे टीवी चैनलों ने दिखाया. लोग हिंसक हो गए और पुलिस की कार्रवाई में मारे गए. गोवा, गुजरात और महाराष्ट्र से खदेड़े जाने के बाद स्टरलाइट कॉपर 1994 में तमिलनाडु में आई. महाराष्ट्र के रत्नागिरी में हजारों किसानों ने इसका यह कहकर विरोध किया था कि इससे होने वाले प्रदूषण से उनकी फसल बर्बाद होगी और रोजी-रोटी छीन जाएगी. महाराष्ट्र सरकार को जनदबाव में मजबूर होकर कंपनी को कहीं और जाने के लिए कहा गया.

तमिलनाडु की कहानी थोड़ी अलग है. स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद राज्य सरकार ने कंपनी की मदद की. सरकार का दावा रहा कि औद्योगिकरण और रोजगार सृजन के लिए यह जरूरी है. स्टरलाइट कॉपर का पिछले तीन दशक में पर्यावरण पर बुरा असर पड़ा फिर भी कंपनी ने काम जारी रखा. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर 100 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया था फिर भी कंपनी विस्तार की योजना पर काम करती रही.

थूतूकुडी के लोगों का विरोध रातोंरात नहीं पैदा हुआ. सालों के गुस्से का नतीजा था यह. 22 मई को हालिया विरोध प्रदर्शन के 100 दिन पूरे हो रहे थे. बाहर के पर्यावरणविदों ने भी स्थानीय लोगों को एकजुट करने में मदद की लेकिन प्रदूषण के बुरे परिणामों से लोग वाकिफ हैं. क्योंकि खुद उन्हें खराब हवा से दिक्कत हो रही है. जब उनकी परेशानियां काफी बढ़ने लगीं तो वे सड़कों पर आने लगे. 2011 में जब जापान के फुकुशिमा में सुनामी की वजह से परमाणु संयंत्र तहस-नहस हो गया था तो तमिलनाडु के मछुआरे कुडनकुलम परमाणु रिएक्टर का विरोध करने लगे. लेकिन थूतूकुडी में केंद्र और राज्य सरकार इस परियोजना के लिए जगह के चयन को सही ठहराते रहे और इसे तमिलनाडु के हित में बताया.

लेकिन सच्चाई यह है कि आम लोग अब पर्यावरणीय आपदाओं के खतरों से वाकिफ हैं. इससे औद्योगिक प्रतिष्ठानों के लिए सही स्थान के चयन में आसानी होगी. 1984 में यूनियन कार्बाइड के भयावह हादसे के बावजूद खतरनाक उद्योगों के स्थान को लेकर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया. उस वक्त यूनियन कार्बाइड इकाई के आसपास रहने वाले लोग जोखिम से अवगत नहीं थे. लेकिन अब लोग वाकिफ हैं और वे विरोध करेंगे. सरकारों को इसी हिसाब से औद्योगिक इकाइयों के लिए जगह तय करना होगा.

तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने स्टरलाइट कॉपर में उत्पादन बंद करने के आदेश दिए हैं. इससे तनाव कम हो सकता है. लेकिन यह सवाल अनुत्तरित रह जाएगा कि नियम-कानून को ताक पर रखने का अवसर ताकतवर उद्योगपतियों को कैसे मिल जाता है? सरकारों की इसमें कितनी मिलीभगत होती है? भोपाल त्रासदी के बाद यह कानून बना था कि जोखिम वाले उद्योग लगाने से पहले स्थानीय लोगों की राय ली जाएगी तो इसका पालन क्यों नहीं किया जाता?
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय

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