प्रसंगवश

ये मेरा हक वो तेरा हक

हको की लड़ाई में, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की लड़ाई का अपना अलग महत्व है. सिनेमा भी एक तरह से अभिव्यक्ति का माध्यम है. हां, अभिव्यक्ति के नाम पर कुछ भी परोसने की आजादी नहीं है तथा यह ठीक भी है. कहीं न कहीं तो समाज पर समाज का, स्वतंत्रता पर समाज का नियंत्रण होना ही चाहिये. सिनेमा न केवल समाज का दर्पण है बल्कि समकालीन इतिहास को अक्षुण्ण रखने का माध्यम भी है.

भारतीय सिनेमा को दायरे में रखने के लिये फिल्म सेंसर बोर्ड का गठन किया गया है. अभी-अभी पंजाबी भाषा में बनी फिल्म साड्डा हक को पंजाब, हरियाणा एवं दिल्ली की राज्य सरकारों ने प्रतिबंधित कर विचारों की अभिव्यक्ति पर अपना हक जताने की कोशिश की है. जबकि फिल्म सेंसर बोर्ड ने इसे समूचे देश में प्रदर्शित करने की अनुमति दे रखी है.

यह फिल्म खालिस्तानी आंदोलन के दौर में पंजाब के युवाओं पर जो ज्यादातियॉ की गई थी, उस पर बनी है. यह सत्य भी है. इसी विषय पर एक और फिल्म माचिस पहले भी बन चुकी है. फिर इस फिल्म से कौन सा भूचाल आ जाने वाला था. हां, भूचाल तो अब आया है जब ये राज्य सरकारें फिल्म सेंसर बोर्ड की अनुमति के विरुद्ध अपना हक जता रहा हैं.

फिल्म को प्रतिबंधित करने के पीछे सरकारों का तर्क है कि कथित तौर पर इस फिल्म में उग्रवादियों का महिमामंडन किया गया है. लेकिन सवाल उठता है कि यदि इन राज्यों को इससे आपत्ति थी तो वे सेंसर बोर्ड को अपील कर सकते थे. ऐसा न कर स्वयं ही पाबंदी लगा देना लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर बनाता है. पंजाब के मुख्यमंत्री तो स्वयं उन्हीं उग्रवादियो-सी हरकत कर रहे है जो वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था को मानने से इंकार करते थे.

जनता की भावनाओं के लिये जगह है लेकिन उसके लिये भी लोकतंत्र में एक प्रक्रिया है. उससे कैसे इंकार किया जा सकता है? और जब स्वयं राज्यों के मुखिया ऐसा करें तो उन्हें भी याद दिलाने की जरुरत है कि सबका हक तय है, दूसरों के हक पर डाका डाल कर अंततः वे कहीं न कहीं खुद को भी कमजोर कर रहे हैं.

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