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राम, रामायण या वोट बैंक का मोक्ष?

कनक तिवारी
रामकथा हर भारतीय की देह में सांस की तरह प्रवाहित है, कमतर नहीं. सदियों से राम मुसीबतजदा, मुफलिस और मुहब्बतकुनिंदा भारतीयों की उम्मीद की रोशनी बने हुए हैं. सामाजिक और निजी जीवन में जितनी मुसीबतें आती रहीं, राम ने किसी का भरोसा तोड़ा नहीं. लोकाचार में राम राम, जय सीता राम, जय राम जी गूंजते ही रहते हैं.

गांधी ने अपने सबसे खराब वक्त भी ‘हे राम‘ में ही साहस ढूंढ़ा. राम हर भारतीय के ‘मन की बात‘ और सामाजिक स्टार्टअप भी हैं. राम किसी मतलबपरस्त, खुदगर्ज और आत्ममुग्ध गालबजाऊ सत्ता के दलाल की तरक्की के लिए उपलब्ध नहीं रहे.

जो लोग राजनीति में नहीं रहे, बडे़ अफसर नहीं रहे, उद्योग, व्यापार में भी महारत में नहीं रहे, कुलाक लॉबी के किसान तक नहीं रहे, उन सबके मुकाबिले राम औसत और नामालूम भारतीयों की सांसों की धौकनी बने रहे. जनविश्वास अपनी अंतिम यात्रा में ‘राम नाम सत्य है‘ का समवेत नारा ही सुनता रहता है. पौराणिक शिव, विष्णु, ब्रम्हा जैसे त्रिदेव भी उस वक्त उसके लिए मुखर नहीं होते. शायद बंगाल में ही कहीं कहीं कृष्ण की याद ‘हरि बोल, हरि बोल‘ सुनते ऐसे ही क्षणों में की जाती है.

राम अपने अक्स में देश का वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक और आर्थिक सच बने हुए हैं. आर्थिक से कहीं ज़्यादा पारमार्थिक सच. राम वैज्ञानिक खोज के लिहाज से ऐतिहासिक किरदार बनाए जाते हैं. इसके बनिस्बत उनके मिथकीय व्यक्ति होने में संदेह नहीं हो सकता. मिथक, अफवाह, किंवदन्तियां और किस्से कहानियां इतिहास से ज्यादा जनविश्वास का हलफनामा लगने लगते हैं.

राम विष्णु के अवतार कहे जाते हैं लेकिन लोकजीवन में उनसे ज़्यादा कबूले जाते हैं. वे भारत की उत्तर-दक्षिण एकता की धुरी बने अयोध्या से चलकर लंका तक गए. रास्ते में उपेक्षित, वंचित और दबे कुचले लोगों को अपने साथ कर लिया. उनकी भी ताकत जोड़कर राक्षसी घमंड के ब्राह्मणत्व का दर्प मर्दन किया.

राम पहले भारतीय हुए जिन्होंने जाति, धर्म, वर्ण के सभी ढूहों को गिराकर परिवारवाद को भी तोड़ा. पत्नी सीता तथा जिद्दी छोटे भाई लक्ष्मण को छोड़कर कोई अयोध्यावासी या रिश्तेदार उनके साथ कठिन जंगल यात्रा में नहीं गया. जो लोग रिटायर होते ही अपने बेटे बेटी को अपनी राजगद्दी और काला धन सौंपने आते हैं, वे भी रामकथा के जजमान या मुख्य अतिथि बनते रहते हैं.

राम ने सौतेली माता के अपने बेटे भरत को राजा बनाने की जिद के चलते पिता के कहने से वनवास करना मंजूर किया. यह तो कहानी है.

राम कथा का असली सामाजिक तात्विक अर्थ यही है कि राम ने सियासी विडम्बनाओं को हटाते देशज समरसता का माहौल उगाने की कोशिश की और सफल रहे. राम कभी पसन्द नहीं करते कि बीवी के बहकावे में आकर मां बाप की दौलत हड़पकर उन्हें ओल्ड होम में भर्ती कराओ. गुलछर्रे उड़ाओ और फिर राम मन्दिर और रामायण मेला के कर्ता धर्ता और ट्रस्टी बनकर राम को ही धोखा दो.

राम जानते थे कि मंथरा किचन कैबिनेट का त्रेतायुगीन नाम ही तो है. आज प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री मंत्रिपरिषद का अपना गुलाम और सलाहकारों और रिटायर्ड आई ए एस को अपनी नाक का बाल बनाए रहते हैं.

रामकथा इतिहास का सच हो, न हो, लेकिन रामकथा सच का इतिहास तो है. सदियों बाद बीसवीं सदी में भारत में संवैधानिक लोकतंत्र आया. उस मुहिम के सबसे बड़े सिपहसालार गांधी ने आदर्श सम्भावित लोकतंत्र को ‘रामराज्य‘ का खिताब देना चाहा.

राम की ऐसी तात्विकता को लेकर एक तरफ दक्षिणपंथी संघ की विचारधारा और दूसरे छोर पर नेहरू तथा प्रगतिशील तत्वों की भारत की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक समझ को लेकर आपसी सिरफुटौव्वल नहीं हुई. ऐसे राम लोकप्रियता के बैरोमीटर के सबसे ऊंचे बिंदु पर लगातार बने हैं.

उसका मुख्य कारण उनकी कालजयी कुर्बानी है. उन्होंने घर परिवार खोया, पत्नी तक को अपहृत किया गया, मां बाप खोया, राजपाट, बच्चों को भी और जीवन की सारी सुविधाएं भी. वे कांटों के रास्ते पर चले का अर्थ है उनके पैरों में ही कांटे नहीं चुभे. जीवन की चुनौतियां ही कांटे बनकर राम के अस्तित्व को चुभती रहीं.

राम जंगल जंगल भटके का अर्थ है कि विपरीत हालातों से जद्दोजहद करते आखिर में अपनी मंजिल हासिल कर ही ली. राम की ऐसी तात्विकता को दरकिनार कर देश की मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी ने अयोध्या लौटे राम का मंदिर बनाना भर राम के होने का अर्थ देश को समझाया.

पढे लिखे, आलिम फाजिल, निरक्षर, कूप मंडूक और दकियानूस निठल्ला, साधु कहलाता जमावड़ा-सबने मिलकर राम के सच के बदले राम की पौराणिक कपोल कल्पित हैसियत भर को अपने लिए समर्थन में भुनाना शुरू किया. सुप्रीम कोर्ट तक ने राममंदिर मामले में फैसला वैज्ञानिक तर्कों और कानून की उपपत्तियों के आधार पर नहीं, आस्था के नाम पर कर दिया, जिसकी संविधान मुमानियत करता है.

अनुच्छेद 51 (ज) में हर नागरिक का कर्तव्य है कि ‘‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे.‘‘ इसके बरक्स चीफ जस्टिस गोगोई राज्यसभा में मनोनीत हो गए. वे राम कथा के आदर्शों के तो खिलाफ हुए. हिन्दुत्व को राम की शिक्षाओं पर चस्पा कर दिया गया है. राम तो आदर्श मनुष्य होने का प्रतीक हैं. उनके वक्त हिन्दू मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी जैसे संविधान के शब्द तो पैदा नहीं हुए थे.

सत्ता की सुरीली कुर्सी दौड़ में कई राजनीतिक दल भाजपा-संघ के तथाकथित ‘हार्ड हिन्दुत्व‘ के मुकाबले ‘सॉफ्ट हिन्दुत्व‘ का झुनझुना बजा रहे हैं. वे भाजपा की पिच पर आकर खेल रहे हैं. उनकी भी तेज निगाह वोट बैंक पर है. राम के आदर्श और करतब तो राजनीति के रंग मंच के पार्श्व भर में दीखते, गूंजते, फुसफुसाते रहते हैं.

रामकथाओं के मामले में भूगोल की खोजें कभी उत्तरप्रदेश, कभी महाराष्ट्र, कभी तेलंगाना, कभी छत्तीसगढ़, कभी कर्नाटक होते हुए राम को लंका तक ले जाती हैं. पता नहीं राम के वक्त रावण की राजधानी आज की श्रीलंका में रही भी होगी.

राम का असर राष्ट्रपति से लेकर सबसे छोटे लोकसेवक और सुप्रीम कोर्ट से लेकर सबसे छोटी अदालत तक आत्मा के लिहाफ की तरह होना चाहिए था. क्या वक्त आ गया है जब राम और रावण हथियार बनकर उनके हाथों में हैं जो घनघोर जातिवादी, वर्णवादी, कूपमंडूक हैं.

देश की एक बड़ी आबादी को अछूत कहते हैं, जिन्हें राम ने गले लगाया था. आदिवासी की जमीन, खेत, झोपड़ी, बकरी, मुर्गी, महिलाओं की आबरू सब कुछ छीनकर कॉरपोरेटियों और सरकारी अफसरों को सौंपते चल रहे हैं. रामकथा को इतिहास की चाशनी बनाकर घुट्टी में पिलाने वाले लोगों ने यह कहीं उजागर नहीं किया कि लंका विजय के बाद लौटकर राम गद्दीनशीन हुए. तब आज की भाषा के आदिवासी, दलित, पिछड़ा वर्ग केवट, शबर, वानर, किन्नर, कोल, भील, रीछ जैसा सर्वहारा समाज उनके राज्याभिषेक में शामिल क्यों नहीं हुआ?

आज भी तो यही हो रहा है. सेंट्रल विस्टा में नई संसद की स्थापना से गांधी के आखिरी व्यक्ति तो क्या राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू तक का आदिवासी होकर भी क्या रिश्ता बना? आदिवासियों की भूमियां छीनने मौजूदा केन्द्र सरकार ने वन अधिनियम का एक खतरनाक संशोधन तैयार रखा है. उसके लागू हो जाने से अकिंचन हो चुके आदिवासी पूरी तौर पर अपनी जल, जंगल, जमीन से महरूम हो जाएंगे, जिन्हें बचाए रखने राम ने संघर्ष किया था. चाहे राममंदिर हो या रामायण मेला.

आदिम सवाल तो होगा ही कि ऐसे प्रयोजनों से कुल मिलाकर भारत के संविधान के भाग चार के नीतिनिदेशक सिद्धांतों के तहत गरीब के साथ अन्याय होना कब बंद होगा? कब होगा कि देश का एक अकिंचन व्यक्ति अपने घर में अपनी बीवी को पीटते समय भी सत्ता के सबसे बडे़ अधिकारी के खिलाफ चोरी छिपे भी कुछ कहे तो प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री जैसे लोग उसका संज्ञान लेकर आईने के सामने खड़े होकर अपनी हुकूमत को राम के चरणों के आदर्श के सामने डाल देने की हिम्मत तो करें?

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