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वाम की तरफ जाने वाली राहुल की कांग्रेस

अनिल चमड़िया
राहुल गांधी ने पिछली अमरीका यात्रा के दौरान यह आभास दिलाया कि उन्होंने पहले के मुकाबले कुछ ठोस परिवर्तन अपने आप में और अपने आसपास किया है, जो कांग्रेस को एक नया स्वरूप दे सकता है. उनके चेहरे पर एक भरोसे का भाव भी महसूस किया जा रहा है. गुजरात विधानसभा के लिए प्रचार के दौरान अपनी पार्टी की कमान संभालने का फैसला इस भरोसे की तस्दीक करता है. राहुल की कांग्रेस से भाजपा और खासतौर से नरेन्द्र मोदी को मुकाबला करना थोड़ा मुश्किल होगा. इसके कुछ ठोस और बुनियादी कारण हैं. पहली बात तो राहुल राजीव नहीं है और ना ही उन्हें विरासत में वह तत्कालीन राजनीतिक पृष्ठभूमि मिली है, जो कि राजीव गांधी को मिली थी.

कांग्रेस की 1977 की हार के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी राजनीतिक लाइन पुरी तरह से बदल दी. उसे परंपरागत शब्दों में कहें तो वे कांग्रेस को जोरशोर से दक्षिण पंथ की तरफ ले गईं. राजीव गांधी ने विकास के लिए 21वीं सदी का नारा और साम्प्रदायिकता का एक मॉडल तैयार किया. यह हिन्दुत्व की तरफ स्पष्ट झुकाव का था. कालांतर में इसी राजनीति का चेहरा गुजरात मॉडल के रुप में नरेन्द्र मोदी बनकर उभरे हैं और दूसरी तरफ कांग्रेस विघटित होती चली गई और हिन्दुत्व की बी टीम के रुप में देखी जाने लगी.

राहुल गांधी के सामने कांग्रेस को बदलने की चुनौती है और उनके सामने ये अनुभव है कि वे हिन्दुत्व की बी टीम बनकर भाजपा की ही जमीन तैयार करेंगे. राहुल के उपाध्यक्ष बनने के बाद उनके प्रयासों में ये देखा गया कि वे नई उर्जा के लिए कांग्रेस में जगह बनाना चाहते हैं. कांग्रेस के सामने यह बड़ी चुनौती रही है कि वह कांग्रेस के भीतर नई सामाजिक शक्तियों का संचार करें. लेकिन ये संभव नहीं हो सकता था.

खासतौर से राजीव गांधी के बाद की कांग्रेस में दक्षिण पंथ ने अपनी पकड़ बेहद मजबूत कर ली जो अभी भी है और वह राहुल को जनेउधारी हिन्दू के रुप में स्थापित करने की कोशिशों में दिखाई देती है.राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा को विस्तार देने के लिए संसदीय राजनीति करने वाली भाजपा और उनके नेता नरेन्द्र मोदी-अमित शाह की उस कांग्रेस से दिक्कत है, जो कि उनकी बी टीम बनने के बजाय बदलने का संकेत दे रही है.

कांग्रेस उपाध्यक्ष
राहुल गांधी

देश की आबादी का पैंसठ प्रतिशत हिस्सा 35 वर्ष से कम उम्र का है. इन पच्चीस वर्षो में जिन सामाजिक शक्तियों का राजनीतिक पटल पर चेहरा उभरा है, वह संगठित होने के प्रयासों और विखराव के दौर से गुजर रहा है. 2014 के चुनाव के दौरान इन्हीं शक्तियों के बीच सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले का इस्तेमाल कर भाजपा ने बाजी मार ली. इन्ही वर्षो में वामपंथी पार्टियों की ताकत का क्षरण हुआ है.राहुल गांधी इन्हीं स्थितियों को संबोधित करने का संकेत दिया है.

गुजरात के चुनाव में वे मंदिरों में जाते देखे गए तो वह गुजरात के उस मानस के भीतर अपने लिए तैयार किए गए अछूतपन को दूर करने की कोशिश का हिस्से के रूप में दिखता है. राहुल गांधी ने बार बार धर्म को व्यक्ति का निजी मसला बताया और गुजरात में बेरोजगारी,देश में आर्थिक अव्यवस्था आदि जैसे राजनीतिक मुद्दों को उठाया. कांग्रेस के अंदर वाम स्वर ही अपने उपर भरोसे का आधार रहा है.

राहुल के नेतृत्व वाली कांग्रेस उस सामाजिक-वाम ( सेंटर टू सोशल लेफ्ट) झुकाव की तरफ ले जाना चाहेगी जो नए सामाजिक सवालों, आर्थिक असामानताओं और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की आकांक्षा को संबोधित करने में सक्षम हो सकती है. कांग्रेस के लिए यह मुश्किल इसीलिए नहीं है उन्होंने सोनिया बनाम मनमोहन के बीच कांग्रेस को इस रुप में बांटने का दृष्टिकोण मतदाताओं के बीच में बना हुआ है कि सोनिया गांधी सामाजिक हितों के कार्यक्रमों को लागू करवाने पर मनमोहन सिंह की सरकार पर जोर बनाने वाली धारा का नेतृत्व करती रही है. धर्म निरपेक्षता केवल संविधान का ही विषय नहीं है बल्कि वह 35 वर्ष से कम उम्र के युवाओं की विस्तारित दुनिया को संबोधित करता है. युवाओं को रोजगार के साथ गर्व करने लायक विरासत की भी जरुरत होती है.

राहुल को कांग्रेस को अंदर से बदलने में वक्त लगेगा. उनके नेतृत्व की इंक्लूसिव नीति कांग्रेस के भीतर यह दबाव बनाने में सफल हो सकती है कि वह समाज की नई शक्तियों के लिए जगह बनाए. भाजपा की राजनीति की एक सीमा है और वह अपनी सीमाओं में ही कांग्रेस को बांधे रखने की कोशिश करती है. सोनिया गांधी को विदेशी और राहुल गांधी की ‘पप्पु’ की छवि वास्तव में राजनीति को अपने मुद्दो के लिए खुला मैदान तैयार करने की कोशिश का हिस्सा रही है.

राहुल आर्थिक शक्तियों को संबोधित करने वाली भाषा जानते हैं और उनका समाज के विभिन्न हिस्सों से जुड़ने की कौशलता का संकेत मिलते ही भाजपा को परेशानी महसूस होती है.

राहुल कांग्रेस के लिए जनेउधारी है लेकिन राहुल खुद को गलतियां करके सीखने वाले इंसान के रुप में पेश करते हैं. समाज जिस दौर से गुजर रहा है, राहुल उसे संबोधित करने वाली भाषा कुछ इसी तरह तैयार कर रहे हैं, इसके संकेत अक्सर मिलने लगे हैं. गुजरात में राहुल ने जवाब नहीं दिया बल्कि सवाल पूछे और अपने नजरिये पर नरेन्द्र मोदी को प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए बाध्य किया. गुजरात के मीडिया का अध्ययन करें तो तमाम तरह के एवेंट (कार्यक्रम ) मैनेजमेंट के बावजूद राहुल, उनके सहयोगियों और उनकी राजनीतिक गतिविधियों को ही मीडिया में सबसे ज्यादा जगहें लगातार मिलती रही. गुजरात में उनकी लोकप्रियता का बढ़ना वास्तव में समाज को संबोधित करने वाली भाषा की स्वीकारोक्ति का उदाहरण है.

दरअसल भाजपा के सामने यह चुनौती है कि वह राहुल के नेतृत्व वाले कांग्रेस को किस तरह से मुकाबला करें. उसे अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है. राहुल की इंक्लूसिव (अपने साथ लाने की नीति) की भाषा सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को कमजोर करने की चुनौती पेश कर सकती है.

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