कलारचना

पुष्पा तिवारी की कविताएं

आत्म विश्लेषण


एक
बायीं करवट लेते ही गुनगुनाने लगता कोई
बंद पलकों के अंदर
खिल जाता इंद्रधनुष
धुंधला धुंधला कोई दृश्य
अपने बाहरी परिदृश्य में आने उतावला
पर
शब्द नहीं मिलते
इसी ऊहापोह में करवट बदल लेती
शब्दों का विशाल जाल
जैसे दूकान लगी हो
उलझ जाती शब्दों में
ठीक जगह पर ठीक शब्द के लिए सोचती हूँ तो
शब्दों के भंडार में जगह गायब मिलती
करवटें बदलती बदलती रात बीत जाती
नींद नहीं आती

दो
समझने चली जिन्दगी को
ककहरा भी नहीं पढ़ पाई
जिन्दगी
तो सूची का पहला शब्द
लम्बी है सूची
बार बार निगाहें सूची पर
छूंछी आँखों से डालती
उम्र बीत रही है समझने में
बोनस की भी
लगा सब गलत समझा
गलत समझाया
जिन्दगी एक ऐसी नायाब चीज
कैसे पढ़ी जा सकती हैं भला
साधारण आँखों से…

तीन
पता नहीं क्यों
मुझे अब यह एहसास होने लगा है
मैं हूँ भी या नहीं…
चुटकी काटती हूँ
मुँह से आवाज निकलती है
लगता है सुन रही हूँ किसी और की आवाज
पता नहीं क्यों यह आवाज मेरी क्यों नहीं लगती
मैं हूँ भी या नहीं…
कुछ लिखने की कोशिश में
शब्द किसी और के, अर्थ आधे अधूरे…
कौन है! जो लिख रहा है
पता नहीं क्यों
शब्द मुझे परिचित नहीं लगते
फिर खुद से पूछती हूँ- मैं हूँ भी या नहीं……
सड़क फलांगते मेरे पैर
पता नहीं किस ओर चल पड़ते
पहुँचती किन्हीं और की मंजिल
अवाक् खड़ी, अपने होने को ढूंढ़ती रहती
मेरा बटुवा भरा रहता रुपयों से
खर्च करती रहती जरूरतों पर
जरूरतों ने कठपुतली सा
प्रशिक्षित कर दिया है मुझे
ये मेरी जरुरतें नहीं………
यह मेरा बटुवा भी नहीं
फिर क्यों
और मैं शक में घिरने लगती
अपने होने को लेकर

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