किसानों के लिये आय की बात करें
देविंदर शर्मा
नई दिल्ली में किसानों के एक बड़े विरोध प्रदर्शन के एक दिन बाद पंजाब के मानसा में सैकड़ों किसानों की विधवाएं इकट्ठा हुईं. मैंने वहां एकत्र हुए सैकड़ों लोगों के बीच बैठकर कई किसानों की विधवाओं की झकझोर देने वाली कहानियां सुनीं. हरित क्रांति की धरती पर सैकड़ों किसानों की विधवाओं को देखना और उनसे मिलना आसान नहीं था. जैसे ही वे अपनी दर्दनाक कहानियां सुनाने के लिए खड़ी होतीं, अक्सर वे माइक के सामने खड़ी नहीं होतीं; तो कुछ शब्द कहने के बाद ही रोने लगती थीं. उसके बाद की चुप्पी सब कुछ कह जाती थी.
शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता होगा, जब मैं अखबारों में किसानों की आत्महत्या से संबंधित खबरें नहीं पढ़ता. पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना; पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला और गुरु नानकदेव विश्वविद्यालय, अमृतसर द्वारा कराए गए एक संयुक्त अध्ययन में घर-घर जाकर सर्वे कराने पर पता चला कि पंजाब में पिछले 17 वर्षों यानी वर्ष 2000 से 2017 तक 16,600 किसानों ने आत्महत्या की है. यानी कृषि में अग्रणी राज्य पंजाब में प्रतिवर्ष लगभग एक हजार किसानों और कृषि मजदूरों ने अतिवादी कदम उठाते हुए अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली.
पंजाब के खेतों में निरंतर मृत्यु का नाच जिस तरह जारी है, उसी तरह पंजाबी विश्वविद्यालय द्वारा कराए गए एक अन्य अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि पंजाब के प्रति तीन में से एक किसान गरीबी रेखा से नीचे जी रहा है.
जब विधवाएं अपनी पीड़ा और कठिन संघर्ष का बयान कर रही थीं, कि परिवार के अकेले कमाऊ व्यक्ति के चले जाने के बाद उन्होंने मुश्किल हालात का किस तरह सामना किया, तब मैं यह सोचकर हैरान हो रहा था कि जिस पंजाब को देश के खाद्यान्न का कटोरा कहा जाता है, वह किसानों की आत्महत्या की क्यारी में कैसे तब्दील हो गया है और यहां के करीब 98 फीसदी ग्रामीण परिवार कर्ज में क्यों हैं? इनमें से 94 फीसदी परिवारों का मासिक खर्च इनकी कुल आय से ज्यादा है.
दूसरे शब्दों में, प्रगतिशील पंजाब के ग्रामीण परिवार कर्जों में जीते हैं. इंसान के लिए निरंतर साल-दर-साल, पीढ़ी-दर-पीढ़ी कर्ज में जीने से बदतर स्थिति दूसरी नहीं हो सकती. पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह ने ठीक ही कहा था कि किसान कर्ज में पैदा होता है और कर्ज में ही मर जाता है. उन्होंने जो नहीं कहा था, वह यह है कि जीवन भर कर्ज में जीना नरक में जीने जैसा है.
एमएसपी
किसानों की विधवाओं की बातें सुनकर मैंने पहेली को सुलझाने की कोशिश की. फसलों के लिए निश्चित न्यूनतम समर्थन मूल्य, किसानों के बकाया कृषि ऋण की माफी और सिंचाई नेटवर्क के विस्तार के जरिये किसी राज्य में कृषि की समृद्धि सुनिश्चित की जा सकती है. लेकिन पंजाब में ये सहूलियतें तो पहले से ही हैं.
यहां के 98 फीसदी खेतों में सिंचाई की व्यवस्था है और गेहूं, धान तथा मक्के की उत्पादकता में यह दुनिया में सबसे अव्वल है. फिर यहां के सैकड़ों किसान प्रतिवर्ष आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? अगर उत्पादकता और सिंचाई मौजूदा कृषि संकट का जवाब है, तो पंजाब के किसानों के मरने का कोई कारण नहीं है. इससे यही साबित होता है कि भीषण कृषि संकट का कारण उत्पादकता और सिंचाईं से परे है.
सबसे बड़ी बात यह कि पंजाब में खाद्यान्न की खरीद की एक व्यापक और विस्तृत प्रणाली है. एपीएमसी मंडियों और खरीद केंद्रों के साथ पंजाब में फसलों की खरीद के लिए देश भर में सबसे अच्छा बुनियादी ढांचा है.
यहां गांवों को मंडियों से जोड़ने के लिए ग्रामीण सड़कों का विशाल नेटवर्क भी है. किसानों द्वारा मंडियों में लाए गए 98 फीसदी खाद्यान्न तय मूल्य पर खरीद लिए जाते हैं. सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अपने उत्पाद बेचने में किसान सक्षम हैं, जो मौजूदा बाजार कीमत से ज्यादा होता है.
इसके अलावा पंजाब ने हर छोटे एवं सीमांत किसान के अधिकतम दो लाख रुपये का कर्ज माफ करने की घोषणा की है. हालांकि चुनावी वायदा तो हर तरह के कर्ज (सहकारी, निजी एवं राष्ट्रीयकृत बैंकों से लिए कर्ज) माफ करने का था, लेकिन राज्य ने अब तक छोटे और सीमांत किसानों के लगभग 9,000 करोड़ रुपये के कर्ज माफ करने का वायदा किया है. इनमें से अब तक एक हजार करोड़ रुपये का कर्ज माफ भी किया गया है.
कर्ज के आंकड़े
इसके विपरीत महाराष्ट्र में शुरू में 34 लाख करोड़ रुपये का कृषि ऋण माफ करने का अनुमान लगाया गया था, पर अब 14 लाख करोड़ रुपये के कर्ज को माफ करने की योजना बनाई गई है. ऐसे ही उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और राजस्थान में भी वायदे के विपरीत कर्ज के एक छोटे अंश को ही वास्तव में माफ किया जा रहा है.
मुश्किल यह है कि राज्य सरकारों के पास उतने संसाधन नहीं हैं कि वे सभी कृषि ऋण माफ कर सकें. पंजाब में हर किसान की विधवा पर दो से 12 लाख रुपये तक का कर्ज है, जो उसके पति छोड़ गए थे. मैं यह जानकर हैरान रह गया कि बेहतर ग्रामीण बुनियादी ढांचा, सिंचाई और उन्नत प्रौद्योगिकी के बावजूद पंजाब की आर्थिक स्थिति इतनी बदतर कैसे हो गई!
ऐसे में, कृषि सुधारों को समझने, पुनः रणनीति बनाने और उसका सूत्र तैयार करने के लिए पंजाब एक बेहतर केस स्टडी बन सकता है. बयानबाजी से परे सुधारों की रणनीति तैयार करने के लिए भविष्य की ऐसी रूपरेखा बनानी होगी, जहां समाज छोटे और सीमांत किसानों को राष्ट्रीय बोझ न समझे. उन्हें परित्यक्त व्यक्ति के रूप में पेश करने के बजाय यह सुनिश्चित करने की चुनौती होनी चाहिए कि ग्रामीणों को कैसे लाभ हो सकता है और वे आर्थिक विकास का हिस्सा किस तरह बन सकते हैं.
फसलों की कीमत निर्धारित करने की नीति से अब हमें किसानों की आय निर्धारित करने की नीति की तरफ बढ़ना चाहिए. किसानों को निश्चित मासिक आय देने की जरूरत है, जो न केवल विश्व व्यापार संगठन के अनुसार हो, बल्कि उन्हें आर्थिक सुरक्षा भी प्रदान करे.
कृषि लागत एवं मूल्य आयोग यानी सीएसीपी को किसान आय एवं कल्याण आयोग के रूप में परिणत करने की मांग होनी चाहिए, जिसके पास प्रति किसान परिवार को कम से कम 18,000 रुपये प्रति महीने निश्चित आय देने का अधिकार हो. सबका साथ सबका विकास की शुरुआत इसी से होगी.