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कृषि सुधार की ज़रुरत

देविंदर शर्मा
पंजाब में लोगों ने निर्णायक जनादेश दे दिया है, जो दरअसल बदलाव की खातिर दिया गया फैसला है, किंतु यह अपने साथ जो चुनौतियां लेकर आया है वो नई सरकार के लिए बहुत बड़ी हैं. लोगों की अपेक्षाएं अधिक हैं और पंजाब की अर्थव्यवस्था जिस तरह खस्ताहाल है, उसमें साफ़ है कि आगे की राह मुश्किल है. आगे का रास्ता कम से कम परंपरागत कार्यशैली से से तो पूरा होने से रहा.

जिस सामाजिक-आर्थिक संकट के बोझ तले आज पंजाब दबा हुआ है, वो पिछले तीन दशकों के कुशासन का परिणाम अधिक है. इससे उबरने के लिए जो भरोसेमंद रास्ता अपनाना होगा, उसमें सबसे बड़ी भूमिका नई आर्थिक रुपरेखा की होगी.

इसे ध्यान में रखना ज़रुरी है कि नए उद्योगों की स्थापना और व्यापार को विस्तार देने के लिए निवेश की चाह रखने भर से अर्थव्यवस्था में सुधार संभव नहीं है.

जब सब तरफ़ उद्योगों में नई जान फूंकने और उद्योग हित में नीतियां बनाने की जोरदार मांग उठी हुई है, ऐसे में पंजाब को अपनी अर्थव्यवस्था की तरक्की के लिए ‘डंबल इंजन अर्थव्यवस्था’ के सिद्धांत अपनाकर पुनर्संरचना करने की जरूरत है. इसके तहत उद्योगों को पुनर्जीवन देना और ठीक उसी समय कृषि में प्राण फूंकने पर ध्यान केंद्रित करना होगा.

यहां ‘डबल इंजन’ की सरकार का मतलब वह राजनीतिक नारा नहीं है, जिसका अर्थ केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होता है. यह ‘डबल-इंजन’ अर्थव्यवस्था के दो महत्वपूर्ण पहियों-उद्योग और कृषि, दोनों को एक समान गति देने वाला है, ताकि अर्थव्यवस्था की नई किंतु स्थाई नींव बन सके.

जहां पिछले सालों के दौरान आर्थिक सुधारों का ध्यान पूर्वत: उद्योगों पर केंद्रित रहा है, वहीं खेती की अनदेखी ने कृषि संकटों को और बढ़ाया है. इसका जितना असर भारत का अन्न भंडार कहे जाने वाले पंजाब पर हुआ है, उतना और कहीं नहीं हुआ.

प्रति हेक्टेयर 11 टन अनाज उगाने की क्षमता, जो विश्व के उच्चतम उत्पादनों में एक है; इसके बावजूद पिछले सालों में किसानों पर कृषि ऋण बढ़ता गया. इसके अलावा पंजाब का इलाका किसानों द्वारा आत्महत्या के मुख्य स्थान में तब्दील हो गया.

नई दिल्ली की सीमा पर चले किसान आंदोलन का स्पष्ट संदेश है कि किसानों ने आर्थिक नीति में प्रणालीगत बदलाव लाने की जो मांग की है, कहीं वह हालिया विधानसभा चुनाव के शोर-शराबे में खो न जाए.

उद्योगों की एवज में कृषि की बलि देने के बजाय जरूरत है खेती के धंधे में नई जान डालने और इसको अर्थव्यवस्था का दूसरा पहिया समझने की.

केवल कृषि में वह दम है जो अर्थव्यवस्था को पुनः पटरी पर लाए, बशर्ते हम खंडित हुई खाद्य प्रणाली को फिर से जोड़ दें.

एक जीवंत कृषि लोगों को फायदेमंद रोजगार देने की क्षमता रखती है और शहरों में नौकरियां पैदा करने को सरकारों पर जो दबाव रहता है, उसे घटा सकती है.

पंजाब में कृषि-योग्य भूमि का 98.5 फीसदी क्षेत्र निश्चित सिंचाई के अंतर्गत होना व बृहद कृषि विपणन तंत्र, जिसमें गांवों तक संपर्क मार्ग शामिल हैं, ग्रामीण रूपांतरण के लिए यह मजबूत नींव पहले से मौजूद है.

आम आदमी पार्टी की सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा में सुधार लाने की ओर पहलकदमी कर दी है, इस सूची में खेती को शामिल करने और इसको गैर-कृषि गतिविधियों से जोड़ने पर यह काम अर्थव्यवस्था को गति में उत्प्रेरक खुराक की तरह बन जाएगा.

शुरुआत के लिए, सघन कृषि से पर्यावरण पर पड़ा बहुत बड़ा असर, जैसे कि मिट्टी के स्वास्थ्य में गिरावट, भूमिगत जलह्रास, पराली जलाने पर प्रदूषण और जीवनशैली जनित बीमारियां शामिल हैं, इनसे निजात पाने के लिए पंजाब को ‘सदाबहार क्रांति’ की ओर बढ़ने की जरूरत है.

खेती में बड़े बदलाव की ज़रुरत
खेती में बड़े बदलाव की ज़रुरत

अवश्य ही ताकतवर लॉबियां दिग्भ्रमित करने वाले तमाम प्रलंयकारी नुस्खे नई सरकार को भी सुझाएंगी किंतु तगड़ी राजनीतिक इच्छाशक्ति द्वारा उनको दरकिनार करके पंजाब को ‘सदाबहार क्रांति’ का ध्वजवाहक बनाया जा सकता है. इसके लिए अनुसंधान और शिक्षा पाठ्यक्रमों में यथेष्ट बदलाव लाने की जरूरत पड़ेगी और साथ ही कृषि संबंधी विस्तारित गतिविधियों की पुर्नसंरचना करने की भी.

इसमें पर्यावरणीय सेवा दृष्टिकोण का समावेश भी हो, यह वह सिद्धांत है, जो प्राकृतिक स्रोत बचाने वाले किसानों को अतिरिक्त प्रोत्साहन आय प्रदान करता है.

संयुक्त राष्ट्र खाद्य व्यवस्था शिखर सम्मेलन 2021 के वैज्ञानिक समूह के मुताबिक, खाद्यान्न उगाने की असली कीमत उपभोक्ता द्वारा अदा किए जाने वाले मूल्य से लगभग तीन गुणा ज्यादा है. इसके हानिकारक असर को समझे बगैर ज्यादातर समाज को इसकी असली कीमत पर्यावरणीय और स्वास्थ्य के नुकसान के रूप में चुकानी पड़ती है. अन्न पैदा करने के एवज में पर्यावरणीय ह्रास, खासकर पंजाब जैसे क्षेत्र में, जो फसल पैदा करने के लिए रसायनों पर काफी निर्भर है; इसको घटाना होगा.

फसल विविधता को लेकर किसानों से गेहूं-चावल चक्र से परे हटने की उम्मीद की जाती है, विकल्प में जो फसलें सुझाई जाती हैं उनका न्यूनतम खरीद मूल्य न होना और मददगार विपणन तंत्र का अभाव अड़चन है.

केरल के उदाहरण से सीख ली जा सकती है, जहां राज्य सरकार ने उत्पादक को लागत पर 20 प्रतिशत लाभ देने हेतु 16 सब्जियों एवं फलों के लिए न्यूनतम क्रय मूल्य का भरोसा दिया है, इससे नीचे कीमत गिरने पर सरकार दखल देकर भरपाई करती है, यह समीकरण पंजाब में भी लागू किया जाना चाहिए. इस मद में पंजाब को शुरुआत में 250 करोड़ का इंतजाम करना होगा. इसके अलावा, दिल्ली में मदर डेयरी के विशाल दूध नेटवर्क की तर्ज पर पंजाब भी अपने खुदरा सब्जी विक्रेता केंद्र बना सकता है. इसी तरह तिलहन, दलहन, मोटा अनाज़ और तेल-बीजों के लिए भी योजना बन सकती है.

कृषि सुधार तब तक व्यवहार्य नहीं होगा जब तक कि पंजाब पहले ‘किसान-आय एवं भलाई आयोग’ की स्थापना न करे, जिसके अधिकार क्षेत्र में एक शक्ति खेती से न्यूनतम मासिक आय सुनिश्चित करने की हो और यह 25000 रुपये मासिक से कम न हो. यदि कृषि को आर्थिक रूप से व्यावहारिक और टिकाऊ बनाना है, तो ऐसी कोई वजह नहीं लगती कि पंजाब ‘डबल इंजन’ आर्थिक दृष्टिकोण अपनाकर नई आर्थिक क्रांति का अग्रदूत न बन पाए.

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