प्रसंगवश

‘पब्लिक’ सब जानती है!

नई दिल्ली | एजेंसी: क्या हम अनजाने ही एकाधिकारवादी सरकार की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं? तभी लगता है कि नहीं, अगर ऐसा होता तो हंगामा नहीं होता. यकीनन सवाल हर आम भारतीय के मन में उठता तो होगा, इस पर बहस न हो ये अलग बात है.

कांग्रेस ने संसद सत्र के पहले जो कहा था कर दिखाया, लगभग आधा सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया, यही स्थिति रही तो पूरा भी चढ़ जाए तो भी हैरानी नहीं होगी. नया कुछ नहीं है, पहले भी होता था, कब तक होता रहेगा, यह सोचना है.

तटस्थ होकर चिंतन करें तो यूपीए और एनडीए सरकारों की संसदीय तस्वीरें कोई खास अलग नहीं दिखतीं. चिंता बस इतनी कि क्या लोकतंत्र की सेहत या फिर उन करोड़ों मतदाताओं में सुकून होगा, जिन्होंने बहुत ही उम्मीदों के साथ बदलाव का आगाज किया था और नरेंद्र मोदी सह भाजपा के हाथों में कमान सौंपी थी?

जहां लोकतंत्र अपने ही मंदिर में झुलस रहा है, वहीं इसके पुजारी और भक्त अपने स्वार्थो का प्रसाद बना रहे हैं. बहुत ही दुखद है, खेदपूर्ण है और चिंताजनक है संसद की मौजूदा दशा और दिशा. इसका निदान भी दिखता नहीं. सभी जगह अड़ियल रवैया, बातचीत को कोई तैयार नहीं.

संसद में गतिरोध से जनता के खून और पसीने की गाढ़ी कमाई भी चुक रही है. हर मिनट संसद की कार्यवाही पर ढाई लाख रुपये खर्च होते हैं. बोझ तो आखिर वही आवाम भुगतेगी जिसके अन्नदाता को भी इन्हीं माननीयों ने नहीं बख्शा और बेतुकी फब्तियां कसने से गुरेज तक नहीं की.

कोई किसान की आत्महत्या को आशिकी बताता है तो कोई बीमारी. कोई आत्महत्या की वजह मादक पदार्थों की लत, बेरोजगारी, संपत्ति विवाद, दिवालियापन बताता है. यहां तक कि किसान की आत्महत्या को बांझपन, नपुंसकता, दहेज प्रताड़ना से भी जोड़ा जा चुका है.

संसद में गतिरोध नया नहीं है. साल 2005 में यूपीए सरकार के तत्कालीन विदेश मंत्री नटवर सिंह का इराकी तेल बिक्री से फायदा लेने वालों की सूची में नाम क्या आया, सुषमा स्वराज ने कहा था कि बिना उनके पद छोड़े जांच कैसे हो पाएगी?

आईपीएल फ्रें चाइजी विवाद में शशि थरूर को पद से हाथ धोना पड़ा था. ए. राजा और कनिमोझी का मामला भी सबके सामने है. इस विवाद पर मचे बवाल में भी संसद 23 दिन तक बाधित रही और जनता के 146 करोड़ रुपयों का खून बिना कार्यवाही हुए हो गया था.

कोल ब्लॉक आवंटन प्रकरण में भी कमोवेश वही स्थिति तब बनती दिखी थी. विपक्ष की तबकी नेता सुषमा स्वराज ने उन दिनों सरकार पर जोरदार हमला किया था और गतिरोध इस कदर बना रहा कि साल 2012 में 20 दिन के मानसून सत्र में 13 दिन कार्यवाही बाधित रही.

लोकसभा में 1950 के दशक में सालभर में जहां औसतन 127 दिन काम होता था, वहीं घटकर अब 70 दिन तक चला गया. सन् 2001 में पीठासीन पदाधिकारियों, मुख्यमंत्रियों, संसदीय कार्य मंत्रियों और राजनैतिक दलों के नेताओं व सचेतकों के अखिल भारतीय सम्मेलन में हर वर्ष संसद की कम से कम 110 बैठकें सुनिश्चित करने का आह्वान किया गया था. उसका भी कोई असर न पहले हुआ न अब दिखा.

आरोप-प्रत्यारोपों के बीच यह जुमला भी ठीक नहीं कि तब भाजपा भी ऐसा ही करती थी. इसका मतलब यह नहीं कि सबका मकसद यही हो. हां, मुद्दों पर बहस होनी चाहिए, निर्णय होने चाहिए, कानून बनने चाहिए, लेकिन देश में लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर, जिसका सीधा प्रसारण होता है, वह नहीं दिखना चाहिए जिसको देखकर देश का विद्यार्थी ऐसे लोकतांत्रिक क्रियाकलापों की दीक्षा ले.

अगर 11 राज्यों के 111 सांसद यह कहते हैं कि ‘काम नहीं तो वेतन नहीं’ का फॉर्मूला यहां भी लागू हो तो क्या बुरा है? लेकिन इससे संदेश जरूर उलटा जाता है कि क्या सांसद पगार की खातिर संसद जाते हैं? क्या देश सेवा, लोकसेवा, जनसेवा महज दिखावा है, छलावा है?

कुछ भी हो, हंगामों की भेंट चढ़ते संसद सत्र न पहले कभी अच्छे लगते थे, न अब लगते हैं और न आगे लगेंगे. ऐसे में आखिरी सवाल बस इतना कि क्या नैतिकता के नाम पर हम भले या वह भले की बात या फिर जग भले की वह बात हो जो सच में भली है.

सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह व्यक्ति हैं, संस्था नहीं. चूक अनजाने हुई या जानबूझकर, ये बाद का विषय है. अव्वल तो राजधर्म है. जरूरी है कि सत्तापक्ष राजधर्म निभाए, वरना ये पब्लिक है, सब जानती है..!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!