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रोजगार तो यह भी है, लेकिन…

सुनील कुमार
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश की जनता के बीच अच्छे दिन लाने और आने का वायदा करते हुए इस कुर्सी तक पहुंचने का रास्ता साफ किया था. इसके बाद कुछ अरसा गुजरा और उनके एक बड़े सहयोगी ने यह साफ कर दिया कि देश के लोगों की मोदी से उम्मीदें एक जुमले पर टिकी हैं, और यह जायज नहीं है. उन्होंने कहा कि मोदी की वह बात महज एक जुमला थी, हकीकत बदलने का वायदा नहीं. तब से अब तक मोदी के अनगिनत साथी देश के लोगों को अच्छे दिनों से और अधिक दूर ले जाने का काम करने में लगे हुए हैं. और अब सवाल यह उठता है कि पंजाब नेशनल बैंक के इस ताजा घोटाले के बाद अच्छे दिन आए किसके हैं?

चुनाव के दौरान बहुत से नारे लगते हैं जिनका हकीकत से अधिक लेना-देना नहीं रहता, लेकिन इन नारों को भुला देना तो ठीक है, लोगों से यह उम्मीद रखना कि वे भी चुनावी वायदों को भूल जाएं, यह भी जायज है क्योंकि हिन्दुस्तानी लोकतंत्र कुछ इसी किस्म का फरेबी-चुनावी लोकतंत्र है. लेकिन लोगों को कोंच-कोंचकर यह एहसास कराना कि वे अच्छे दिनों को भूल जाएं क्योंकि अच्छे दिन महज गिने-चुने पसंदीदा लोगों के लिए आए हैं, आ रहे हैं, और कायम रहेंगे, यह कोंचना कुछ ज्यादती है. लोकतंत्र ऐसी ज्यादती के खिलाफ कोई कानून तो नहीं सुझाता है, लेकिन जनता के मन में ऐसा कोंचना छाप जरूर छोड़ जाता है, और वह छाप आसानी से मिटती नहीं है.

अच्छे दिनों की बात लोग धीरे-धीरे भूलने लगते, अगर खुद नरेन्द्र मोदी खुद होकर यह नहीं कहते कि पकौड़ा बेचना भी एक रोजगार है. इस बात में गलत कुछ भी नहीं है कि यह न सिर्फ एक रोजगार है, बल्कि एक मुनाफे का रोजगार भी है, और इसमें किसी पशु-पक्षी की जिंदगी भी नहीं ली जाती, शराब या तम्बाखू जैसा कोई नुकसानदेह सामान भी नहीं बेचा जाता, और लोगों को खाने को कुछ अच्छा बेचकर भी अपने घर-परिवार के लिए खाना जुटाया जा सकता है. लेकिन मोदी के राजपथ और उनके जनपथ के किनारे बैठकर अच्छे दिनों के आने की राह तकते थके हुए लोगों के लिए यह बात कुछ चुभने वाली थी, और लोग इससे आहत हुए.

पकौड़ा बेचना एक रोजगार तो है, लेकिन रोजगार तो देश में बहुत किस्म के हैं. नाली और गटर साफ करते हुए उसके भीतर तकरीबन हर कुछ दिनों में दम तोडऩे वाले लोगों का रोजगार भी रोजगार है, और ऐसे सफाईकर्मी उन्हीं नाली और गटर के भीतर से मानो अपने घर-परिवार के लिए रोटी निकालकर लाते हैं. अब कल के दिन कोई कहे कि नाली साफ करना भी रोजगार है, तो उसमें जाहिर तौर पर तो कुछ गलत नहीं है, लेकिन अच्छे दिनों के सपने दिखाकर वोट हासिल करने वालों से नाली साफ करके कुछ नोट हासिल करने को लोग अच्छे दिन शायद न भी गिनें.

लेकिन बात मानो मोदी की इस नई बात पर खत्म करना उनके आसपास के लोगों को ठीक नहीं लगा, तो फिर लोगों ने उसे एक नए जुमले की तरह आगे बढ़ाना शुरू किया, बिना यह कहे या माने हुए कि यह एक और जुमला है, असल नीयत से कही बात नहीं है. देश भर में मोदी के लोगों ने जगह-जगह पकौड़े बेचने की बात को आगे बढ़ाया, जो कि मोदी को तो खुश कर सकती है, लेकिन इन लोगों ने यह नहीं सोचा है कि क्या अच्छे दिनों की उम्मीद में बैठी जनता को भी अपनी औलाद को पकौड़े बेचने वाला बनाना अच्छा लगेगा?

हमको पकौड़े बेचने का काम अच्छा लगता है, इज्जत का लगता है, लेकिन जहां तक जनता का नजरिया है तो हिन्दुस्तान में मेहनत करके रोजी-रोटी कमाने को इज्जत का काम नहीं माना जाता. हमारे सरीखे गैरजुमलेबाज लोग तो लोगों को सुझा सकते हैं कि रिश्वत देकर सरकारी नौकरी पाने के बजाय चाय-पकौड़े बेचकर अपनी मर्जी के मालिक रहना बेहतर है, लेकिन जो लोग चुनावी-राजनीति में हैं, उनको जनधारणा और जनभावना को तौले बिना महज जुमलेबाजी नहीं करना चाहिए.

फिर मोदी को खुश करने पर उतारू उनके लोगों ने बात को आगे बढ़ाया, और यह साबित करने की कोशिश की कि पकौड़े बेचने से और नीचे का काम भी अच्छे दिनों में ही गिनाएगा. भाजपा से जुड़े हिन्दू संगठन आरएसएस के एक बड़े नेता इन्द्रेश कुमार ने कहा पकौड़े तलना देश के पन्द्रह करोड़ से ज्यादा लोगों का व्यवसाय है, और भीख मांगना भी देश के बीस करोड़ लोगों का रोजगार है. यह छोटा काम नहीं है. उन्होंने वैसे तो पकौड़े तलने को हीन काम न मानने की वकालत करते हुए यह बात कही लेकिन अगर इस देश की पन्द्रह फीसदी से अधिक आबादी भीख मांगकर जिंदा है, तो यह किस तरह के अच्छे दिन कहे जाएंगे?

लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान में जगह-जगह बड़े-बड़े नेता बलात्कार को लेकर लोगों के जख्मों पर नमक-मिर्च छिड़कने जैसे काम करते हैं, बयान देते हैं, और अब अच्छे दिनों को लेकर, पकौड़े बेचने को लेकर बात को भीख मांगने तक पहुंचा दिया गया है. लोकतंत्र इतना लचीला रहता है कि वह लोगों को अलग-अलग किस्म की सोच को सामने रखने का मौका देता है, आजादी देता है. लेकिन जो लोग किसी पार्टी, संगठन, या विचारधारा से जुड़े रहते हैं, उनका मुंह खोलना उनके संगठन या उनकी विचारधारा को भी बताता है. ऐसे में लोगों के मुंह से अगर नमक-मिर्च ही झरना तय है, तो फिर वे मुंह बंद क्यों नहीं रख सकते?

लोकतंत्र में जनता किसी एक सरकार, पार्टी, और नेता के बारे में अपनी सोच पांच बरस में एक बार ही जाहिर कर पाती है, इसके पहले, इसके बीच में होने वाले चुनावों में किसी दूसरी सरकार, और किन्हीं दूसरे उम्मीदवारों को वोट देने की नौबत आ सकती है, लेकिन उसकी तुलना पिछले चुनाव से नहीं की जा सकती. ऐसे में लोग अगर उन्हें कुर्सी तक पहुंचाने वाली जनता के सब्र को इतना अधिक नहीं आजमाना चाहिए कि वह टूट ही जाए. एक कानूनी बहस और नुक्ताचीनी की शक्ल में जुमलेबाज यह भी सही ठहरा सकते हैं कि पखाना साफ करना भी रोजगार है. लेकिन ऐसी बातों से लोगों को बार-बार कोंच-कोंचकर यह याद दिलाना समझदारी नहीं है कि उन्होंने पिछला वोट जुमलों के झांसे में दिया था, और इसलिए अब कुर्सी पर बैठे लोगों को यह हक मिल जाता है कि वे पांच बरस तक लोगों को उन तमाम किस्मों के रोजगार सुझाएं जो कि जनता की नजरों में इक्कीसवीं सदी के अच्छे दिन में नहीं गिनाते.

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