झूम खेती की हकीकत
देविंदर शर्मा
घुमंतू कृषि या झूम खेती को पुरातन और पर्यावरण के लिए घातक माना जाता है. मूलतः खेती की इस विधा में जंगली पेड़ों या झाड़-झंखाड़ की छंटाई-कटाई के बाद आग लगाकर बुवाई के लिए जमीन तैयार की जाती है और यह तरीका आज भी देश के पूर्वोत्तर इलाके में चलन में है. यूं तो झूम खेती देश के पहाड़ी अंचलों में होती आई है लेकिन लगभग 90 फीसदी चलन इन दिनों पूर्वोत्तर के इलाके में ही है.
अपनी युवावस्था में, बतौर एक पत्रकार, मैंने भी झूम खेती से पर्यावरण को नुकसान के बारे में बहुत लिखा था.
अधिकांश अनुसंधान अध्ययनों के अलावा नामी कृषि विज्ञानी भी बारम्बार इससे होने वाले नुकसान के बारे में आवाज़ उठाते रहे हैं और इसको अवैज्ञानिक एवं पुरातन कृषि ढंग बताते हैं.
पर उत्तर-पूर्वी जनजातियां इन नुकसानों के बारे में बताए जाने के बावजूद क्यों इस प्रथा को जारी रखे हुए हैं, यह जानने को मैं सदा उत्सुक था. इसका पता तो स्वयं वहां जाकर ही चलना था कि क्यों तमाम चेतावनियों और ताड़नाओं के बावजूद स्थानीय लोगों को झूम खेती न केवल आर्थिक रूप से व्यवहार्य बल्कि पर्यावरण के पुनर्निर्माण में भी सहायक लगती है.
आखिरकार, कोशिश करके मैं खोनोमा गांव जा पहुंचा, यह नगालैंड की राजधानी कोहिमा से 20 किमी. दूर है. विरोधाभास यह कि जिस गांव में झूम खेती देखने पहुंचा, कुछ साल पहले उसकी तारीफ मुख्यमंत्री ने ‘एशिया का सबसे हरा-भरा गांव’ होने को लेकर की थी.
करीबन 123 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल वाले इस गांव के पास इस बारे दिखाने को बहुत कुछ है कि पर्यावरण संरक्षण, प्राकृतिक स्रोत का बचाव एवं संवर्धन, वन्य-जीवों का शिकार सीमित करना और गांव को साफ-सुथरा रखने की खातिर क्या-क्या उपाय अपनाए गए हैं.
जिस जगह पर झूम खेती चल रही थी वहां जाकर देखने पर पाया कि एक पहाड़ी की ढलान पर उगी हरियाली और आल्डर नामक पेड़ों को काटा गया था, यह कटाई जमीन से लगभग 5-6 फीट ऊपर की जाती है और तने फिर भी बचे खड़े रहते हैं.
पेड़ों की टहनियों को सलीके से काटकर, जगह-जगह इकट्ठा करके ढेर लगाए जाते हैं, जिन्हें आगे भण्डारण के लिए घरों में ले जाया जाता है, पत्तियों और छोटी टहनियों के ढेरों को ढलान पर जगह-जगह रखकर आग लगा दी जाती है. यूं वनस्पति से सफाचट मिली ढलानों पर, सीढ़ीदार खेत बनाकर कई किस्मों की फसलों की बुवाई होती है. जब मैं वहां पहुंचा तो बीजों से नई कोपलें अभी फूटी ही थीं.
मैंने ‘काटो-आग लगाओ कृषि’ (झूम खेती) को किसी भी लिहाज से अविज्ञानी या पर्यावरणीय के हिसाब से विध्वंसक नहीं पाया. उदाहरणार्थ, आल्डर पेड़ों को एकदम जमीनी सतह से काटने की बजाय इतनी ऊंचाई छोड़कर काटा जाता है कि उगने वाली नई पत्तियों-टहनियों तक पशुओं की पहुंच न हो सके.
इसके अलावा किसानों को पता है कि फलीदार होने की वजह से आल्डर पेड़ बहुत कीमती हैं. चूंकि यह पेड़ वातावरण से नाइट्रोजन खींचकर जमीन तक पहुंचाते हैं इसलिए मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं. तभी इन पेड़ों को सावधानीपूर्वक बचाया जाता है.
कृषकों ने मुझे बताया कि सूखी पत्तियां और जंगली बूटियां जलाने पर नुकसानदायक कीटों के अंडे-प्यूपा इत्यादि और अन्य सूक्ष्म-जैविक अवयवों से छुटकारा मिलने से मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार आता है. अगले दो साल तक, विभिन्न किस्म की फसलें इन ढलानों पर उगाई जाएंगी, तदुपरांत, इस झूम को छोड़कर किसी अन्य वन्य ढलान पर यह सब दोहराया जाएगा.
कानून इन लोगों को अपने आसपास की वन्य भूमि से पेड़ काटने की इज़ाजत देता है, पर केवल उस सूरत में, जब पेड़ बढ़ती फसल को सूर्य की रोशनी पाने में रुकावट पैदा करे. यह पूछने पर कि जो फसलें वे उगाते हैं उससे उनके परिवार का खर्चा चल जाता है, तो जिस किसी किसान से मैं मिला, सभी ने एक राय से ‘हां’ कहा.
वे कहते हैं ‘एक तो हमें जलाने के लिए लकड़ी मिल जाती है, फिर चूंकि हम जैविक खेती करते हैं, हमारे परिवार के लिए पर्याप्त मात्रा में स्वास्थ्यवर्धक भोजन मिल जाता है.’
एक अन्य कृषक ने कहा ‘विभिन्न फसलें होने से हमारे पास जो फालतू अन्न होता है उसे हम स्थानीय मंडी में बेच सकते हैं.’
मजेदार बात यह कि संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन ने अपने एक अध्ययन (एफएओ मृदा बुलेटिन नं. 53) में पाया है कि कृषि का रिवायती तरीका पर्यावरणीय संतुलन बनाने से मेल खाता है. इसमें कहा गया है कि झूम खेती से मिट्टी के गुणों को स्थाई रूप से नुकसान नहीं पहुंचता बशर्ते पुनर्निर्माण के लिए छोड़ा अंतराल काफी हो.
मेरी अपनी समझ में, भूमि प्रबंधन सुनिश्चित करना कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है, जिसके तहत पेड़, मिट्टी और जैव-विविधता का ख्याल रखना है. यदि यह तीन शर्तें पूरी होती हों तो जैसा कि अनेक सिविल सोसायटी के वरिष्ठों का भी मानना है, झूम खेती में कुछ गलत नहीं है.
वहीं दूसरी तरफ, अनेकानेक अन्य अध्ययन बताते हैं कि बढ़ती जनसंख्या के दबाव के कारण, एक भूखंड पर दो झूमों के बीच रखे जाने वाला अंतराल घटता जा रहा है. आदर्श स्थिति में यह समय, मिट्टी की पुनर्निर्माण क्षमता के हिसाब से 10 से 20 साल के बीच होना चाहिए.
खोनोमा गांव के किसानों ने मुझे बताया कि मौजूदा अंतराल 7-10 बरस के बीच है. हालांकि इसमें कोई शक नहीं कि पहले यह 14-17 वर्ष हुआ करता था. मिट्टी की घटती उर्वरता शक्ति, मिट्टी की परत का बढ़ता क्षरण, कम पड़ती कृषि भूमि को लेकर वैज्ञानिक बहुत आलोचनात्मक रुख रखते हैं इसलिए कृषि के तौर-तरीकों को टिकाऊ सघनता वाली खेती से बदलने की बात कहते हैं.
दरअसल, यहां जो एक बिंदु भूल रहे हैं वह है बाजार-नीत सघन कृषि-व्यवस्था, जिसमें कुछ फसलें बारी-बारी उगाई जाती हैं, इसने न केवल मिट्टी की उर्वरता में ह्रास को तेज किया, भूमिगत जल खींचकर खत्म कर डाला बल्कि ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में भी इजाफा किया है.
यदि औपचारिक कृषि अनुसंधान और शिक्षा व्यवस्था दुनिया को इस किस्म के विध्वंस की ओर ले जा रही है, तब रिवायती समाज की झूम जैसी खेती से सीखकर मौजूदा कृषि व्यवस्था में सुधार लाना ज्यादा समझदारी है.
यह मुख्यतः इसलिए भी, क्योंकि वैज्ञानिक बिरादरी की प्रतिक्रियावादी सोच, विकल्पों की तलाश में मायूसी हाथ लगना, यहां तक कि व्यवहार्य विकल्पों की तलाश में भी सीमित सफलता ही मिल पाना (बकौल, ‘मिट्टी एवं पर्यावरण महाकोष 2005’). अन्य शब्दों में, किसानों को जिस पर यकीन होता है और जिसे वह ठीक समझते हैं, वही करते हैं.
लेकिन मंडियां भी झूम खेती को लेकर खुश नहीं हैं क्योंकि दुनिया भर के पहाड़ी इलाकों में प्रचलित खेती का यह ढंग उनकी तय की गई मूल्य शृंखला के दायरे से बाहर जो बना हुआ है. आसान शब्दों में, ‘काटो-जलाओ कृषि’ व्यवस्था एक तरह से राजनीति में फंसी हुई है.
फिलहाल, विश्व खाद्य पुरस्कार विजेता प्रोफेसर रत्न लाल द्वारा कुछ समय पहले सुझाए बिंदुओं की पुष्टि करें. उनका सुझाव है कि किसानों को मिलने वाले पैसे में कार्बन फुटप्रिंट में कमी लाने और अन्य पर्यावरण मित्र सेवाओं का मुआवजा जोड़ा जाना चाहिए. इससे सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन सेवाएं और नीतियां बनने को उत्साह और बढ़ावा मिलेगा.
यह स्थिति सबकी जीत वाली होगी, इससे भूमि की उर्वरता बढ़ेगी और इससे भी आगे, पर्यावरण की रक्षा होगी. लेकिन यह तभी संभव है, जब टिकाऊ सघनता के नाम पर, नीति-निर्माता मजबूर किसानों के गले से रासायनिक खाद और कीटनाशक उतारने वाले काम न करें.