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छत्तीसगढ़ मीडियाकर्मी सुरक्षा विधेयक : गोदी मीडिया को संरक्षण

शालिनी गेरा
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन

पिछले महीने ‘छत्तीसगढ़ मीडियाकर्मी सुरक्षा विधेयक, 2023’ धूमधाम और आत्म-अभिनंदन के जोरदार संदेशों के बीच विधान सभा द्वारा पारित हुआ, और अभी यह राज्यपाल के हस्ताक्षर के इंतज़ार में है. मीडियाकर्मियों की सुरक्षा के नाम पर पारित इस विधेयक को इस तरह प्रस्तुत किया गया, जैसे अब राज्य के सारे मीडियाकर्मी बिना किसी दबाव, प्रलोभन या भय के काम कर पाएंगे, उनकी पत्रकारिता की सारी मुश्किलें आसान हो गई हैं और राज्य में एक स्वतंत्र मीडिया का माहौल तैयार करने की दिशा में सबसे बड़ा क़दम उठा दिया गया है.

लेकिन क्या सच में ऐसा है? सही माइने में, यह एक निराशाजनक और निरर्थक कानून है. जिस प्रगतिशील मसौदे का सन् 2020 में जस्टिस आफताब आलम कमिटी ने प्रस्ताव किया था, मानो जैसे उसकी आत्मा को ख़त्म कर, इस हाथ-पैर से असक्त और अप्रभावी कानून को हमारे सामने पेश किया गया है, जो पत्रकारों को तानाशाही शासन से बचाने के बजाय, उन्हें सत्ताधारी सरकार पर और भी निर्भर बनाने का काम करेगा.

याद कीजिये कि 2015 में, पत्रकारों पर बढ़ते हमलों के बीच, विशेष रूप से बस्तर के हालातों को देखकर जहाँ एक साल में चार पत्रकारों को गिरफ्तार कर लिया गया था, राज्य भर के पत्रकारों ने एक आंदोलन शुरू किया था, और पत्रकार सुरक्षा कानून की मांग उठाई थी.

वर्ष 2018 में यह माँग कांग्रेस पार्टी के चुनावी वादे में तब्दील हो गई. सत्ता में आने के तुरंत बाद, कांग्रेस सरकार ने इस विधेयक की तैयारी के लिये एक मसौदा समिति का गठन किया, जिसकी अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति आफताब आलम ने की, और इस समिति में बिहार उच्च न्यायालय की सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति अंजना प्रकाश समेत सुप्रीम कोर्ट के कई प्रसिद्ध वकील बतौर सदस्य शामिल थे.

2020 में कानूनी दिग्गजों की इस टीम द्वारा तैयार किया गया मसौदा बिल प्रत्येक रूप से पूर्ण था, इसे नई सोच के साथ ध्यान से बनाया गया था, यह साहसी और विचारशील था. ऊपर से इस मसौदे को सार्वजनिक रूप से वितरित कर, पत्रकारों, नागरिक समाज और आम जनता के साथ इस पर विस्तार से चर्चा करना, उनकी टिप्पणियां जानना, और फिर उनमें से कुछ को दूसरे और अंतिम मसौदे में शामिल करना– यह प्रक्रिया अपने आप में एक समावेशी और पारदर्शी कानून बनाने का बेहतर उदाहरण थी.

यही कारण है कि जब विधानसभा में सरकार द्वारा पारित छत्तीसगढ़ मीडियाकर्मी सुरक्षा विधेयक, 2023 को देखने पर निराशा होती है. जस्टिस आफताब आलम कमिटि ने लगभग तीन साल पहले ही न केवल अपना दूसरा और अंतिम मसौदा, बल्कि उसके साथ के सारे नियम और प्रपत्र भी सार्वजनिक कर दिये थे. इस तीन सालों की पूरी अवधि में सरकार इस विषय पर मौन धारण किये बैठी रही. यकायक पिछले महीने, एक नये चुनाव की तैयारी में, सरकार ने इसका अंतिम विधेयक पेश किया, जो कमिटि द्वारा प्रस्तावित मसौदे से बिल्कुल अलग था, और फिर बिजली की रफ्तार से इसे मंत्रीमंडल और विधानसभा से पारित भी कर लिया गया.

यह अंतिम विधेयक, स्पष्ट रूप से, एक कपटपूर्ण कृत्य है, और ऐसा प्रतीत होता है कि किसी ने समिति द्वारा प्रस्तावित मसौदे पर कुल्हाड़ी से वार कर, सारे सार्थक और प्रगतिशील भागों को अलग कर दिया हो. जो बचा हुआ कानून है, वह निसक्त, निरर्थक, असंगत और निष्प्रभावी है.

विधेयक में है क्या

छत्तीसगढ़ के पत्रकारों की मांग हमेशा एक ऐसे कानून की थी, जो दो मुख्य उद्देश्यों को पूरा कर सके -एक, कोई ऐसी कानूनी तंत्र खड़ा करे जिसके बल पर मीडियाकर्मी खुद को, या अपने सहयोगियों को खतरने में डाले बिना भी संवेदनशील मुद्दों की पत्रकारिता कर सकें; और दो, मीडियाकर्मियों के पंजीकरण का ऐसा तरीका कायम करें, जिससे दूर-दराज के मीडियाकर्मी भी प्रतिकूल परिस्थितियों में अपना मीडिया संबंधित परिचय देने में सक्षम हों.

विधानसभा द्वारा पारित छत्तीसगढ़ मीडियाकर्मी सुरक्षा विधेयक, 2023 इन दोनों उद्देश्यों को नाममात्र पूरा करता है- यह सरकार द्वारा बनाए गए एक रजिस्टर में पांच अलग-अलग प्रकार के मीडियाकर्मियों के पंजीकरण का प्रावधान करता है, और एक ऐसी समिति का भी गठन करता है जो पंजीकृत मीडियाकर्मियों और उनके सहयोगियों को सुरक्षित करने के लिये ज़िम्मेदार है. हालाँकि, अगर इसकी धाराओं को करीबी से पढ़ा जाये, तो यह जानना कठिन नहीं है कि यह विधेयक केवल आंखों में धूल झोंकने का काम कर रहा है.

1. किसे पंजीकृत किया जा रहा है?

जहाँ समिति द्वारा तैयार किये गये मसैदे का मकसद केवल मीडियाकर्मियों को पंजीकृत करना था, वहीं विधानसभा द्वारा पारित बिल ‘संचार मीडिया’ (mass media) और मीडिया संस्थानों (‘मीडिया स्थापन’) के पंजीकरण की भी बात करता है. इस बिल में ‘संचार मीडिया’ और ‘मीडिया स्थापन’ को इस प्रकार से परिभाषित किया गया है, कि केवल वही संचार मीडिया और मीडिया संस्थान इस बिल की पारिधि में आते हैं जिन्हें किसी प्रकार का सरकारी पंजीकरण प्राप्त हो. परिणामस्वरूप, इस विधेयक के अंतर्गत केवल वही मीडियाकर्मी पंजीकृत (और संरक्षित) हो पायेंगे, जो किसी पंजीकृत संचार मीडिया या मीडिया संस्थान में काम करते हों, या उनके द्वारा प्रकाशित किए जाते हों, या उनके द्वारा भुगतान प्राप्त किये गये हों.

परिभाषा खंड (धारा 2) के अलावा मीडिया संस्थानों और मास मीडिया के पंजीकरण की बात पूरे बिल में और कहीं नहीं है – कहीं स्पष्ट नहीं किया गया है कि इनका पंजीकरण कौन करेगा, इसके मानदंड क्या होंगे और इसे कैसे किया जाना है. अगर उस मीडियाकर्मी की नज़र से देखें जिसे सुरक्षा की आवश्यकता है, तो यह एक अतिरिक्त बोझ पैदा करता है- न केवल आपको अपना पंजीकरण कराना होगा, बल्कि आपको उस मीडिया संस्थान के पंजीकरण की चिंता भी करनी होगी जहाँ आप काम करते हैं, या जहाँ आपके लेख छपते हैं!

विधानसभा में पारित विधेयक में मीडियाकर्मियों की पांच श्रेणियाँ परिभाषित हैं, जो इसके तहत पंजीकृत हो सकते हैं– समाचारों के लेखक, समाचारों का संकलन करने वाले, फोटोग्राफ उतारने वाले, सरकार से अधिमान्यता प्राप्त पत्रकार, या मीडिया संस्थान द्वारा मीडिया कर्मचारी के रूप में प्रमाणित मीडियाकर्मी. लेकिन मीडियाकर्मियों के सबसे कमजोर हिस्सा तो इन श्रेणियों से छूट रहा है- “समाचार संकलनकर्ताओं” का, यानी सभी स्ट्रिंगर्स, एजेंट और अन्य व्यक्ति, जो स्थानीय समाचारों को संग्रह कर अन्य मीडियाकर्मियों को अग्रेषित करते हैं.

ये वो लोग हैं, जो मीडियाकर्मियों के अनुक्रम में सबसे निचले स्तर पर हैं और समाचारों के संग्रहण में सबसे आगे रहते हैं; जिनके पास किसी भी मीडिया प्रतिष्ठान की नियमित नौकरी नहीं है, लेकिन अधिकांश पत्रकार इन्हीं पर ब्रेकिंग न्यूज के लिए भरोसा करते हैं, विशेषकर उन क्षेत्रों से जो दुर्गम, दूरस्थ हो या जहाँ लड़ाई छिड़ी हो.

जिस लापरवाही से यह अंतिम विधेयक तैयार हुआ है उसका एक उदाहरण यह है, कि इसके परिभाषात्मक खंड में ड्राफ्ट बिल से “समाचार संकलनकर्ता” की परिभाषा तो ली गई है, लेकिन बाकी पूरे कानून में और कहीं इन शब्दों का उल्लेख नहीं किया गया है- न तो पंजीकरण संबंधित धाराओं में, और न ही सुरक्षा संबंधित धाराओं में.

अगर इस विधेयक के तहत पंजीकृत 5 प्रकार के मीडियाकर्मियों को देखें, तो पहली तीन श्रेणियां – लेखक, संकलक और फोटोग्राफर तभी पंजीकरण के पात्र हैं, जब वे पंजीकृत मीडिया संस्थानों में निर्धारित रूप से प्रकाशित होते हैं, या नियमित रूप से भुगतान प्राप्त करते हैं. किसी भी स्वतंत्र पत्रकार के लिए नियमितता के इस मानदंड पर खरा उतरना कठिन होगा. इसके अलावा, इस बिल के तहत सभी मीडियाकर्मियों को एक वर्ष की अवधि के लिए पंजीकृत किया जाएगा, जिसके बाद उन्हें नवीनीकरण के लिए आवेदन देना होगा, लेकिन सरकार द्वारा अधिमान्यता प्राप्त पत्रकारों को दो साल के पंजीकरण का लाभ मिलेगा. इस प्रकार से यह विधेयक स्पष्टतः स्वतंत्र मीडियाकर्मियों के खिलाफ है, और जिस पत्रकारिता को जनता “गोदी मीडिया” के नाम से जानती है, उसी का पक्षकार है.

2. मीडियाकर्मियों का पंजीकरण कौन करेगा?

जस्टिस आफताब आलम समिति द्वारा प्रस्तुत मसौदे में मीडिया कर्मियों के पंजीकरण और संरक्षण के लिये दो अलग-अलग निकाय बनाये गये थे: पंजीकरण के लिए एक “प्राधिकरण”, जिसमें जनसंपर्क विभाग के एक अधिकारी और दो मीडियाकर्मी शामिल थे, और अलग से एक “मीडियाकर्मी सुरक्षा समिति” प्रस्तावित थी, जिसमें एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश, जनसंपर्क विभाग के प्रमुख अधिकारी, एक पुलिस अधिकारी और तीन मीडियाकर्मी शामिल थे.

परन्तु विधान सभा द्वारा पारित विधेयक में मीडियाकर्मियों के पंजीकरण हेतु “प्राधिकरण” का कोई आभास ही नहीं है– यह काम पूरी तरह से मीडियाकर्मियों के संरक्षण के लिए गठित समिति को ही दिया है. इस कारण एक हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो रही है, जहां एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी या अभियोजन अधिकारी इस संबंध में निर्णय लेंगे कि कोई आवेदक मीडियाकर्मी के रूप में पंजीकृत होने के योग्य है या नहीं!

एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी निश्चित रूप से किसी संकटग्रस्त मीडियाकर्मी के लिए सुरक्षा योजना निर्धारित करने में बखूबी भूमिका निभा सकता है, लेकिन उसके पास न तो उपयुक्त विशेषज्ञता है, और न ही आवश्यक अनुभव है कि यह तय कर पाये कि कौन व्यक्ति वास्तविक मीडियाकर्मी है.

3. मीडियाकर्मियों के पंजीकरण की प्रक्रिया क्या है?

कोई भी मीडियाकर्मी इस बिस द्वारा गठित निर्धारित समिति को पंजीकरण, नवीनीकरण या पंजीकरण में संशोधन हेतु आवेदन दे सकता है. कमिटी द्वारा बनाये ड्राफ्ट बिल (मसौदे) में किसी भी आवेदन पर निर्णय लेने के लिये 15 दिनों की सख्त समय-सीमा तय की गई थी, पर विधानसभा द्वारा पारित बिल में किसी समय-सीमा का उल्लेख नहीं है.

समिति के पास यह भी अधिकार है कि यदि वह इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि कोई पंजीकरण गलत या कपटपूर्ण है, तो वह उस पंजीकरण को रद्द कर सकती है. कोई शिकायत प्राप्त करने पर, या स्वप्रेरणा से, समिति किसी पंजीकरण की सत्यता स्थापित करने के लिये एक जांच शुरू कर सकती है.

लेकिन “दोष सिद्ध होने तक निर्दोष मानने” के सुस्थापित सिद्धांत के विपरीत, जांच शुरू होते ही मीडियाकर्मी का पंजीकरण निलंबित कर दिया जाएगा. इसका मतलब कोई भी व्यक्ति केवल एक शिकायत कर के ही अपने प्रतिद्वंद्वी का पंजीकरण रद्द करवा सकता है !

सबसे चिंता की बात यह है कि इस अंतिम विधेयक में किसी अपीलीय प्राधिकरण के लिए कोई भी प्रावधान नहीं है.

जस्टिस आफ्ताब आलम कमिटी द्वारा प्रस्तावित मसौदे में एक अपीलीय प्राधिकरण की व्यवस्था थी, जिहाँ पंजीकरण इनकार करने या पंजीकरण निरस्त करने के समिति के फैसलों को अपील किया जा सकता था. परंतु इस विधेयक में उन सारे प्रावधानों को हटा दिया गया है.

फलस्वरूप, अब ऐसा भी हो सकता है कि आपके पंजीकरण के आवेदन को बिना किसी कारण बताए अस्वीकार या रद्द किया जाता है, या फिर उसपर महीनों कोई निर्णय नहीं लिया जाता है, पर आपके पास इसे अपील करने के लिये कोई जगह नहीं है !

4. पंजीकृत मीडियाकर्मियों की सुरक्षा कौन करता है?

इसके लिये विधेयक ने एक छः-सदस्यीय समिति बनाई है जिसका नाम है “छत्तीसगढ़ मीडिया स्वतंत्रता, संरक्षण और संवर्धन समिति.” इसका नेतृत्व एक सेवानिवृत्त वरिष्ठ प्रशासनिक या पुलिस अधिकारी करेंगे, और अभियोजन पक्ष के एक अधिकारी, एक वरिष्ठ सेवारत सरकारी कर्मचारी और तीन मीडियाकर्मी इसके अन्य सदस्य होंगे. इस समिति को पूरे राज्य में सभी मीडियाकर्मियों को सुरक्षा प्रदान करने का काम सौंपा गया है, लेकिन न तो इसे कोई सचिवालय दिया गया है, और न ही इसकी जिला स्तरीय कोई इकाई है.

यह ध्यान दिया जाये कि ड्राफ्ट बिल में जिला स्तरीय ‘जोखिम प्रबंधन इकाइयों’ (Risk Management Units) की परिकल्पना की गई थी, जिसमें दो मीडियाकर्मियों के साथ जिले के एसपी, कलेक्टर एवं जनसंपर्क अधिकारी शामिल थे, और जिन्हें प्रत्येक नई शिकायत पर 24 घंटे के भीतर तुरंत कार्रवाई करने का प्रावधान था.

परन्तु अंतिम विधेयक में कोई भी जिला स्तरीय इकाई नहीं है, और इस विधेयक के तहत सारे अधिकार और सारी जिम्मेदारियाँ इसी 6 सदस्यीय राज्य स्तरीय समिति को दी गई है. इस समिति के पास किसी भी कार्रवाई के लिए कोई समय सीमा नहीं है, इसे प्रत्येक तीन महीनों में केवल एक बार मिलने की आवश्यकता है. परंतु मीडियाकर्मियों की संपूर्ण सुरक्षा के साथ-साथ उनके पंजीकरण का जिम्मा भी इसी का है!

5. समिति मीडियाकर्मियों की सुरक्षा कैसे करती है?

विधान सभा द्वारा पारित विधेयक में इस बारे में बहुत कम लिखा गया है, कि एक छः सदस्यीय समिति, बिना कर्मचारियों या ज़िला स्तरीय ढांचे के, मीडिया की स्वतंत्रता को बनाए रखने और मीडियाकर्मियों की सुरक्षित रखने को उद्देश्यों को कैसे पूरा करेगी. पीड़ित मीडियाकर्मी समिति के समक्ष उत्पीड़न, धमकी, हिंसा, अन्यायपूर्ण अभियोजन और अनुचित गिरफ्तारी के संबंध में शिकायतें पेश कर सकते हैं, और यह समिति ऐसी शिकायतों पर जांच करने हेतु दस्तावेजों और गवाहों को बुलाने के लिए एक सिविल कोर्ट की शक्तियों से लैस है .

लेकिन अंततः, यह समिति दंतहीन, निर्बल और असहाय है. जाँच उपरांत मीडियाकर्मियों की सुरक्षा हेतु यह समिति जिले के पुलिस अधीक्षक को सुरक्षा योजना और आपातकालीन सुरक्षा उपायों की मात्र अनुशंसा दे सकती है, और अपेक्षा कर सकती है कि वे उचित निर्णय लेंगे.

इसकी तुलना ड्राफ्ट बिल से करें, जिसमें समिति द्वारा सुझाई गई सुरक्षा योजनाओं और आपातकालीन सुरक्षा उपायों को लागू करने के लिए सरकार बाध्य थी, और इस परिस्थिति के लिए भी प्रावधान बनाये गये थे कि जब मीडियाकर्मी को स्वयं एसपी या कलेक्टर से ही सुरक्षा प्रदान करने की आवश्यकता हो!

जहाँ किसी मीडियाकर्मी के खिलाफ कोई मुकदमा, जाँच या विवेचना चल रही हो, वहाँ समिति केवल जिले के एसपी को जाँच या विवेचना पर निगरानी करने के लिये, और एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये ही निर्देशित कर सकती है. ऐसे परिदृश्य में, मसौदा विधेयक ने समिति को अधिकार दिये थे कि पुलिस अधीक्षक और पुलिस महानिरीक्षक की एक पर्यवेक्षी टीम गठित करे, जो वरिष्ठ मीडियाकर्मियों से भी परामर्श कर सकती थी.

विधानसभा में पारित छत्तीसगढ़ मीडियाकर्मी सुरक्षा विधेयक, 2023 के अनुसार जिला के एसपी और जिला अभियोजन अधिकारी ही तय करेंगे कि मीडियाकर्मी के खिलाफ मामला वापस लिया जाना चाहिए या नहीं, इस मुद्दे पर समिति के विचारों और सुझावों को कोई भार नहीं दिया गया है. दूसरे शब्दों में, समिति केवल एक डाकघर बन कर रह गई है, जो मीडियाकर्मियों की शिकायतें एसपी और जिले के अभियोजन विभाग को अग्रेषित करती है.

6. उन व्यक्तियों को क्या सज़ा मिलेगी जिन्हें समिति दोषी पायेगी?

समिति जाँच उपरांत किसी व्यक्ति को मीडियाकर्मी के पंजीकरण में हस्ताक्षेप करने का, या फिर किसी मिडियाकर्मी की सुरक्षा को बाधित करने का दोषी करार कर सकती है. इन अपराधों की सज़ा में किसी के कारावास का प्रावधान नहीं है और आर्थिक दंड भी मामूली है. यदि अपराधी एक लोक सेवक है, तो उसे केवल विभागीय जांच का सामना करना होगी. यदि वह कोई निजी व्यक्ति है, तो उसे जुर्माने के रूप में रु. 25,000 का भुगतान करना होगा, लेकिन यह भी भू-राजस्व में बकाया के रूप में वसूली योग्य है. अगर अपराध किसी कम्पनी ने किया है, तो जुर्माना मात्र 10 हजार रुपए है.

इन सबसे कहीं अधिक खतरनाक है मीडियाकर्मी की शिकायत झूठी पाए जाने की अवस्था में बनाया गया नया अपराध. हालांकि धारा 16 का लेख सुसंगत नहीं हैं, विधान सभा द्वारा पारित विधेयक में कहा गया है कि यदि किसी शिकायतकर्ता की शिकायत समिति द्वारा झूठी पाई जाती है, तो इस अधिनियम के तहत उसका पंजीकरण रद्द किया जाएगा !

इसमें यह भी कहा है कि अगर ऐसी झूठी शिकायत दोहराई जाती है तो मीडियाकर्मी पर भी 10,000 रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा (हालांकि अगर पहली बार में ही पंजीकरण रद्द हो जाता है, तो समिति के समक्ष दूसरी शिकायत संभव ही कैसे होगी?)

यह धारा गंभीर रूप से समस्याग्रस्त है- यदि शिकायतकर्ता अपनी शिकायत को समिति के समक्ष पूरी तरह से साबित नहीं कर पाये, इसका यह तात्पर्य यह कतई नहीं है कि शिकायत ही गलत है, या यह द्वेषभावना से दर्ज की गई थी. पंजीकरण खोने के डर से ही कमजोर वर्ग के लोग अपनी शिकायतें सामने लाने में हिचकिचा सकते है, जिससे पूरा अधिनियम ही निरर्थक हो जायेगा.

छत्तीसगढ़ विधानसभा में पारित ‘छत्तीसगढ़ मीडियाकर्मी सुरक्षा विधेयक, 2023’ प्रेस की स्वतंत्रता के नाम पर एक झूठा और छलपूर्वक प्रयास है. पूर्व में पेसा कानून के नियमों को तैयार करने के दौरान भी देखा गया था कि उन नियमों को लेकर व्यापक और सार्वजनिक परामर्श केवल जनता को खुश करने के लिए एक दिखावा था. तब भी अंततः जो पेसा के नियम अधिसूचित किये गये, वे उस मसौदे से बहुत अलग थे जिस पर सार्वजनिक रूप से बहस और चर्चा हुई थी.

असल में इस विधेयक में मीडियाकर्मियों के संरक्षण की कोई परवाह नहीं है, और इसके तहत बनाई गई छः सदस्यीय समिति को स्पष्ट रूप से कमजोर, अप्रभावी और निर्बल बनाया गया है. यह विधेयक मीडियाकर्मियों और मीडिया संस्थानों के पंजीकरण तक ही सीमित है, और राज्य की मीडिया को और भी अदृढ़ और सत्तापरस्त बनाने का प्रयास है, जिसे वैसे ही सुरक्षा की कोई आवश्यकता नहीं है.
* लेखिका अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.

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