Columnist

नीरो की बांसुरी की संगीत-समीक्षा

सुनील कुमार
अलग-अलग वक्त पर देश और काल के मुताबिक हिंसा की परिभाषा अलग-अलग हो जाती है. आज अगर गांधी, नेहरू, या जॉन एफ केनेडी के भाषणों को सुनें, तो इस बात की तकलीफ होती है कि उनकी जुबान में इंसानों के लिए महज आदमी शब्द का इस्तेमाल था, और औरत की कोई जगह नहीं थी. आज अगर वे उसी भाषण को इक्कीसवीं सदी के अठारहवें बरस में ढोते, तो हो सकता है कि उनकी जुबान उस किस्म की मर्दाना नहीं हो पाती. यह भी हो सकता है कि गांधी आज दलितों के लिए हरिजन शब्द का इस्तेमाल नहीं करते, क्योंकि हरि यानी ईश्वर, का तजुर्बा गांधी को कोई पौन सदी अधिक हो चुका रहता, और वे ईश्वर की हकीकत जान चुके होते. इसलिए लोगों की सोच हालात, वक्त, जगह, और मौके के मुताबिक बदलती रहती है, यह इसलिए भी जायज और जरूरी है कि सोच किसी पत्थर सी नहीं हो सकती जो कि दसियों लाख बरस तक उसी तरह रहे, बिना किसी फेरबदल के.

ऐसी जरूरत मीडिया में भी पड़ती है, या सामने आती है, और रोजाना छपने या दिखने वाले मीडिया में तो यह भी जरूरी नहीं होता कि सोच बरस-दर-बरस बदले, मीडिया में तो सोच दिन-ब-दिन भी बदल सकती है, या कि एक ही दिन के अखबार में अलग-अलग पन्नों पर अलग-अलग सोच सामने आ सकती है. चूंकि मीडिया लगातार हिलती हुई घटनाओं से बना होता है, इसलिए वह खुद भी लगातार हिलते रहता है, और उसकी सोच कई बार अटपटी भी लगती है, और पुरानी कतरन निकालकर कोई इस बात को गिना भी सकते हैं कि अरे पिछले बरस तो तुमने इसका ठीक उल्टा लिखा था.

यह समझने की जरूरत है कि मीडिया जैसे परिवर्तनशील माध्यम में दर्शनशास्त्र के स्थायी सिद्धांतों की तरह बंधा नहीं रहा जा सकता, और लगातार होती घटनाएं, लगातार बदलती देश और समाज, दुनिया और कुदरत की जरूरतें मीडिया की सोच को प्रभावित करते रहती हैं, और बदलते भी रहती हैं. लेकिन वक्त की जरूरत से परे चलने के लिए मीडिया के पास चतुराई के कुछ औजार भी रहते हैं. इन्हीं औजारों पर थोड़ी सी चर्चा आज यहां करना जरूरी लग रहा है क्योंकि चतुराई अपने आपको कहती तो होशियारी है, लेकिन कई बार वह होशियारी के मुखौटे के पीछे खालिस धूर्तता रहती है.

अब किसी अखबार के पहले पन्ने पर कौन सी बातें छपें, इसे तय करना अखबार के संपादक, या कि आमतौर पर उस पेज के संपादक के फैसले पर टिका होता है. यह एक अलग बात है कि पिछले खासे बरसों से अखबारों में इश्तहार जुटाने वाले लोग ऐसे कई फैसले लेते हैं, और उन फैसलों के बाद बची जगहों पर संपादक का काम शुरू होता है. एक वक्त था जब अखबारों के बारे में कहा जाता था कि इश्तहारों के बाद बची जगह में जो सामग्री फिट हो सके, उसे खबर कहते हैं. लेकिन अब बात थोड़ी सी बदली है, और अब इश्तहारों के बाद बची जगह में मार्केटिंग के लोगों द्वारा तय की गई खबरों के बाद बची जगह पर संपादक का काम शुरू होता है. और संपादक को इस बात की पूरी आजादी भी रहती है कि वह इस बाकी बची जगह पर मार्केटिंग की इजाजत से अपनी पूरी आजादी का इस्तेमाल कर सके.

जहां तक होशियारी, चतुराई, और धूर्तता की बात, तो बाजार इसमें बहुत माहिर रहता है. और बाजार पर जिंदा रहने वाला मार्केटिंग का अमला बाजार से ऐसी चतुराई लेकर लौटता है, और जिस तरह कुछ हफ्ते पहले कोबरा पोस्ट नाम के समाचार पोर्टल ने मीडिया के तन-मन को खरीदने के सौदों का भांडाफोड़ किया था, उसी तरह बिना वैसे स्टिंग ऑपरेशन के वैसे तौर-तरीके रोजाना ही इस्तेमाल होते हैं.

लेकिन एक इज्जतदार तरीके से, और ओझल रहने वाले तरीके से अखबार किस तरह बाजार का साथ देते हैं, वह देखने लायक होता है. जब रोम जल रहा होता है, तब नीरो के बांसुरीवादन की संगीत-समीक्षा को प्रकाशित करना संपादक और अखबार का कलाप्रेम साबित किया जा सकता है, और किसी बहुत काबिल फोटोग्राफर से नीरो की ऐसी खूबसूरत तस्वीरें भी खिंचवाई जा सकती हैं जो कि आर्ट फोटोग्राफी के दर्जे की हों, और जिनके लिए अखबार के पहले पन्ने की जगह ही मुनासिब लगे. जब संपादक के हाथ नीरो की ऐसी तस्वीर न लगे, तब इक्कीसवीं सदी में इंटरनेट की मेहरबानी से किसी ऐसे दुर्लभ फूल की तस्वीर तो आसानी से लग ही सकती है जो कि किसी ने देखा-सुना न हो, और जिसे पहले पन्ने पर लगाने को कोई गलत फैसला भी न कह सके.

इन तरकीबों से परे कुछ और तरीके भी रहते हैं जिनसे जिंदगी के असल, जरूरी, और जलते-सुलगते मुद्दों को पहले पन्ने से भीतर के पन्नों पर धकेला जा सकता है, और उन पन्नों पर भी कुछ दूसरी चकाचौंध खबरों के बीच उसे दबाया भी जा सकता है. मानो मीडिया की सहूलियत के लिए ही बारहमासी फिल्म समारोह, फैशन समारोह चलते रहते हैं, और फिल्मी सितारे बच्चे पैदा करते रहते हैं. यह कैसी हैरान करने वाली बात है कि जब फिल्मी सितारों के प्रेम-प्रसंगों का गॉसिप लोगों का ध्यान खींचना बंद कर देता है, तब फिल्मी सितारे अपने बच्चों को गोद में लिए हुए, खुद उनकी तस्वीरें पोस्ट करते हुए मीडिया को फिर चारा देने लगते हैं, और खुद भी इस तरकीब से खबरों में अपनी जगह, और पेशे में अपना चारा पाने-कमाने लगते हैं.

बात महज वक्त की है, एक वक्त था जब जेंडर मुद्दा नहीं था, आज के वक्त जेंडर बड़ा मुद्दा है. एक वक्त था जब वॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक किसी अभिनेत्री के बिकिनी पहनने पर तस्वीर वाली खबर बनती थी, उसके बाद सेक्स के आरोपों की खबर बननी लगी, और अब वक्त में इतनी जागरूकता आ गई है कि सेक्स-शोषण के खिलाफ एक असल संघर्ष खबर बनने लगा है.

वक्त की अपनी भी एक सोच होती है जो कभी-कभी वक्त के पहले भी शुरू होती है, लेकिन अमूमन वह वक्त के साथ ही आती है. गांधी के वक्त औरत-मर्द की समानता की भाषा की न समझ थी, न उसकी मांग थी, और न वह अनिवार्यता थी, इसलिए वह सब चल गया. अब दुनिया के जागरूक हिस्सों में जब भाषा और मुद्दों को लेकर, नियमों और कानूनों को लेकर हर किस्म की बराबरी एक अनिवार्यता होते चल रही है, तब जो तबके इस अनिवार्यता के खिलाफ वर्गहित रखते हैं, वे असमानता के मुद्दों को महत्वहीन बनाने के लिए उन्हें भीतर के पन्नों पर धकेलते रहते हैं, और उनके ऊपर, उनके नीचे, उनके दाएं, और उनके बाएं ऐसी चकाचौंध भर देते हैं कि उनके बीच असल मुद्दे लोगों को कहीं ठीक से दिख न जाएं.

इसलिए यह समझना जरूरी है कि झूठ दिखाने के लिए झूठ कहना जरूरी नहीं होता, उसके लिए जिंदगी के असल और सच्चे मुद्दों के इर्द-गिर्द ऐसे चकाचौंधी बेमतलब सच का घेरा डाल देना भी काफी होता है जिसके बीच असल मुद्दे अपना चेहरा खो बैठें, अपनी आवाज खो बैठें. और ऐसा करने वाले होशियार, चतुर, या धूर्त लोगों के मन में यह अपराधबोध भी नहीं होता कि उन्होंने सच का गला घोंट दिया है. जिंदगी में सच की आवाज को दबाने के लिए उसका गला घोंटना जरूरी नहीं होता, उसके इर्द-गिर्द गैरजरूरी सच के कई लाउडस्पीकर लगा देना भी काफी होता है. इन दिनों मीडिया का एक हिस्सा ऐसी ही साउंड-सर्विस सरीखा काम कर रहा है.

चलते-चलते मीडिया से परे साहित्य की कुछ बात करें, तो उसमें भी मीडिया से चार कदम आगे चलता हुआ यही रूख दिखता है. जब लोगों को सड़कों पर मारा जा रहा है, जब नफरत बलात्कार कर रही है, तब कुछ लोग कुदरत पर कविता गढ़ रहे हैं. वक्त का इतिहास उन्हें भी दर्ज करेगा लाशों के बीच फूलों पर शानदार कविताएं लिखने के लिए.
* लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार और शाम के अखबार छत्तीसगढ़ के संपादक हैं.

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