नेहरू अब भी उदास हैं
14. नेहरू-पटेल युति के राजनीतिक किस्सों का इतिहास में संग्रहालय है. इन दो शीर्ष राजनेताओं ने कई मुद्दों पर संयुक्त होकर गांधी के नेतृत्व को भी चुनौती दी थी-मसलन भारत विभाजन के मसले को लेकर. कई बार संगठन में बहुमत होने पर भी गांधी और पटेल ने नेहरू को तरजीह दी. सरदार पटेल की क्षमता के बावजूद गांधी ने नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया. पटेल ने कोई प्रत्यक्ष विरोध नहीं किया. इतिहास इस तरह यथार्थ की इबारतों पर रचता चला जाता है.
नरेन्द्र मोदी जैसे बहुत से हिन्दू राष्ट्रवादी नेताओं ने नेहरू पर निशाना साधने के लिए सरदार पटेल के कंधे का इस्तेमाल किया है. ऐसा करने में उन वैज्ञानिक अवधारणाओं और परिस्थितिजन्य कारणों की हेठी की जाती है-जो भविष्य का दिशा निर्धारण करते हैं. यदि विवेकानन्द और गांधी आपसी विमर्श कर पाते.
यदि गांधी ने सुभाष बोस को पूरा समर्थन दिया होता. यदि नेहरू और सुभाष के कारण गांधी-भगतसिंह बौद्धिक साक्षात्कार हुआ होता. यदि सुभाष बोस और भगतसिंह को गांधी के बराबर उम्र मिली होती. यदि ज़िन्ना ने जिद नहीं की होती. यदि सरदार पटेल का जन्म कोई दस वर्ष बाद हुआ होता. ऐसी सब अफलातूनी परिकल्पनाएं ऐसे भारत को रच सकती हैं जो कल्पना लोक का संसार तो होगा, लेकिन उसे इतिहास में घटित तो नहीं होना था. सरदार पटेल भी दक्षिणपंथी तत्वों के वोट बैंक बनाए जा रहे हैं. उससे यही आमफहम देसी कहावत सिद्ध होती है ‘ज़िंदा हाथी लाख का. मरे तो सवा लाख का.‘
15. बेचारा इतिहास पुरानी ज़िल्दों में ही अंततः बंध जाता है. इन ज़िल्दों को खोलकर पढ़ने में दिक्कत भी होती है. यह गृह मंत्री सरदार पटेल थे जिन्होंने गांधी हत्या के पहले और बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पहचानने के बावजूद नरमी और सुधार का रुख अपनाया था. उनके सामने ही संघ ने शपथपत्र दिया था कि वह एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में कार्य करता है और करता रहेगा. उसका राजनीति से कोई लेना देना नहीं होगा.
सरदार पटेल महान थे. स्वतंत्र भारत को बनाने में उनकी प्रधानमंत्री नेहरू के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सहयोगी भूमिका थी. कुछ मुद्दों को लेकर शीर्ष नेतृत्व में आपसी मतभेद होना स्वस्थ प्रजातांत्रिक लक्षण है. किसी भी बड़े राष्ट्रीय मुद्दे पर पटेल ने नेहरू के नेतृत्व को चुनौती नहीं दी, यद्यपि कई बार अपनी बात मनवाई. 1929-30 में लाहौर कांग्रेस की अध्यक्षी बहुमत का साथ होने पर भी पटेल ने गांधी की सलाह पर नेहरू के लिए छोड़ी.
राजेन्द्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनाने के मामले पर पटेल लेकिन अड़ गए थे. सरदार पटेल के जीवन काल में भाजपा के पूर्वज जनसंघ का जन्म नहीं हुआ था. राष्ट्रवादी हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व हिन्दू महासभा और संघ के जिम्मे था. पटेल को इन संगठनों के बारे में मुगालता नहीं था.
16. भारत के विभाजन के चार दिन पहले दिल्ली में सरदार ने कहा था कि सरकारी ओहदे पर बैठे कई मुसलमानों की सहानुभूति मुस्लिम लीग के साथ है. यह भी कि देश को विनाश से बचाने के लिए कांग्रेस ने बहुत मजबूर होकर मुल्क का विभाजन स्वीकार किया है. मुसलमानों की जड़ें हिन्दुस्तान में ही हैं. यहीं उनके धार्मिक और सांस्कृतिक स्थल इतिहास के गर्भगृह हैं.
आज़ादी के छह महीने बाद वल्लभभाई ने मेहरौली की सभा में उदास मन से कहा था कि सांप्रदायिक दंगों के कारण वे शर्मसार हैं. हिन्दुओं को चाहिए कि वे मुसलमानों को इस देश में असुरक्षित महसूस नहीं होने दें. साफगोई के प्रवक्ता सरदार ने गांधी की हत्या के पहले कलकत्ता की जनसभा में माना था कि देश में हिन्दू राज्य कभी स्थापित नहीं होगा, लेकिन इस देश के साढ़े चार करोड़ मुसलमानों में से कई पाकिस्तान के निर्माण के समर्थक रहे हैं. यह कैसे भरोसा किया जाए कि उनकी धारणा रातों रात बदल गई होगी.
मुसलमान कहते हैं कि वे भारत के प्रति वफादार हैं. इसे कहने की क्या ज़रूरत है. उन्हें खुद अपनी आत्मा में झांकना चाहिए. सरदार इस तरह की निष्कपट टिप्पणियां करते थे. उनके साम्प्रदायिक व्याख्याकार उसे मौज़ूदा हिन्दुस्तान के हालात में अंतरित करते हैं. उन्होंने गांधी की हत्या के एक पखवाड़े पहले मुंबई में दो विरोधाभासी लगती लेकिन एक जैसी बातें देशभक्ति के तरन्नुम में डूबकर कही थीं.
उन्होंने कहा कि यहां कुछ लोग मुस्लिम विरोधी नारे लगा रहे हैं. ऐसे वहशी इरादों वाले क्रोधियों से तो पागल ज़्यादा अच्छे हैं जिनका इलाज तो किया जा सकता है. फिर उन्होंने मुसलमानों को भी झिड़का और कहा कि वे मुसलमानों के दोस्त हैं. मुसलमान यदि उन्हें वैसा नहीं आंकते तो वे भी पागल आदमियों की तरह हैं क्योंकि उनमें सही और गलत को समझने का विवेक नहीं है. सबसे मुश्किल और महत्व का काम वल्लभभाई के लिए हैदराबाद में प्रतीक्षा कर रहा था.
देसी रियासतों के विलीनीकरण के कर्ताधर्ता ने आज़ादी के दो बरस बाद हैदराबाद की जनसभाओं में हिन्दू-मुस्लिम एकता की पुरज़ोर समझाइश दी. अलबत्ता यह ज़रूर कहा कि मुसलमानों को भी अपना हृदय परिवर्तन करना चाहिए. उन्हें पाकिस्तान और कश्मीरी मुसलमानों को भी हिंसा से विरत होने की समझाइश देनी चाहिए. भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में हिन्दू और मुसलमान के संवैधानिक अधिकारों में कोई फर्क नहीं है.