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नेहरू अब भी उदास हैं

11. यह हैरत की बात है कि अशेष क्रांतिकारी नायक भगतसिंह ने मोटे तौर पर कांग्रेस में दो परिचित नेताओं गांधी और लाला लाजपत राय की कड़ी आलोचना की. सुभाषचंद्र बोस के प्रति आदर रखने के बावजूद भगतसिंह उन्हें एक भावुक युवक नेता की तरह ही तरजीह देते थे. तत्कालीन राजनीति में उनकी दृष्टि में जवाहरलाल नेहरू अकेले ऐसे नेता थे जिन पर इस अग्निमय नायक ने पूरी तौर पर भरोसा किया था.

नेहरू ने भी लगातार भगतसिंह की क्रांति का गांधी के विरोध के बावजूद समर्थन किया. अपनी आत्मकथा में नेहरू ने साफ लिखा था ‘‘भगतसिंह अपने आंतकवादी कार्य के लिए लोकप्रिय नहीं हुआ बल्कि इसलिए हुआ कि वह उस वक्त, लाला लाजपतराय के सम्मान और उनके माध्यम से राष्ट्र के सम्मान का रक्षक प्रतीत हुआ. वह एक प्रतीक बन गया, आतंकवादी कर्म भुला दिया गया परन्तु उसका प्रतीकात्मक महत्व शेष रह गया और कुछ ही महीनों के अंदर, पंजाब का हर कस्बा और गांव और कुछ हद तक उत्तरी भारत के शेष हिस्से में उसका नाम गूंज उठा. उस पर अनगिनत गाने गाए गए और जो लोकप्रियता उसने पाई, वह चकित करने वाली थी.‘‘

नेहरू ने क्रांतिकारियों की गांधी द्वारा की गई भर्त्सना को ठीक नहीं माना और कहा कि इन लोगों या उनके कामों की भत्सना करना न्यायोचित नहीं है, बिना उन कारणों को जाने जो इसके पीछे हैं. लाहौर में दिसम्बर 1928 में सांडर्स की हत्या के तुरंत बाद नेहरू ने नौजवान भारत सभा को आश्वासन दिया ‘‘भारत में अनेकों आपके लिए हमदर्दी रखते हैं और हर संभव सहायता देने के लिए तैयार हैं. मुझे उम्मीद है कि सभा संगठन के रूप में और मजबूत होगी और भारत के एक राष्ट्र के रूप में निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाएगी.‘‘ (सर्च लाइट 11 जनवरी, 1929). नेहरू और सुभाष बोस के अलावा कई और प्रमुख कांग्रेसी थे जो क्रांतिकारियों के साथ हमदर्दी रखते हुए उन्हें आर्थिक सहायता भी दिया करते थे.

12. भगतसिंह और साथियों की गिरफ्तारी के बाद जेल में उन पर असाधारण जुल्म किए गए. जवाहरलाल नेहरू भूख हड़ताल पर बैठे कैदियों से मिलने गए और जेल में उनकी तकलीफों को देखा. वे व्यक्तिगत तौर पर सभी से मिले और उनके बुरे हालात पर बहुत संजीदा होकर बोले.

वे उनकी स्वार्थरहित बलिदानी इच्छाशक्ति से पूरी तरह सहमत हुए और कहा ‘‘मुझे इनसे पता चला है कि वे अपने इरादे पर कायम रहेंगे, चाहे उन पर कुछ भी गुज़र जाए. यह सच है कि उन्हें अपनी कोई परवाह नहीं थी.‘‘ नेहरू ने पदलोलुप कांग्रेसियों को नहीं बख्शा जो क्रांतिकारियों की आलोचना उनके बलिदान की भावना को समझे बिना करने लगते थे.

ट्रिब्यून की 11 अगस्त 1929 की एक रिपोर्ट के अनुसार नेहरू ने कहा था ‘‘हमें इस संघर्ष के महान महत्व को समझना चाहिए जो ये बहादुर नौजवान जेल के अंदर चला रहे हैं. वे इसलिए संघर्ष में नहीं हैं कि उन्हें अपने बलिदान के बदले लोगों से कोई पुरस्कार लेना है या भीड़ से वाह-वाही लूटनी है. इसके विपरीत आप संगठन में और स्वागत-समिति में पद के लिए कांग्रेस में दुर्भाग्यपूर्ण खींचातानी को देखें. मुझे कांग्रेसियों के बीच आंतरिक मतभेदों के बारे में सुनकर शर्म आती है. परन्तु मेरा दिल उतना ही खुश भी होता है जब मैं इन नौजवानों के बलिदानों को देखता हूं जो देश की खातिर मर-मिटने के लिए दृढ़ संकल्प हैं.‘‘

13. असेम्बली बम कांड में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के बयान को नेहरू ने कांग्रेस बुलेटिन में प्रकाशित कर दिया. इसके लिए महात्मा गांधी ने उन्हें फटकार लगाई. नेहरू ने संकोच के साथ गांधी को लिखा ‘‘मुझे खेद है कि आपको मेरा भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के बयान को कांग्रेस बुलेटिन में देना सही नहीं लगा. यह बयान इसलिए छापना पड़ा क्योंकि कांग्रेसी हलकों में प्रायः इस कार्यवाही की सराहना हुई.‘‘

कांग्रेस के अध्यक्ष चुने जाने पर नेहरू की सदारत में 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस बड़ी धूमधाम से मनाया गया. प्रदर्शनकारियों ने तिरंगे के साथ साथ लाल झंडे को फहराने का प्रयास किया. कई कांग्रेसियों के विरोध के बावजूद नेहरू ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा ‘‘हमारे राष्ट्रीय तिरंगे झंडे और मज़दूरों के लाल झंडे के बीच न कोई दुश्मनी है और न होनी चाहिए. मैं लाल झंडे का सम्मान करता हूं और उसे इज्ज़त बख्शता हूं क्योंकि यह मज़दूरों के खून और दुःखों का प्रतीक है.‘‘

जवाहरलाल नेहरू भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी से पहले इसलिए खामोश रहे कि कहीं गांधी नाराज़ न हो जाएं. फांसी के एकदम बाद उन्होंने अपनी खामोशी की दलील देते हुए एक वक्तव्य दिया. ‘‘मैं खामोश रहा हालांकि मैं फटने की कगार पर था, और अब, सब कुछ खत्म हो गया‘‘ (दी बॉम्बे क्रानिकल, 25 मार्च, 1931).

एक अन्य संदर्भ में उन्होंने माना ‘‘मुझे हालात के मद्देनज़र ऐसे काम करने पड़े जिनके साथ मैं सहमत नहीं था.‘‘

उन्होंने आगे कहा, ‘‘हम सब मिलकर भी उसे नहीं बचा सके जो हमें इतना प्यारा था और जिसका ज्वलंत उत्साह और बलिदान देश के नौजवानों के लिए प्रेरणा के स्त्रोत थे. आज भारत अपने प्यारे सपूतों को फांसी से नहीं बचा सका.‘‘ (दी बांबे क्रॉनिकल, 25 मार्च, 1931.)

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