नेहरू अब भी उदास हैं
कनक तिवारी
1. नेहरू ने देश की कर्णधार संस्था कांग्रेस के केन्द्रीय नेता और प्रधान सेनापति के रूप में पार्टी संविधान और देश पर बेमिसाल बौद्धिक छाप छोड़ी है. पहले आम चुनाव के बाद आर्थिक आयोजना के मुख्य सूत्रधार के रूप में जवाहरलाल ने इस्पात और बिजली जैसे उद्योगों की ओर वैज्ञानिक वृत्ति के साथ ध्यान दिया. तब बहुत से अफ्रो-एशियाई मुल्क अपनी स्वाधीनता के बाद देशज परंपराओं को पुनर्जीवित करने में मशगूल थे.
संविधान सभा में डा0 राजेन्द्र प्रसाद को अध्यक्ष निर्वाचित करने के बाद जवाहरलाल नेहरू के हाथों 13 दिसम्बर 1946 को संविधान की उद्देशिका का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया. उद्देशिका-भाषण उतना ही महत्वपूर्ण था जितना 14 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि को लोकसभा में दिया गया स्वतंत्रता संदेश. नेहरू के अनुसार संविधान सभा का यह प्रस्ताव एक ऐसी घोषणा, प्रतिबद्धता और दृढ़निश्चयता से सन गया था जिसे भारत के भविष्य की तस्वीर गढ़नी थी.
यह केवल देश नहीं बल्कि दुनिया को भी गढ़ने का सपना था. नेहरू के वक्तव्य के बाद संविधान सभा में गरिमा, उदात्तता और अनोखेपन की एक लहर सी दौड़ गई. देशभक्ति और राष्ट्र निर्माण की नेहरू की अपील का पहला और प्रत्यक्ष असर यह हुआ कि समिति के सदस्य एक स्वर से मजबूत केन्द्र के पक्ष में हो गये. राज्य-केन्द्र संबंध का समीकरण मुख्यतः उनके भाषण से प्रेरणा लेकर ही लिखा गया. मजबूत केन्द्र की अवधारणा का एक और कारण भारत-पाक विभाजन का दुर्भाग्य भी था.
संविधान सभा के सदस्यों ने भारत की अखंडता को लेकर असफल रहने के कारण भारत की एकता और अखंडता के प्रति सचेष्ट होकर निर्णय लिए. नेहरू ने संविधान सभा के उद्देश्य-प्रस्तावों की घोषणा में कहा कि संविधान का उद्देश्य एक सार्वभौम गणतंत्र की स्थापना करना है. उसमें सभी शक्ति और अधिकार भारतीय जनता से प्राप्त किए गये हैं.
2. जवाहरलाल नेहरू संविधान सभा में स्वप्नदर्शी थे, ठीक यूनानी दार्शनिक प्लेटो की अनुकृति में. उद्देशिका संबंधी मूल प्रस्ताव नेहरू ने अपनी नायाब भाषण शैली और मोहक अदाओं के साथ रखा था. उनका भाषण लगभग स्वगत में बोला गया कथन था जो शिलालेख की तरह संविधान सभा के यादघर की डायरी में दर्ज़ है. 1937 की अंतरिम सरकार के चुनावों के बाद भाव विह्वल होकर नेहरू ने भारत के मेहनतकश किसानों और मजदूरों के सपनों का हिन्दुस्तान बनाने का रोमान्टिक आह्वान किया था.
वह सपना उनमें पकता, खदबदाता रहा. संविधान में निहित दर्शन के लिए नेहरू के ऐतिहासिक उद्देश्य-संकल्प की ओर दृष्टिपात करना होगा. उसे संविधान सभा ने 22 जनवरी 1947 को अंगीकार किया था. उससे आगे के सभी चरणों में संविधान को रूप देने में प्रेरणा मिली है. नेहरू के शब्दों में उपर्युक्त विचार-दर्शन’संकल्प से कुछ अधिक है. यह एक घोषणा है, एक दृढ़ निश्चय है, एक प्रतिज्ञा है, एक वचन है और हम सभी के लिए यह एक समर्पण है.’
3. नेहरू ने संविधान सभा के भाषा सम्बन्धी मुंशी-आयंगर प्रस्ताव को भाषा-क्रांति की शुरुआत करार दिया. भारतीयों को भारत के अतीत से किसी भी कीमत पर असम्पृक्त नहीं किया जा सकता. नेहरू का यह आग्रह उनके जबर्दस्त इतिहास-बोध के कारण था. भारत अपने अतीत में पूरी दुनिया की संस्कृति से अलग थलग पड़ गया था.
भारत में ब्रिटिश हुकूमत का झंडा श्रेष्ठतर समकालीन संस्कृति के झंडाबरदारों ने गाड़ा, भले ही आत्मा की श्रेष्ठता के गायन में हिन्दुस्तान सदैव अद्वितीय रहा है. यदि हम युगधर्म के अनुरूप नहीं चलेंगे तो अपने युग के साथ कदम नहीं मिला सकेंगे. राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृति के अतिरिक्त एक संस्कृति ऐसी होती है जो परम तथा सनातन होती है और उसके कुछ परम आदर्श होते हैं जिनका अनुसरण करना आवश्यक होता है. एक संस्कृति परिवर्तनशील होती है जिसका सामाजिक महत्व के अतिरिक्त अन्य कोई महत्व नहीं होता. उसका किसी विशेष काल, किसी पीढ़ी अथवा युग के लिये महत्व होता है.
जवाहरलाल नेहरू ने भाषा नीति को लेकर संविधान सभा में महत्वपूर्ण बातें कही थीं और देश को आश्वासन भी दिए. उन्होंने सदन को याद दिलाया कि गांधीजी का ’हिन्दुस्तानी’ से आशय कोई तकनीकी या संकीर्ण अर्थ में नहीं था. वह उस भाषा से था जो देश के लोगों और साथ साथ उत्तर भारत के कई समूहों की भाषा थी. गांधी जी को ’हिन्दी’ शब्द से कोई विरोध नहीं था. ’वे हिन्दी को एक समावेशी भाषा बनाना चाहते थे जिसमें हिन्दुस्तान की सभी भाषाओं के भाषातत्व शामिल हो जाएं.
4. ‘आत्मकथा‘ में कुछ चरित नायकों पर भी प्रकाश डाला गया है. इनमें से दो चरित्रों का वर्णन विशेष उल्लेखनीय है. किसकी लेखनी में इतना दम है कि गांधी के सम्बन्ध में नेहरू से अधिक प्रामाणिक हो सके. ‘यह बात बिलकुल साफ थी कि कृषकाय होने पर भी उनमें चट्टानी दृढ़ता थी जिसने भौतिक शक्तियों के सामने घुटने टेकने से साफ इन्कार कर दिया था. चाहे वे कितनी ही मजबूत और ताकतवर क्यों न हों?