जयपाल थीसिस ही तुम्हारी मंज़िल!
कनक तिवारी
आदिवासी अधिकारों को लेकर संविधान सभा आदिवासी सदस्य जयपाल सिंह मुंडा के लिए केवल बौद्धिक कवायद या व्याख्यान देने का चोचला नहीं था. अकेले जिम्मेदार आदिवासी प्रवक्ता होने से उनमें आशंका, अपराध बोध और जवाबदेही का अहसास भी रहा होगा कि बहुमत जो करे, वे भविष्य में आदिवासी समस्याओं और चुनौतियों से बेखबर या गाफिल प्रतिनिधि दर्ज नहीं किए जाएंगे.
सदियों से पीड़ित और उपेक्षित आदिवासियों में कुछ लोगों को दब्बूपन दिखाई देता रहा है. यह चेहरा पहली ही तकरीर में जयपाल सिंह ने नोच लिया. उन्होंने तर्कों की सुसंगत बिसात धाकड़ और दमदार नेहरू, पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, अंबेडकर, के. एम मुंशी, अलादि कृष्णास्वामी अय्यर और एन गोपाल स्वामी आयंगर के सामने बिछाईं.
कोई जयपाल सिंह के तर्कों के सामने निरुत्तर होता या अनदेखी करता या होमवर्क नहीं कर पाने के कारण असमंजस में कुतर्क भी कर देता.
सदस्यों का बहुमत जयपाल सिंह की संवेदना समझे बिना उनके तर्कों को दो टूक खारिज कर देता. उन्होंने शुरू में ही कहा आदिवासी ही भारत के मूल निवासी हैं. वे देश के बाहर से नहीं आए हैं. आजादी के लिए हमने ही सबसे पहले युद्ध भी किए हैं.
आहत अभिमान की खुद्दारी में जयपाल ने कहा मुझे अपने जंगली कहलाने में गर्व है. जंगलों में रहते हुए भी लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव को समर्थन दे रहा हूं.
इसलिए नहीं कि उसे कांग्रेस के सबसे बड़े नेता जवाहरलाल नेहरू ने स्पॉन्सर किया है. इसलिए समर्थन कर रहा हूं क्योंकि वह देश के नागरिकों के दिलों की धड़कन की भावनाओं को जुबान देगी. उनका तीखा अहसास था आदिवासियों को छह हजार वर्षों से बेतरह बेवजह प्रताड़ित किया जाता रहा है.
इतिहास की व्यापक मानवीय समझ वाले नेहरू पर सबसे ज्यादा ऐतबार किया गया. बार बार उन्होंने नेहरू की किताबों से उद्धरण दिए. बेहद तकलीफदेह बयान करते जयपाल सिंह ने कहा आदिवासियों को नए अधिकार, रियायत या सहूलियत नहीं चाहिए. वे केवल मंत्रियों से अपने को बचा लें. यही बहुत है.
लगता है यह तो इक्कीसवीं सदी में भी सही है. बेलाग कहा याद रहे केवल आदिवासी जातिविहीन हैं. उनमें जाति प्रथा नहीं है. आदिवासियों के इस तर्क का नृतत्वशास्त्र, समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र के विद्वानों के पास जवाब नहीं है. जयपाल ने बार बार पीड़ा का इजहार किया अपनी ऊंची कौम या जाति के बड़प्पन के घमंड में लोगों ने आदिवासियों पर भयानक जुल्म किए हैं.
सलाहकार समिति में आदिवासियों की नुमाइन्दगी की कमी को लेकर शुरुआती भाषण में जयपाल सिंह ने असहमति का स्पेस ढूंढ़ लिया था. अपनी रचनात्मक और असहमत धारदार उपस्थिति का इतना अहसास करा गए कि संविधान सभा के वाद विवाद के पन्नों में जयपाल अनोखे, मौलिक और शोधकर्ता हस्ताक्षर के रूप में अमिट हैं.
जयपाल सिंह में कूटनीतिक बुद्धि की गहरी तीक्ष्णता थी. आदिवासी अस्मिता और स्वायत्तता की रीढ़ की हड्डी को सीधा खड़ा कर इतिहास के वस्तुपरक पाठों को समर्थन में खड़ा कर ऐलान किया आदिवासी न तो हिन्दू हैं, और न ही किसी अन्य कौम या जाति के.
वे जान गए थे आदिवासियों को तथाकथित शहरी सभ्यता की मुख्य धारा में बरायनाम शामिल करने का जतन हो रहा है. जैसे बड़ी नदी में छोटी नदियां या नाले मिलते हैं. फिर सब लघु नदों का अस्तित्व विलीन होने का झूठा संतोष खत्म हो जाता है.
वे चाहते थे संविधान के मूल संदेश को आदिवासी इस तरह जज़्ब कर लें कि नागरिकता की व्यापक समझ में रहकर अपनी आजादी और स्वाभिमान के चलते अपने अनोखेपन और पहचान को अपने अस्तिव का बुनियादी आधार लगातार बनाए रखें.
उनमें भविष्यमूलक अर्थ भी निहित था. जयपाल को संदेह या आशंका हुई हो जो कुछ चाहते हैं उस तरह की संवैधानिक हैसियत आदिवासियों की नहीं बनी. तो आगे चलकर संविधान उनके लिए पूजा पाठ की बन्द पुस्तक बनकर कोई इन्सानी रिश्ता नहीं रच पाएगा.
उन्हें आदिवासी समाज के हजारों वर्ष पुराने बुनियादी सामुदायिक मूल्यों और परंपराओं पर गर्व था. उसे वे किसी भी कीमत पर छोड़ने या खारिज होने देने के पक्ष में नहीं थे. जयपाल सिंह का आकलन था केवल और सबसे पहले आदिवासी समाज में ही जनतांत्रिकता रही है.
इसलिए संविधान की लिखी जा रही पोथी से यूरोपीय नस्ल की लोकतांत्रिकता के अकादेमिक पाठ नहीं पढ़ना चाहते थे. उनका तल्ख इशारा था टूटती सरहदों वाली भूगोल से कुछ सीखने के बदले सिकुड़ते इतिहास से आदिवासी सीखें. आदिवासी अपने अनुभव संसार में परम्पराओं को सांसों की धड़कन बना चुके हैं. यही उनकी ऑक्सीजन है.
शुरुआती भाषण में संविधान सभा के तीन सबसे बड़े कांग्रेसी धाकड़ों नेहरू, मौलाना आजाद और राजेन्द्र प्रसाद को उन्होंने घेरा जिन्होंने अपने भाषणों या लेखन में माना था आदिवासियों की सभ्यता भारत में सबसे पुरानी है.
यह भी कि उनकी हुकूमतें भारत में कई जगह रही हैं. मौलाना आजाद ने यहां तक कहा कांग्रेस आदिवासियों पर अपनी शर्तें बिल्कुल थोपना नहीं चाहती. उन्हें अपनी जीवन शैली तय करने की अल्पसंख्यक आबादी होने के कारण पूरी आज़ादी होगी. भरोसा रखें उन्हें बहुमत के दबाव तले समस्याओं का हल ढूंढ़ने नहीं कहा जाएगा.
जयपाल ने नेहरू की तारीफ के पुल बांधते भरोसा करते यहां तक कहा आदिवासी समस्याओं को हल करने हम अकेले जवाहरलाल नेहरू पर भरोसा कर सकते हैं. उन्हें आदिवासियों के भविष्य का ट्रस्टी बना सकते हैं. दुखद है संविधान की नीयत में नहीं, लेकिन इबारत और लोकशाही की हुकूमत की इमारत के ढांचे में दीमकें घुस गई थीं.
लगभग तीन सौ सदस्यों की सभा में बिहार (अब झारखंड) के आलिम फाजिल, सक्रिय और बौद्धिकता के जाबांज प्रवक्ता जयपाल सिंह मुंडा अकेले पड़ गए थे.
वे नहीं होते तो आज आदिवासी अधिकारों की संभावनाओं को प्रदूषित किया जा रहा अनन्त आकाश तो क्या भ्रूण भी विचार विमर्श को नहीं मिलता. लोकतंत्र में हुक्मशाही के पेंच होते हैं. मतलबपरस्ती, आत्ममुग्धता और बड़प्पन का परचम लहराने वाला भारी भरकम बहुमत कमज़ोर अल्पमत बल्कि किसी अकेली असहमत आवाज का गला घोंट देता है.
यही ट्रेजेडी मुंडा के साथ में हुई. दुख, हैरत और पश्चाताप है देश के शिक्षित और नौजवान आदिवासी अपने पूर्वज की ऐतिहासिक भूमिका से लगभग अपरिचित हैं, या हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं. आदिवासियों में स्वाभिमान, सामाजिक भावना, संपत्ति से उदासीनता, मासूमियत, साहस, जोखिम उठाने का माद्दा लेकिन किसी की पीठ पर छुरा नहीं मारने की बनावटें प्रमुख हैं.
आदिवासी बरबादी का भविष्य पाठ वक्त की दीवार पर सायास धुंधलाता हुआ केवल जयपाल सिंह मुंडा पढ़ पाए थे. तटस्थ और निर्मम इतिहास ही समाज का आखिरी सच होता है. इस बात को भूलना नहीं चाहिए आदिवासी अधिकारों को पहली प्राथमिकता के स्तर पर बूझने के बदले शुरू से संविधान सभा की कार्यवाहियों में ढीला ढाला अप्रोच लगातार दिखाई दिया है.
काश! जयपाल सिंह के तेवर को इतिहास दुहराता हुआ देख पाए!