संस्थाओं की साख बचायें
अनिल चमड़िया
संविधान बनाने के बाद अंबेडकर के पहले भाषण का यह अंश है-“भारतीय गणतंत्र 26 जनवरी, 1950 को इस अर्थ में एक प्रजातांत्रिक देश बन जाएगा कि उस दिन से भारत में जनता की, जनता द्वारा और जनता के लिए बनी एक सरकार होगी. यही विचार मेरे मन में आता है. उसके लोकतांत्रिक संविधान का क्या होगा? क्या वह उसे बनाए रखेगा या उसे फिर से खो देगा?”
आगे वे कहते हैं, ‘‘एक संविधान चाहे जितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों. संविधान की प्रभावशीलता पूरी तरह उसकी प्रकृति पर निर्भर नहीं है. संविधान केवल राज्य के अंगों-जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका-का प्रावधान कर सकता है. राज्य के इन अंगों का प्रचालन जिन तत्वों पर निर्भर है, वे हैं जनता और उनकी आकांक्षाओं तथा राजनीति को संतुष्ट करने के उपकरण के रूप में उनके द्वारा गठित राजनीतिक दल.”
दो तरह की स्थितियां सामने आती हैं. एक संविधान यानी भारत के लोगों के बीच हुए समझौते और सहमति के अनुसार संस्थाएं बनाना जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व वाला समाज निर्मिंत करें क्योंकि पुराने तमाम सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे को लेकर यह अनुभव सामने आया कि वे न केवल समाज में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर गैर-बराबरी के सिद्धांत पर निर्मिंत हैं, बल्कि गुलामी को बढ़ावा देते हैं. लिहाजा धार्मिंक शास्त्रों पर चलने वाले समाज को बदलने के लिए एक आधुनिक राजनीतिक शास्त्र पर आधारित संविधान ही मार्गदर्शक की भूमिका अदा कर सकता है.
दूसरी तरफ स्थिति यह थी कि असमानता और गुलामी को बरकरार रखने वाली सामाजिक आर्थिक संस्थाएं (विचारधारा) थीं जो अपने वर्चस्व को हर कीमत पर बनाए रखने के लिए हर संभव कोशिश करें. इन दोनों स्थितियों के लिए उपकरण के रूप में राजनीतिक दल हमारे सामने रहे हैं.
एक विचारधारा वाले राजनीतिक दल
हम यह तो मानते हैं कि किसी भी राजनीतिक दल की एक विचारधारा होती है लेकिन इस हकीकत की हकीकत यह भी है कि एक ही विचारधारा के कई राजनीतिक दल हैं.
मसलन, जब संविधान को स्वीकार कर रहे थे तो इस राजनीति को संगठित करना था जो समानता, बंधुत्व और स्वतंत्रता की विचारधारा विभिन्न दलों की आधारभूत विचारधारा हो. उस समय की राजनीतिक परिस्थितियां दुनिया के स्तर पर ऐसी थीं कि गुलामी से मुक्ति, समानता का समाज बनाने के लिए राष्ट्र निर्माण की योजना और लोकतंत्र यानी स्वतंत्रता और स्वायत्तता के अलावा कोई दूसरी बात नहीं की जा सकती थी. लेकिन भारतीय समाज को संचालित करने वाली जो संस्थाएं रही हैं, उनकी जड़ें काफी गहरी हैं.
इसीलिए जिन लोगों ने यह नारा दिया कि राजनीति का हिंदूकरण करना होगा, तो उन्होंने खुद साफ तौर पर कहा कि वे न तो इस आजादी को मानते हैं, और ना ही इस आजादी के प्रतीकों को मानते हैं. और ना ही इस संविधान को स्वीकार करते हैं और उन्होंने विभिन्न राजनीतिक दलों की बैकसीट ड्राइविंग की योजना बनाई.
मौजूदा दौर में हम यह कह सकते हैं कि हर दल हिंदूकरण की इस राजनीति के असर में है. अंग्रेज शासकों से सत्ता हासिल करने के बाद से ही हम संवैधानिक संस्थाओं के निर्माण और संवैधानिक संस्थाओं पर हमले के बीच संघर्ष देख रहे हैं.
राजनीति का हिंदूकरण करना होगा और हिंदू का सैन्यकरण करना होगा कि नारे पर चलने वाली भाजपा के सत्ता में रहने के दौरान संवैधानिक संस्थाओं पर हमले तेज हो जाते हैं क्योंकि यह संविधान को स्वीकार नहीं करने वाली विचारधारा की अगुआ सहयोगी है. लेकिन कांग्रेस के शासनकाल में संवैधानिक संस्थाओं पर हमले होते रहे हैं. कांग्रेस की इसके लिए काफी आलोचनाएं होती रही हैं.
संसद और विधानसभाओं के सत्रों की लगातार संख्या कम होती चली गई. सामाजिक न्याय के एजेंडे को पीछे रखा गया आदि ऐसे कई उदाहरण हैं. इनमें आपातकाल को भी शामिल कर सकते हैं. हम यह कह सकते हैं कि भारतीय समाज के पुराने ढांचे ने संविधान के उन तमाम प्रवाधानों का अपने हितों में इस्तेमाल किया है जो कि आधुनिक समाज बनाने के लिए नागरिकों व संगठनों को अधिकार दिए गए हैं और दूसरी तरफ संविधान के उद्देश्यों के खिलाफ राजनीतिक स्थितियां तैयार करते रहे हैं.
केवल शिकायत पुस्तिका की सामग्री नहीं
संविधान और संवैधानिक संस्थाओं पर हमले हो रहे हैं. यह केवल शिकायत पुस्तिका की सामग्री नहीं हो सकती. संविधान की सुरक्षा के लिए कैसी राजनीति हम विकसित कर रहे हैं, कैसा सामाजिक ढांचा खड़ा कर रहे हैं. कैसा सांस्कृतिक वातावरण विकसित कर रहे हैं, संविधान के जीवित होने की यही गारंटी करता है.
संवैधानिक संस्थाओं पर हमले हो रहे हैं, और दूसरी तरफ यदि लोगों की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्स्कृतिक चेतना संविधान के साथ नहीं जुड़ी है, तो हमले की शिकायत हम क्या करके करेंगे. खास तौर से तब, जब संविधान के समानांतर आस्था की विचारधारा का विकास कर लिया हो.
सुप्रीम कोर्ट ने अफजल गुरू को फांसी देते वक्त कहा कि लोगों का मानस इसकी मांग कर रहा है. अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण कानून के प्रावधानों को रद्द करने का फैसला लेते वक्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश ने अन्याय के खिलाफ संविधान के प्रावधानों की व्याख्या को ही उलट दिया. इससे यह संकेत मिलते हैं कि संवैधानिक संस्थाओं के उद्देश्यों के अनुरूप न्यायालय अपनी भूमिका में नहीं है बल्कि न्यायाधीश यानी गैर-बराबरी के सिद्धांत पर टिकी सामाजिक और आर्थिक संस्थाओं का प्रतिनिघि फैसले कर रहा है.
कहना नाकाफी
यह कहना नाकाफी है कि सरकार का नेतृत्व करने वाले राजनीतिक दल संवैधानिक संस्थाओं पर हमले कर रहे हैं, बल्कि स्थितियां उससे आगे की तरफ बढ़ चुकी हैं. संवैधानिक संस्थाओं के भीतर संविधान पूर्व की संस्थाएं हावी होती जा रही हैं. जड़ संस्थाएं संवैधानिक संस्थाओं (विचारधारा) को विस्थापित कर रही हैं और वह ऊपर से नीचे तक हुआ है.
संवैधानिक संस्थाओं के खत्म होने और सैन्य प्रवृत्तियों के उभरने के खतरों को एक साथ देखें तो भारत के लोगों के सामने चुनौतियों की गंभीरता का अंदाजा लगता है. यह सोचना बेमानी है कि संवैधानिक संस्थाओं को सत्ता की होड़ की राजनीति से मजबूत किया जा सकता है, या फिर संवैधानिक संस्थाओं का जिस हद तक क्षरण हो चुका है उसे फिर से हासिल किया जा सकता है.
संसदीय राजनीति में आज का विपक्ष कल सत्ता में होता है, और कल का विपक्ष आज की सत्ता में होता है, और दोनों ही दौर में संविधान की राजनीति को कमजोर करने की सैन्य कोशिश देखी गई है. लेकिन 26 नवम्बर, 2018 को जिस तरह से भारतीय समाज में संविधान दिवस को लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों के कार्यक्रमों के तेवर दिखे उसने समाज में संविधान को लेकर ऐतिहासिक जागरूकता का परिचय दिया है.
यह एक ऐसी प्रक्रिया का हिस्सा है जो समाज में संविधान और उसके उद्देश्यों को हासिल करने के लिए बुनियादी स्तर पर ढांचों का निर्माण कर रहा है. यह ढांचा संविधान की सामाजिक व्याख्या करने की संस्कृति को विकसित करेगा. यह एक नई चेतना का विकास है कि संविधान की व्याख्याएं न्याय के सिंद्धांत के अनुरूप हो न कि न्यायालयों के धीशों की व्याख्याओं की मोहताज हो.