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संविधान दरक रहा है

कनक तिवारी
26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू किया गया है.उसमें भारत कितना है? दुनिया के कुछ महत्वपूर्ण लोकतंत्रों के अनुभवों से लाभ उठाने की कोशिश में संविधान अनेक व्यवस्थाओं का शरणालय बन गया है.

वह भूगोल में दुनिया तक फैला है, लेकिन उसकी अपनी इतिहास दृष्टि नहीं है. प्राचीन भारतीय गणतंत्र व्यवस्था के सर्वोत्तम विचारों का ’’डाइजेस्ट’’ भी संविधान में नहीं है.

नया सवाल है वर्तमान डेमोक्रेसी और संविधान का अक्स भारतीयों की आत्मा में कब और कैसे पैठेगा? सामंतशाही चली गई. फिर भी छिपकली की कटी पूंछ तड़प रही है. उसका उत्तराधिकार आईएएस और आईपीएस की नौकरशाही ने ओढ़ लिया है. उनके तेवर, मुद्रा और तैश में फिरंगी अब भी गुर्राता है.

छोकरे नौकरशाह अस्पताल की टेबल पर पैर चढ़ाकर पीड़ितों से बात करते हैं. अपने मातहत कर्मचारियों को सार्वजनिक रूप से चांटा मारते हैं. अधीनस्थ कर्मचारियों तथा पीड़ितों के साथ बलात्कार करते भी सकुचाते नहीं हैं. पुलिसिया इजलास में तो साहब, हुजूर, माई बाप, सरकार, बड़े साहब जैसे शब्दों का रौद्र संगीत आतताइयों की दहाड़, चीत्कार, ललकार, डांटडपट और दूसरी ओर पीड़ित सर्वहारा के रूदन, सुबकने और चीखने कराहने की संगति में गूंजता रहता है.

कहा होगा यूनानी दार्शनिक अफलातून ने डेमोक्रेसी लोगों के द्वारा, लोगों का और लोगों के लिए शासनतंत्र है. लोग अदृश्य हैं. संदर्भ हैं. नेपथ्य में हैं. बराएनाम हैं. उपस्थित होकर भी दिखते नहीं हैं. फिर भी उनके उल्लेख का दुरुपयोग किए बिना डेमोक्रेसी का शीशमहल खड़ा नहीं हो सकता.

भारत शीशमहल है जिसमें विदेशी सांड़ों के घुसे रहने की हालत है. सरकारी तंत्र हम्माम है. सब कुछ छिपाने के बाद भी सब कुछ दिखा तो रहा है.

आईन के आईने का कांच चमकदार है. सतह पर समय की धुंध, गर्द और मैल है. हौसला भारत के अवाम में हो. वह कार्यपालिका और न्यायपालिका को हुकूमतशाही की संस्थाएं नहीं समझे. संविधान हम भारत के लोगों ने लिखा है.

हमें सस्ता, सुलभ और शीघ्र इन्साफ पाने का हक है. तीनों संवैधानिक संस्थाएं लंगड़ा कर चल रही हैं. उनकी धमनियों में आस्था का खून इंजेक्ट करना लोकतंत्र की जरूरत है. औड़म बौड़म नेताओं की तस्वीरें विज्ञापनों में रोज परोसी जाती हैं.

अंबेडकर अपने दृष्टिकोण के प्रति आत्मसमर्थित, समर्पित और आश्वस्त रहते थे. उन्हें सभा के बहुत बड़े बहुमत का समर्थन मिलता ही था. मुख्य कारण संवैधानिक समझ के एक एक अवयव को लेकर उनका और जवाहरलाल नेहरू का सहकार था.

दोनों की यूरो-अमेरिकी संवैधानिक दृष्टियों में एक जैसी समझ और पारदर्शी व्याख्या का परिष्कार अंतर्निहित हो गया था. नागरिक आजादी को लेकर उच्च स्तर के अकादमिक, तर्कशील और दार्शनिक नस्ल के समाधानकारक भाषण नहीं हो सके.

फिर भी अंबेडकर का असाधारण अध्यवसाय, हाजिरजवाबी और हर आग्रह को व्यावहारिक बनाकर उस पर संवैधानिक मुलम्मा चढ़ा देने की महारत का संविधान सभा में कोई मुकाबला नहीं था. वे इतनी चुटीली बातें कई बार सूत्र के रूप में भी कह या रच देते थे जो सदस्यों को लाजवाब कर देती थीं.

महंगाई का सूचकांक सबसे ऊंचा है. नेताओं के चरित्र के पतन का पारा शून्य डिग्री के नीचे चला गया है. नेता जनता से लगातार इतने झूठ कह रहे हैं कि जनता सहम गई है कि सच भी नहीं सुनना चाहती. नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले इने गिने वक्ताओं को समाज में झगड़ालू कहा जाने लगता है.

नेता घूस और दलाली के साथ और डकैती की लूट का हिस्सा भी खा रहे आरोपित होते हैं. कॉरपोरेट इकाइयां तो देश की देह और सत्ता की आत्मा का लाइलाज कैंसर हैं. दीमकें बनकर देश के अस्तित्व में घुस गई हैं. अब तो भारत-महल ही भरभराकर गिर जाने को है.

संविधान उपजाऊ खेत है. उसमें हर पांच साल में जनविश्वास की फसल के बीज बोए जाते हैं. मतदाता किसान होता है. खुश होता है फसल के पकने पर अब अच्छे दिन आएंगे. धरती पुत्र किसान या तो आत्महत्या करता है, अन्यथा पांच साल बाद आत्महत्या करने का मौसम ढूंढ़ता है.

हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज न तो स्थानांतरित किए जा सकते हैं, न ही उनका निलंबन हो सकता है और न ही उनके खिलाफ कोई विश्वसनीय जांच की जा सकती है. वे संसद और विधानसभाओं के अधिनियमों और कानूनों, सरकारी आदेशों और निर्णयों को खारिज, बदल या संशोधित कर सकते हैं.

वे अदालत कक्ष में बैठकर किसी भी अनुपस्थित व्यक्ति, वकील या मुवक्किल पर अभद्र टिप्पणी कर देते हैं. वे अपने वेतन खुद बढ़ा लेते हैं. अपनी छुट्टियां तय कर लेते हैं. संदिग्ध व्यक्तियों के साथ रिश्ता रखने में उन्हें कई बार परहेज नहीं होता. वे अपनी संतानों और निकट रिश्तेदारों को उसी न्यायालय में बैठकर वकालती पेशे में समृद्ध कर रहे हैं.

याचक, कर्मचारी, छात्र, महिलाएं और अपराधी (भी) न्यायिक-अन्याय के लगातार शिकार होते चलते हैं. बरसों उन मुकदमों को लटकाकर रखते हैं, जब तक कि याचिकाकार की नियुक्ति का अधिकार न्यायालय की चौखट पर दम नहीं तोड़ दे.

डॉक्टरों के मानव व्यापार कारखानेनुमा अस्पताल वेंटिलेटर पर पड़े मरीज की लाश तक नहीं सौंपते, जब तक अवैध फीस का पूरा भुगतान नहीं कर दिया जाए. कई नेता राष्ट्रीय अस्मिता ताक पर रखकर अमेरिका के चरणों में लगातार लोट रहे हैं. अंगरेजी भाषा, शासन व्यवस्था और तहजीब को नौकरशाही चंदन की तरह माथे पर लीपे हुए है.

सरकारों, विदेशियों, नौकरशाहों, अदालतों वगैरह ने मिलकर भारतीयों को ‘देश‘ नाम के मकान का किराएदार बना दिया है. इस संपत्ति पर कब्ज़ा ‘मेक इन इंडिया‘, ‘बुलेट ट्रेन‘, ‘स्मार्ट सिटी‘, ‘अंगरेज़ियत, ‘स्किल इंडिया‘‘, ‘स्टार्ट अप‘, ‘लॉर्ड मैकॉले‘, ‘सबका साथ सबका विश्वास‘, ‘एड्स की बीमारी‘, ‘किसानों की आत्महत्या‘, ‘स्त्रियों के बलात्कार‘, ‘कॉरपोरेटियों के अनाचार‘ का हो गया है. पता नहीं यह देश किसका है?

संविधान इक्कीसवीं सदी की दहलीज़ पर खड़ा होकर वक्ती तौर पर नहीं, बल्कि वक्त के हाथों अपने मूल्यांकन की संभावनाएं टटोल रहा है. भारत आज दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होकर अपनी सबसे कठिन और चुनौतीपूर्ण यात्रा में है.

यह एक तरह का विशाल केनवस, वॉल कैलेण्डर या क्लास रूम का ब्लैक बोर्ड है जिस पर कोई भी उजली इबारत लिखी जा सकती है. काश! यह बात उन लोगों के गले उतरती जिनके कंठ में संविधान का वाचन तो है, वचन में कर्म नहीं.

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