लंबा सफर अभी बाकी है
एनएफएचएस-4 के आंकड़ों में सुधार तो दिखता है लेकिन गंभीर चिंताएं अभी बरकरार हैं.
भारत में स्वास्थ्य की स्थिति के आंकड़ों का असर नीतियों पर होना चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य से हर बार ऐसा नहीं होता. दस साल के अंतराल के बाद स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण यानी एनएफएचएस-4 के आंकड़े जारी किए हैं. पहले के यानी 2005-06, 1998-99 और 1992-93 के सर्वेक्षण की तरह इस बार का सर्वे भी बच्चों और व्यस्कों के स्वास्थ्य संबंधी आंकड़े अखिल भारतीय स्तर पर मुहैया कराता है. इस बार के सर्वे का दायरा बड़ा है. इस वजह से इसमें अधिक आंकड़े हैं. इन्हें जिला स्तर तक देखा जा सकता है. इससे राज्यों के अंदर के अंतर को समझने में मदद मिलेगी.
नए सर्वे में नए आंकड़ों की तुलना एनएफएचएस-3 के आंकड़ों से की गई है. उदाहरण के तौर पर औसत से कम विकास यानी स्टंटेड बच्चों का प्रतिशत 2005-06 के 48 फीसदी के मुकाबले 2015-16 में 38 फीसदी हो गया. इससे पता चलता है कि कुपोषण में कमी आई है. जिन बच्चों का टीकाकरण पूरा हो गया उनका प्रतिशत 44 से बढ़कर 62 हो गया है. वहीं प्रजनन दर 2.7 से घटकर 2.2 पर आ गई है. यह आबादी को मौजूदा स्तर पर बरकरार रखने के लगभग बराबर है.
संस्थागत प्रसव 39 फीसदी से बढ़कर 79 फीसदी पर पहुंच गया है. सार्वजनिक केंद्रों पर होने वाले प्रसव का प्रतिशत 18 से बढ़कर 52 पर पहुंच गया है. इससे पता चलता है कि अगर उपलब्धता हो तो निजी केंद्रों पर इन केंद्रों को महिलाएं तरजीह दे रही हैं. इस बात में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि अपनी कमियों के बावजूद राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन और जननी सुरक्षा योजना ने स्थितियों को सुधारने में अपना योगदान दिया है.
इसके अलावा इस सर्वेक्षण से उन मोर्चों का भी पता चलता है जिन पर अभी काफी कुछ करने की जरूरत है. सबसे पहली बात तो यह है कि सुधार के बावजूद अब भी कई मोर्चों पर विभिन्न वर्गों के बीच काफी बड़ा अंतर बना हुआ है. इसे एक उदाहरण के जरिए समझें. सर्वे बताता है कि आमदनी के लिहाज से सबसे कम कमाने वाले 25 प्रतिशत परिवारों में 51 फीसदी बच्चे स्टंटेड हैं और 49 फीसदी का वजन मानक से कम है. जबकि अधिक कमाने वाले 25 फीसदी परिवारों में यह आंकड़ा क्रमशः 22 फीसदी और 20 फीसदी है. कम कमाने वाले 25 फीसदी परिवारों की एक चैथाई माताओं ने ही चार से अधिक बार प्रजनन को लेकर अस्पताल जाने का काम किया है. जबकि अमीर 25 फीसदी वर्ग की ऐसी माताओं का प्रतिशत 73 फीसदी है. सर्वेक्षण से पता चलता है कि अलग-अलग क्षेत्रों और सामाजिक-आर्थिक वर्ग के बीच अंतर बना हुआ है. बिहार का प्रजनन दर 3.4 पर बना हुआ है. यह 1991-92 में राष्ट्रीय औसत था. वहीं तमिलनाडु का प्रजनन दर 1.7 है. उत्तर प्रदेश में शिशु मृत्यु दर 64 है. वहीं कर्नाटक में 28 है.
सर्वे में कई आंकड़े ऐसे हैं जो यह बताते हैं कि स्वास्थ्य नीति बनाते वक्त कुछ बातों पर अधिक गंभीरता से विचार करने की जरूरत है. जैसे शहरी क्षेत्रों का लगातार नजरंदाज किया जाना. पिछले सर्वेक्षण में इन क्षेत्रों में पूर्ण टीकाकरण वाले बच्चों की संख्या 58 फीसदी से बढ़कर 64 फीसदी तक ही पहुंच पाई है. ग्रामीण क्षेत्रों में यह प्रतिशत 62 है. जन्म लेने के घंटे भर के भीतर स्तनपान करने वाले बच्चों का प्रतिशत शहरी और ग्रामीण दोनों इलाकों में लगभग बराबर ही है. शहरी इलाकों में यह 43 फीसदी है और ग्रामीण इलाकों में 41 फीसदी. वहीं छह महीने तक के वैसे बच्चे जो सिर्फ स्तनपान करते हों, उनकी संख्या ग्रामीण क्षेत्रों में 56 फीसदी है. शहरी क्षेत्रों में यह आंकड़ा 52 फीसदी है. लंबाई के मुकाबले कम वजन वाले बच्चों की संख्या शहरों और गांवों में एक बराबर 7.5 फीसदी है. जिस तेजी से शहरीकरण हो रहा है, उसे ध्यान में रखते हुए स्वास्थ नीतियां तैयार की जानी चाहिए.
भारत में कुपोषण के साथ-साथ मोटापे की भी समस्या है. गैर संक्रामक बीमारियां जैसे मधुमेह और हाइपरटेंशन की समस्या भी गंभीर है. सर्वेक्षण बताता है कि 21 फीसदी महिलाएं और 19 फीसदी पुरुष मोटापे के शिकार हैं. यह समस्या शहरों में अधिक गंभीर है. इस स्थिति के लिए खास तौर पर खाद्य तंत्र का भूमंडलीकरण भी जिम्मेदार है. अनाज उत्पादन से लेकर उसके वितरण और कारोबार स्थानीय लोगों के हाथों से निकलकर बड़ी कंपनियों के हाथों में चला गया है. भारत ने इसे रोकने और खान-पान की विविधता को बनाए रखने के लिए शायद ही कुछ किया हो.
गैर संक्रामक बीमारियों को कम करने को इस सर्वेक्षण में एक लक्ष्य तो बताया गया है लेकिन यह कैसे किया जाएगा, इस बारे में कुछ नहीं कहा गया. दरअसल, यह सर्वेक्षण स्वास्थ्य के लिए जिम्मेदार सामाजिक कारकों जैसे पोषण, स्वच्छता, लिंग और गरीबी से तादात्मय बनाने में नाकाम दिखता है. इसके अलावा स्वास्थ्य क्षेत्र में सक्रिय निजी क्षेत्र के नियमन के बारे में भी इसमें कोई व्यवस्था नहीं दिखती. आज जब अधिक से अधिक लोग स्वास्थ्य सेवाओं के लिए निजी क्षेत्र की शरण में जाने को मजबूर हैं तो ऐसे में उपयुक्त नियमन की व्यवस्था समय की मांग है. भारतीय स्वास्थ्य तंत्र का जोर सिर्फ मुनाफा कमाने पर नहीं होना चाहिए. बल्कि सरकार को यह कोशिश करनी चाहिए कि हर तरह की सेवा सरकारी क्षेत्र में मिल सके.