विविध

लंबा सफर अभी बाकी है

3.
खतरनाक खामोशी
व्यापम घोटाला सनकीपन और अनदेखी का डरावना उदाहरण है.
यह समझ से परे है कि घोटालों के लिए भूखी मीडिया ने व्यापम घोटाले पर रिपोर्टिंग क्यों छोड़ दी. दाखिले और नियुक्ति से संबंधित यह घोटाला मध्य प्रदेश का है. 2013 में यह मामला व्यापक तौर पर सामने आया. तब से लेकर अब तक इस मामले से जुड़े 44 अभियुक्तों और गवाहों की रहस्यमय ढंग से मौत हो चुकी है. इस मामले में तकरीबन 2,000 लोग ऐसे हैं जिन पर कोई न कोई आरोप है. आरोप मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल में उनके सहयोगियों पर भी हैं. इसके बावजूद राष्ट्रीय मीडिया इस मामले पर खतरनाक खामोशी बरते हुए है. यह ऐसा मामला है जिसने हजारों नौजवानों का करिअर खराब किया. वह चाहे मेडिकल पाठयक्रमों में दाखिले का मामला हो या अन्य व्यावसायिक सेवाओं में भर्ती का. इसने डाॅक्टरों में लोगों का भरोसा कम किया. अन्य मामलों में गहरी दिलचस्पी लेने वाली न्यायपालिका ने भी इस मामले में ऐसी दिलचस्पी नहीं दिखाई जिससे समयबद्ध तरीके से इसकी निष्पक्ष जांच हो सके. सीएजी ने भी हाल की अपनी एक रिपोर्ट में भी राज्य सरकार को सुनियोजित तरीके से नियमों को ताक पर रखने का दोषी पाया है. लेकिन कांग्रेस पर लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोपों पर हमलावर रुख अपनाने वाली भाजपा इस मामले में पपूरी तरह शांत है.

कैग की रिपोर्ट विधानसभा में मार्च के आखिरी दिनों में रखी गई. इसमें बताया गया है कि व्यापम घोटाला सामने आने के बाद भी व्यावसायिक परीक्षा मंडल में परीक्षा लेने के लिए कोई नियामक ढांचा नहीं था. सरकारी सेवाओं के लिए ली जानी वाली परीक्षाओं की संख्या को लेकर कोई आंकड़ा बोर्ड के पास नहीं था. इससे पूरी प्रक्रिया अपारदर्शी लगती है और बोर्ड की साख कम होती है. कैग की रिपोर्ट में जो सबसे खतरनाक बात कही गई वो यह है कि मध्य प्रदेश सरकार ने कैग को व्यापम दस्तावेजों की जांच की मंजूरी नहीं दी. वह भी यह कहकर कि व्यापम सरकारी संस्था नहीं है. जबकि हर मामले में यह सरकारी नियंत्रण में काम करती है. रिपोर्ट में यह कहा गया है कि राज्य कर्मचारी चयन आयोग की अनदेखी करके सरकार ने व्यापम को सभी सरकारी नियुक्तियों का काम दे दिया और राज्य सेवा में से इसमें शीर्ष अधिकारियों की नियुक्ति कर दी.

व्यापम से जुड़ी अनियमितताएं 2009 के पहले भी सामने आई थीं. इसमें एक व्हिसल ब्लोअर ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया था कि एक गठजोड़ बनाकर कुछ लोगों को फायदा पहुंचाने की कोशिश की जा रही है. इसमें किसी अभ्यर्थी की जगह नकली अभ्यर्थी को परीक्षा में बैठाना, किसी को फायदा पहुंचाने के लिए उत्तर पुस्तिका में बदलाव कर देना और कमजोर छात्रों को अच्छे छात्रों से नकल करने की छूट जैसी बातें शामिल थीं. पहले पुलिस, बाद में विशेष जांच दल और अब केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो यानी सीबीआई की जांच में लगातार सवाल उठे और आरोप लगे. इसके बावजूद इस रैकेट के पीछे के असली ताकतों के बारे में कुछ पता नहीं चल पाया. सीबीआई जांच खुद कई तरह के आरोपों को झेल रही है. इस मामले में आरोप मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान पर भी लगे. उन पर और उनकी पत्नी पर जब यह आरोप एक कांग्रेसी नेता ने लगाया तो उन्होंने उसके खिलाफ मानहानी का मुकदमा ठोंक दिया. उनके अलावा राज्य के कई अन्य भाजपा नेताओं पर भी इस घोटाले में शामिल होने का आरोप लगा है. लेकिन अब तक जो गिरफ्तारियां हुई हैं, उनमें या तो छात्र शामिल हैं या उनके अभिभावक या बिचैलिये. बोर्ड ने बहुत सारे लोगों की सरकारी नौकरियों की पात्रता रद्द कर दी. इससे पता चलता है कि जो प्रभावित थे, वही फिर से शिकार हुए. शिक्षाविदों ने व्यापम को सिर्फ एक घोटाले के रूप में नहीं देखा बल्कि इसे राज्य समर्थित नकल माना जिसने उद्योग का शक्ल ले लिया. यह उस शिक्षा प्रणाली का नतीजा है जिसे निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए लगातार कमजोर किया गया.

राष्ट्रीय मीडिया ने इस मामले में तब दिलचस्पी ली जब इस मामले की जांच करने वाले एक युवा टीवी पत्रकार की मौत हो गई. एक खोजी पत्रिका ने इस मामले पर अपनी एक रिपोर्ट में बताया कि जिस तरह से मध्य प्रदेश में पत्रकारों और जजों को रियायती दर पर आवासीय जमीन दी गई है, वह एक वजह इस मामले के मीडिया से गायब रहने की हो सकती है. इस मामले से जुड़े 45 मौतों को आधिकारिक तौर पर 25 बताया जाता है. इन्हें मीडिया ने कवर तो किया लेकिन आगे कोई छानबीन नहीं की. पूरा ध्यान भाजपा और कांग्रेस के आरोप-प्रत्यारोप पर रहा न कि कैग द्वारा ध्यान दिलाए गए सुनियोजित गड़बड़ियों पर.

आठ साल बाद भी मुख्य व्हिसल ब्लोअर को अपनी जिंदगी का भय सता रहा है और इससे जुड़े अन्य लोग भी ऐसी ही स्थिति में हैं. लेकिन अब तक मामले की जांच कहीं जाती नहीं दिख रही. सिविल सोसाइटी ने भी यह सुनिश्चित करने के लिए जरूरी प्रयास नहीं किए जिससे कसूरवारों को पकड़ा जा सके. हाल के समय में अन्य किसी घोटाले के मुकाबले व्यापम घोटाला ही ऐसा है जो यह दिखाता है कि भारतीय राजव्यवस्था में जवाबदेही की कितनी कमी है और कितनी आसानी से गलतियां करने वाले कानून से बचे रह सकते हैं.

1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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