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अंग्रेजों के मैले के टोकरे

कहने में यह बात छोटी लगती है कि अदालतों और सरकारी दफ्तरों, या जनता के पैसों पर मिलने वाली बिजली का इस्तेमाल करने वाले लोग अगर इस देश के वातावरण, यहां की गर्मी-ठंडी के मुताबिक कपड़े पहनें तो काफी बचत हो सकती है. सरकारी बचत से परे निजी दफ्तरों और घरों में भी ऐसी बचत हो सकती है क्योंकि बिजली की कमी तो देश भर में है, और बिजली को बचाने का मतलब पर्यावरण को बचाना भी है.

ठीक इसी तरह का एक दूसरा मुद्दा यह भी दिखता है कि लोग अपने घरों के खुले आंगन, छतों पर, और दीवारों या बाल्कनी में ऐसे पौधे लगा देते हैं, ऐसे लॉन लगाते हैं जो कि खूब पानी पीते हैं. फिर इन्हें जिंदा रखने के लिए लोग बहुत सा पानी इंतजाम करके लाते हैं, और हरियाली की वजह से पर्यावरण-प्रेमी कहलाते हैं. बहुत से लोग तो ऐसी असंभव किस्म की घरेलू हरियाली की वजह से पर्यावरण के पुरस्कार भी पा लेते हैं.

हकीकत यह है कि जिस देश-प्रदेश में जैसे पेड़ लगने चाहिए वह तो कुदरत ने ही बता दिया है. लेकिन लोग अपनी जगह से हटकर दूसरी तरह के पेड़-पौधे लगाकर लोग एक अनोखापन दिखाते हैं, और वाहवाही पाते हैं. लेकिन ऐसा करने के लिए वे कुदरत के खिलाफ जाकर कई तरह के खर्च करते हैं, और पानी खर्च करके कुदरत को ही बर्बाद भी करते हैं. ऐसा ही हाल उन लोगों का रहता है जो गर्म इलाकों में ऐसे कुत्ते पालते हैं जो कि ठंडे इलाकों की नस्लों के रहते हैं, और अपने बड़े-बड़े बालों की वजह से, ठंड की अपनी जरूरत की वजह से वे गर्मी में बदहाल रहते हैं, उन्हें रखने के लिए कूलर और एसी पर बिजली पर खर्च की जाती है, उन्हें नहलाने में ढेरों पानी खर्च होता है, और वे दिखावटी नस्ल के ऐसे प्राणी बनकर रह जाते हैं जो खुद भी तकलीफ पाते हैं, पर्यावरण पर भी बोझ रहते हैं, और वे महज सजावट के सामान की तरह, एक महंगे सामान की तरह साबित होते हैं.

आज जब पर्यावरण के लिए लोगों में एक जागरूकता आ रही है, और जिम्मेदारी का एक एहसास हो रहा है, तो इन कुछ बातों को छोडऩा जरूरी है. भारत में मुगलों के वक्त तो गर्म पोशाकों की ऐसी नकल नहीं हुई, लेकिन अंग्रेजों के वक्त से तो जो नकल शुरू हुई, वह आज तक खत्म नहीं हुई. लोग इस बात को भी नहीं समझ रहे हैं कि एप्पल कंपनी खड़ी करने वाले स्टीव जॉब्स से लेकर फेसबुक बनाने वाले मार्क जुकरबर्ग तक अनगिनत ऐसे खरबपति लोग हैं जिनकी सूट-बूट में शायद ही कोई तस्वीर दिखती हो. जो अपनी कंपनी के सबसे बड़े जलसे में भी टी-शर्ट और जींस में मंच पर रहते हों. इसलिए पोशाक की गुलामी-सोच से छुटकारा पाने की जरूरत है, और अपने इलाके के मौसम के मिजाज के मुताबिक कपड़े पहनकर धरती को बचाने की जरूरत भी है.

कुछ महीने पहले जब छत्तीसगढ़ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बस्तर आए तब एक जिले के कलेक्टर को राज्य सरकार से इस बात के लिए नोटिस दिया गया कि उसने प्रधानमंत्री की अगवानी करते हुए परंपरागत पोशाक-नियम का पालन नहीं किया, और बंद गले का कोट नहीं पहना. हमारा ख्याल है कि भयानक गर्मी के बीच खुली धूप में बंद गले का कोट पहनने का नियम बनाना भी मानवाधिकार के खिलाफ है, और किसी को इस बात को चुनौती देनी चाहिए. इस अफसर को मिले नोटिस में यह भी जिक्र था कि उसने धूप का चश्मा लगा रखा था. हकीकत यह है कि तेज धूप में धूप का चश्मा लगाने की सिफारिश चिकित्सा विज्ञान करता है, और यह हिन्दुस्तान जैसा देश ही सोच सकता है कि धूप का चश्मा लगाना बेअदबी है.

अंग्रेजों के छोड़े हुए इस टोकरे को ढोना बंद करना चाहिए, और हिन्दुस्तान को अपने आपमें एक देश की तरह जीने का आत्मविश्वास दुबारा हासिल करना चाहिए. जब भयानक गर्मी में लोग परेशान हों, तब किसी भी तरह की कोट या जाकिट क्यों इस्तेमाल की जाए? और खासकर जनता के पैसों पर? और खासकर इस देश में जहां एक बड़ी आबादी बिजली के बिना अंधेरे में, गर्मी में रहती है, और काम के औजार भी नहीं चला पाती है. अंग्रेजों के मैले के टोकरे ढोना बंद करना चाहिए.

* लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शाम के अखबार छत्तीसगढ़ के संपादक हैं.

One thought on “अंग्रेजों के मैले के टोकरे

  • sunil sharma

    आदरणीय… यह सबसे बड़ी समस्या हैं…इन दिनों यह प्रासंगिक भी है-

    – आज गली-मोहल्लों में खुलने वाली छोटी-छोटी अंग्रेजी स्कूलों के छोटे-छोटे बच्चों के गलों में भी दुमछल्ले की तरह एक टाई टांग दी जाती है, और मैनेजमेंट जैसी महंगी पढ़ाई करवाने वाले कॉलेज या इंस्टीट्यूट एक महंगा माहौल बनाने के लिए गर्म शहरों में भी छात्र-छात्राओं को कोट और टाई में बांधकर रखने लगे हैं.
    बढ़िया कॉलम शुरू हुआ है। सुनील कुमार जी ने बहुत ही बढ़िया लिखा है। आगे का हिस्सा भी कृपया जल्द पोस्ट करिए।

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