अब इस हवा का क्या करें
दिवाकर मुक्तिबोध
स्मार्ट सिटी, स्मार्ट विलेज, मेक इन इंडिया, स्टैंडअप इंडिया, डिजिटल इंडिया जैसे लुभावने नारों के बीच गौर करें शहरों, गांवों में वस्तुस्थिति क्या है? ढाई वर्ष पूर्व केन्द्र में भाजपा सरकार के सत्तारुढ़ होने के बाद क्या वाकई देश बदल रहा है? लंबी बहस का विषय है. तर्क-कुतर्क अंतहीन क्योंकि बहुत कुछ राजनीतिक चश्मे से देखा जाना है. बहरहाल केवल राज्य की बात करते हैं. अपने राज्य की, छत्तीसगढ़ की, राजधानी रायपुर की. और बात भी केवल हवा की, वायुमंडल की जो दिनों दिन इतना विषाक्त हो रहा है कि सांस लेना भी मुश्किल.
इस विषय पर आगे बढऩे के पूर्व हाल ही में मीडिया में आई दो खबरों पर गौर करेंगे. पहली खबर थी ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजिज की उस रिपोर्ट की जिसके अनुसार वर्ष 2015 में वायुप्रदूषण से सबसे अधिक मौतें भारत में हुई हैं जो चीन से भी अधिक है. आंकड़ों में कहा गया है कि 2015 में भारत में रोजाना 1640 लोगों की असामयिक मौतें हुई जबकि इसकी तुलना में चीन में 1620 जानें गई. चीन दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषित देश माना जाता है.
अब दूसरी खबर देखें, रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार आस्ट्रेलिया के मुकाबले रायपुर शहर के औधोगिक इलाकों में वायुमंडल में धूल के कणों की मात्रा 18 हजार गुना अधिक है. कुछ तर्कों के साथ आप इस अध्ययन को आराम से खारिज भी कर सकते हैं लेकिन अलग-अलग अध्ययन में ऐसी रिपोर्ट कई बार आई हैं कि रायपुर देश-विदेश के 10 सबसे गंदे शहरों में शुमार है.
लेकिन यह तो हकीकत है कि शहर बदल रहे हैं. भौतिक संरचनाओं की प्रगति साफ नज़र आती है. किन्तु हवा का क्या? वायु मंडल निरंतर जहरीला क्यों हो रहा हैं? लोगों का स्वास्थ्य क्यों बिगड़ रहा है? दमा, अस्थमा, ब्रांकाइटिस जैसी वायुजनित बीमारियां क्यों बढ़ रही हैं? क्यों लोग मर रहे हैं? क्यों सब जगह धूल ही धूल है? सड़कें ऐसी क्यों बनाई जाती हैं कि सीमेंट की परत उखडऩे के साथ ही बजरी का गुबार दो पहियों पर सवार लोगों एवं पदयात्रियों को धूल धूसरित कर देता है? क्यों ? क्यों ?
दरअसल अनियोजित विकास, दृष्टि का अभाव एवं सरकार में इच्छाशक्ति की कमी इसका मूल कारण है. एक बड़ा कारण जनता का विद्रोही स्वभाव का न होना भी है जो हर कठिनाई को बर्दाश्त करती है, गुस्से को पी जाती है. शांत रहते हुए ज्यादतियों को सहन करती हैं. आम तौर पर लोकतांत्रिक देश की जनता ऐसी ही होती है. और यह स्थिति प्रत्येक शासन के लिए मुफीद है, सरकारें चाहे किसी भी राजनीतिक दल की हो. छत्तीसगढ़ में बीतें 12 वर्षों से भाजपा की सरकार है. इन वर्षों में उसने कई अच्छे काम किए हैं, किंतु कुछ चुनौतियां ऐसी भी हैं जिससे निपटने में उसकी कोई रूचि नजर नहीं आती. औद्योगिक प्रदूषण ऐसी ही एक चुनौती है जिसका जनस्वास्थ्य से सीधा संबंध है.
इस मुददे को लेकर बहुत बाते होती रही हैं पर हुआ क्या? वायुमंडल में काली धूल के बारीक कणों की मात्रा निरंतर बढ़ती जा रही है. राजधानी के किसी भी घर की छत पर आप जाइए, पैरों के पंजों की छाप बनती चली जाएगी. शहर से सटे औद्योगिक इलाकों के संयंत्र औद्योगिक सुरक्षा व वायु प्रदूषण नियंत्रण इकाइयों के सारे सरकारी नियम कायदों को चुनौती देते नज़र आएंगे. किसी पर कोई नियंत्रण नहीं. और यह सब इस वजह से क्योंकि सारा कुछ सधा-बधा है. मंत्री, नेता, उद्योगपति और इनके बीच की कड़ी अधिकारी-कर्मचारी. रिश्वत में ताकत ही कुछ ऐसी होती है कि जनता एवं उसकी तकलीफों की परवाह करने की जरूरत नहीं.
ऐसा नहीं कि विषाक्त होते वातावरण और इसके लिए जिम्मेदार उद्योग व उद्योगपतियों के खिलाफ आवाज़ न उठी हो, आंदोलन न हुए हों. कभी भाजपा के वरिष्ठ विधायक और अब राज्य शासन के एक महत्वपूर्ण ओहदे पर सवार देवजी पटेल ने आंदोलन की कमान संभाली थी. उद्योगपतियों के घरों के सामने प्रदर्शन किया गया था. और तो और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता स्व. विद्याचरण शुक्ल ने भी जन-आंदोलन खड़ा किया था. पर चंद दिनों की गहमागहमी के बाद सब कुछ शांत हो गया. स्पंज आयरन व इतर संयंत्र यथावत जहर उगलते रहे और अभी भी उगल रहे हैं. वर्षों से यह सिलसिला चला आ रहा है.
सरकार दावे बहुत करती है. हाल ही में दावा किया गया कि वायु प्रदूषण के नियंत्रण के उपाय न करने पर 42 रोलिंग मिलों में उत्पादन रोक दिया गया है. एक और दावा जो बड़ा महत्वपूर्ण है, राज्य सरकार के अपर मुख्य सचिव आईएएस एन. बैजेन्द्र कुमार ने कुछ माह पूर्व किया था. उन्होंने मीडिया से कहा था कि 5 साल के भीतर आबादी से कहीं दूर नई औद्योगिक बस्ती बसायी जाएगी और उरला, सिलतरा, सोनडोंगरी, भनपुरी आदि क्षेत्रों के उद्योग वहां शिफ्ट कर दिए जाएंगे. क्या यह दिवास्वप्न है जो जनता को दिखाया जा रहा है? क्या सरकार ऐसा कर पाएगी? क्या उसमें ऐसी इच्छा शक्ति है?
जिन उद्योगों से उसे राजस्व मिलता है, जिनसे हजारों श्रमिकों की रोजी-रोटी भी चल रही है, और जिनके पास अथाह दौलत और राजनीतिक ताकत है, ऐसे उद्योगपतियों को क्या वह झुका पाएगी? फिर आगे चुनाव है, पार्टी को पैसा भी चाहिए. फिर? जाहिर है सब कुछ ऐसा ही चलता रहेगा. स्वच्छ भारत मिशन, स्वच्छ रायपुर मिशन, स्वच्छ छत्तीसगढ़ मिशन कागजों में एकदम स्वच्छ नज़र आएंगे लेकिन जनता धूल फांकती रहेगी, उसके चेहरे काले पड़ते जाएंगे. वर्षों से जारी यह क्रम पता नहीं कब तक जारी रहेगा.
दरअसल सरकार की आत्मा को झकझोरने वाला कोई जन नेता नहीं है. क्या शंकर गुहा नियोगी के बाद जनता को कोई ऐसा नेता मिला है? नहीं तो फिर बर्दाश्त करते रहिए.