प्रसंगवश

जिन पत्तों पे तकिया था

कनक तिवारी
छत्तीसगढ़ में कोरबा लोकसभा के कांग्रेसी उम्मीदवार तथा केन्द्रीय मंत्री डॉ. चरणदास महंत ने बहुत संजीदगी से कहा है कि मौजूदा चुनाव उनके जीवन का सबसे कठिन चुनाव रहा है. उन्हें अपने ही लोगों ने ज़्यादा धोखा दिया है. महंत पहले कई चुनाव जीत चुके हैं. तब उन्होंने ऐसा दुःख व्यक्त नहीं किया था.

राजनीति में अपनों के द्वारा धोखा दिया जाना कोई नई फितरत नहीं है. उम्मीदवार को यह पूर्वानुमान बल्कि जानकारी होनी ही चाहिए कि आस्तीन में कितने सांप पल गए हैं. कुछ फुफकारते हैं. कुछ डस भी लेते हैं. उनसे निपटे बिना चुनाव लड़ना संभव नहीं है.

शायद सबसे पहले यह उच्छवास लंका के राजा रावण का रहा होगा. उसने भाई विभीषण के लिए उसकी राम भक्ति को देखकर कहा होगा. यही काम यह जयचंद और मीर जाफर जैसे राजनीतिक गद्दारों ने भी किया है. 1857 के स्वतंत्रता युद्ध के दौरान झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को ग्वालियर के शासक ने मदद देने के नाम पर बुलाया था. बाद में धोखा देकर अपना समर्थन अंगरेजों की तरफ कर दिया. इसलिए झांसी की रानी की शहादत ग्वालियर में हुई.

कांग्रेसी राजनीति में कलह होने पर अलग अलग खेमों ने इन्दिरा गांधी और मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया. इन्दिरा गांधी को ‘मोम की गुड़िया‘ कहते हुए पूंजीवादी तत्वों के प्रतिनिधि सिंडीकेट ने मोरारजी देसाई को धता बताकर इन्दिरा गांधी का साथ दिया. यही करम विश्वनाथ प्रताप सिंह का था. राजीव गांधी के मंत्रिमण्डल में वित्तमंत्री रहते हुए उन्हें सभी सरकारी फाइलों की गोपनीय जानकारी मालूम होती ही थी. संविधान की शपथ खाने के बाद भी उन्होंने गोपनीय जानकारियों का राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए भरपूर फायदा उठाया. बोफोर्स का बदनाम दाग राजीव गांधी के चरित्र पर लगाकर वी.पी. सिंह ने प्रधानमंत्री की कुर्सी हथिया ली.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की विवादित पुस्तक ऐसे ही करम का नतीजा है. बारू को जितनी भी जानकारियां हुईं, वे सब सरकारी पद की गोपनीयता की शपथ के तहत ही हुई होंगी. ऐसी जानकारियों को लोकसभा चुनाव के दौरान कुछ राजनीतिक तत्वों को फायदा पहुंचाने की दृष्टि से पुस्तक के प्रकाशन के जरिए सार्वजनिक किया गया. बहाना बनाया गया कि पुस्तक के प्रकाशन की तिथि प्रकाशक ने तय की थी. थोड़ी सी वाहवाही और आर्थिक लाभ के लिए बारू ने धोखेबाजी की मिसाल तो कायम की. प्रश्न सच्चाई का नहीं है. सच्चाई को उजागर करने के नाम पर स्वार्थ की रोटियां सेंकने का है.

पूर्व कोयला सचिव पी.सी. परख की किताब भी लगभग ऐसी ही कथा कहती है. सचिव के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करने में परख ने नैतिक साहस नहीं दिखाया. संविधान के प्रावधानों के तहत राष्ट्रपति के अधिकारों का क्रियान्वयन उच्च नौकरशाही को कार्य विभाजन नियमों के तहत करना होता है. परख चाहते तो कोयला आवंटन के निर्णयों को असहमति का नोट लिखकर अथवा इस्तीफा देकर रोक सकते थे. ‘अब पछताए होत का जब चिड़िया चुग गईं खेत‘ की शैली में वे जमीन पर लाठियां पटक रहे हैं. कोयले का सांप तो अरबपतियों की तिजोरी में चला गया.

जॉन मथाई नाम के जवाहरलाल नेहरू के सचिव ने भी एक बेहूदी किताब लिखी थी. उसमें नेहरू के लेडी माउंटबेटन के साथ कथित संबंधों का फूहड़ बयान किया गया था. बहुत विश्वस्त अनुचरों को बहुत नज़दीक होने देने के परिणाम भुगतने होते हैं. विद्याचरण शुक्ल ने भी कई अनुयायियों को करोड़पति बनाया. धीरे धीरे उन्होंने शुक्ल की राजनीति से किनाराकशी कर ली. शुक्ल को बहुत गुमान था कि वे सहायकों के दम पर बड़ी राजनीति कर सकते हैं. सब उनके वटवृक्ष के पत्ते यहां वहां बिखर गए.

मौजूदा चुनावों में कांग्रेस को मध्यप्रदेश में पूर्व नौकरशाह डॉ. भागीरथ प्रसाद, उत्तरांचल में सतपाल महाराज, कभी मीडिया सलाहकार रहे एम. जे. अकबर जैसे कई लोगों पर भरोसा था, जिन्होंने पहले पार्टी का पर्याप्त शोषण कर लिया था. वे सब भाजपा में चले गए.

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी खुद 2002 के गुजरात दंगों में उनकी सरकार की संदिग्ध भूमिका के चलते तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की हिट लिस्ट में आ गए थे. वाजपेयी ने उन्हें राजधर्म का पालन करने की प्रसिद्ध नसीहत दी थी. वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने नरेन्द्र मोदी को वाजपेयी के कोप से बचा लिया था.

आडवाणी को अब नरेन्द्र मोदी ने वह पत्ता बना दिया है जो किसी साधारण कार्यकर्ता के लिए भी तकिया बनने के लायक नहीं रहा. आडवाणी के समर्थकों को लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी के टिकट तक नहीं मिले.

राजनीति वह सर्कस है, जहां बहुत से बौने विदूषकों की भूमिका में नागरिकों का मनोरंजन करते रहते हैं. वे सब अपने अपने नेताओं के विश्वासपात्र बन जाते हैं. नेता उन्हें निष्ठा की चट्टानी दीवारें समझने लगते हैं. वस्तुतः वे उपलों की दीवार होते हैं.

शीर्ष नेतृत्व ने कुछ महत्वपूर्ण नेताओं पर पार्टी के फंड को बराबर बराबर बांटने की जिम्मेदारी दी होती है. ये नेता अपनों अपनों को ‘अंधा बांटे रेवड़ी, चीन्ह चीन्ह के देय‘ वाली कहावत का अर्थ समझाते हैं. कई प्रादेशिक प्रभारी विरोधी दलों से करोड़ों की राशि डकार लेने के आरोपी बताए जाते हैं. भले ही विरोधी पार्टी का उम्मीदवार जीत जाए. शीर्ष नेताओं के मुंहलगे प्रवक्ता अपनी पार्टी की गोपनीय खबरें पहले विरोधी पार्टियों के नेताओं को लीक करते हैं. फिर मीडिया से मुखातिब होते हैं. वे सत्तारूढ़ पार्टी से मासिक आधार पर निष्ठा की फीस वसूलते हैं. नेता प्रतिपक्ष तक बनते हैं. फिर चुनाव हार जाते हैं. चुनाव संचालन के लिए तो दलालों की फौजें उग आई हैं. वे सभी पार्टियों से अपना कमीशन वसूल कर यह झांसा देती रहती हैं कि उन्होंने ईमानदारी से काम किया है.

ऐसे में महंत का सार्वजनिक दुःख एक बड़ी राजनीतिक व्याधि के जीवित रहने का समर्थक बयान है.

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