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बोधघाट पर भूपेश बघेल के बदले सुर

रायपुर | संवाददाता : छत्तीसगढ़ के बोधघाट परियोजना को लेकर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के सुर बदल गये हैं. कल तक किसी भी हालत में बोधघाट बनाने का दावा करने वाले भूपेश बघेल ने अब कहा है कि अगर आदिवासी चाहेंगे तभी बोधघाट परियोजना का काम शुरु किया जाएगा.

इससे पहले बोधघाट परियोजना को लेकर हो रहे विरोध पर मुख्यमंत्री ने कहा था कि बोधघाट बन कर रहेगा. उन्होंने इसका विरोध करने वाले अपनी ही पार्टी के नेता और पूर्व केंद्रिय मंत्री अरविंद नेताम को राजनीति छोड़ने की सलाह तक दे दी थी. बोधघाट का विरोध करने के पीछे उन्होंने नक्सलियों का हाथ भी बताया था.

लेकिन अब मुख्यमंत्री ने कहा है कि अगर बस्तर के आदिवासी चाहेंगे तभी बोधघाट बनेगा.

गौरतलब है कि बरसों से बंद पड़ी बोधघाट परियोजना को लेकर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने दावा किया था कि इससे बस्तर का भारी विकास होगा. इस परियोजना को लेकर शहरों में होर्डिंग लगाए गये और विज्ञापन भी छपे.

सरकार ने दावा किया था कि बस्तर इलाके के 359 गांव इस योजना से प्रभावित होंगे. सरकारी अधिकारियों ने प्रचारित किया कि 1,71,075 हेक्टेयर खरीफ, 1,31,075 हेक्टेयर रबी और 64,430 हेक्टेयर गर्मी की फसल की सिंचाई इस परियोजना से होगी. दावा ये कि 3,66,580 हेक्टेयर की सिंचाई इस परियोजना से होगी.

कहा गया कि 4824 टन वार्षिक मछली उत्पादन भी होगा.


लेकिन जब विधानसभा में सवाल आया तो सरकार ने हाथ खड़े कर दिये. सरकार ने विधानसभा में कहा कि उसके पास कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है.

सरकार ने कहा कि योजना का सर्वेक्षण कार्य प्रगतिरत है. सर्वेक्षण कार्य पूर्ण होने एवं प्रशासकीय स्वीकृति प्राप्त होने पर ही सिंचाई के लक्ष्य एवं लागत की जानकारी दिया जाना संभव होगा.

राज्य के कृषि मंत्री रविंद्र चौबे ने अपने जवाब में कहा कि सर्वेक्षण उपरांत अधिग्रहण हेतु आवश्यक राजस्व एवं वन भूमि की जानकारी उपलब्ध कराई जा सकेगी.

मोरारजी देसाई ने रखी थी नींव

बोधघाट जल विद्युत परियोजना की नींव वर्ष 1979 में अविभाजित मध्यप्रदेश के सुदूर अंचल बस्तर से लगभग 100 किलोमीटर दूर ग्राम बारसूर के समीप तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने रखी थी.

बोधघाट बांध परियोजना इन्द्रावती नदी पर बनने वाले अन्य बांध जैसे बांधो कुटरू, नागुर, भोपालपत्तनम और इन्चामपल्ली की श्रृंखला का पहला बांध था. प्रस्तावित परियोजना का तत्कालीन स्वरुप एक जल विद्युत परियोजना थी, जिसमें 125 मेगावाट की 4 इकाइयाँ स्थापित की जानी थीं.

तब इस बांध की कुल ऊंचाई 90 मीटर प्रस्तावित थी, जिसमें दो टनल क्रमशः 3 और 5 किलोमीटर लम्बाई के बनाए जाने थे. परियोजना से 13783.147 जमीन डूब क्षेत्र में आने वाली थी, जिसमें 5704.332 हेक्टेयर वन भूमि भी शामिल थी. तत्कालीन परियोजना के लिए 42 गाँव और 10 हजार की आबादी के विस्थापन का प्रस्ताव था.

वन और वन्यजीवों पर खतरा

बोधघाट परियोजना परवान चढ़ती, उससे पहले समृद्ध वन संपदा, वन्यजीवों की उपस्थति और पर्यावरण पर गंभीर प्रभाव के कारण इस परियोजना को रद्द करने का फैसला करना पड़ा.

जब इस परियोजना की नींव रखी गई उस समय पर्यावरणीय स्वीकृति के लिए पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन (EIA) जैसी कोई प्रक्रिया नहीं थी. 70 के दशक तक पर्यावरणीय मूल्यांकन डिपार्टमेंट ऑफ़ एनवायरनमेंट (DOE) के द्वारा औपचारिक जाँच के आधार पर की जाती थी.

बोधघाट बांध परियोजना को भी इसी प्रक्रिया के तहत में 1979 पर्यावर्णीय स्वीकृति जारी कि गई थी. वर्ष 1980 में वन संरक्षण अधिनियम लागू होने के बाद सभी परियोजनाओं को वन भूमि के गैर वानिकी उपयोग के पूर्व कानून में निर्धारित प्रक्रिया अनुसार “वन स्वीकृति” प्राप्त करना अनिवार्य हो गया. इसलिए बोधघाट परियोजना के लिए वन स्वीकृति हेतु डिपार्टमेंट ऑफ़ एनवायरनमेंट ने एक कार्य समूह का गठन किया, जिसने 1985 में क्षेत्र का दौरा किया.

परियोजना के सामाजिक और पर्यावरणीय दुष्प्रभावों पर विभिन्न समूहों और स्वैच्छिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों ने प्रधानमंत्री को इस परियोजना पर रोक लगाने का निवेदन कर अपनी आपत्तियों को सौंपा. इन आपत्तियों पर संज्ञान लेते हुए प्रधानमंत्री कार्यालय ने पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के सचिव की अध्यक्षता में एक जाँच समिति का गठन 1987 में किया.

उसी समय भारत सरकार के निर्देश पर डिपार्टमेंट ऑफ़ एनवायरनमेंट ने 1989 में भारतीय वन्य जीव संस्थान को भी एक अध्ययन की जिम्मेदारी सौंपी. जिसने वर्ष 1990 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की.

भारतीय वन्य जीव संस्थान के निष्कर्षों में यह पाया गया कि इन्द्रावती नदी का अपना एक खास तरह का जल तंत्र (unique Indravati riparian system) है. इन्द्रावती और उसकी सहायक नदियों के riparian forests और घास जमीन विविध तरीके के वन्य प्राणियों के रहवास का सर्वोत्तम स्थल हैं.

बस्तर के जंगल

रिपोर्ट में कहा गया कि बस्तर का जंगल अपने आप में खास किस्म का दक्षिण नम उष्ण कटिबंधीय पर्णपाती वन हैं जो साल, सागौन और बांस का मिश्रित जंगल हैं. परियोजना से श्रेणी एक के महत्वपूर्ण वन्य प्राणियों, जिनमें संकटग्रस्त सूची में शामिल जंगली वन भैंसा, बाघ एवं तेंदुआ, सियार आदि के विनाश का खतरा पैदा हो जायेगा.

रिपोर्ट में कहा गया कि विशेष रूप से बांध के डाउन स्ट्रीम में स्थित भैरमगढ़ वन्य प्राणी अभयारण में अचानक छोड़े जाने वाले पानी से वन्यप्राणियों के लिए गंभीर खतरा बना रहेगा. भारतीय वन्य जीव संस्थान की रिपोर्ट एवं 1987 में गठित विशेष समिति निष्कर्षों के आधार पर अंततः वर्ष 1994 में परियोजना को वन स्वीकृति देने से मना कर दिया गया एवं 1979 में जारी की गई पर्यावरणीय स्वीकृति को भी निरस्त कर दिया गया. उसके बाद से ही इस परियोजना को ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया.

हालांकि माना जाता है कि इस परियोजना के निरस्त होने के पीछे एक बड़ा कारण आर्थिक भी रहा है. शुरुवाती दौर में परियोजना की कुल लागत लगभग 209 करोड़ थी. बजट की कमी के कारण भी भारत सरकार ने विश्व बैंक से आर्थिक सहायता के लिए प्रस्ताव भेजा. वर्ष 1984 में इस परियोजना की संशोधित लागत के अनुसार विश्व बैंक ने 300 मिलियन डालर की राशि स्वीकृत की.

भारतीय वन्य जीव संस्थान रिपोर्ट में बस्तर के आदिवासी और विशेष रूप से अलग-अलग आदिवासी समुदाय मारिया, मुरिया और झरिया के विस्थापन पर गंभीर चिंता व्यक्त की गई थी. उसमें कहा गया था कि जंगल में निवासरत आदिवासियों की आजीविका और संस्कृति पूर्ण से जल, जंगल, जमीन पर निर्भर हैं. जंगल और आदिवासियों का जुडाव बहुत ही महत्वपूर्ण हैं. लघु वनोपज आदिवासियों की आजीविका का सबसे बड़ा साधन हैं. यदि पुनर्वास में खेती की जमीन दी जाए तो भी वह उनकी टिकाऊ आजीविका नही हो सकती.

जाहिर है, इन रिपोर्टों को ध्यान में रखते हुये बात की जाये तो आज की तारीख़ में ख़तरा जस का तस है. ऐसे में यदि इस परियोजना को मूर्त रूप दिया जाता है तो राज्य बनने के बाद से, सलवा जुडूम के बाद बस्तर की एक बड़ी आबादी को विस्थापन का दंश झेलना होगा.

क्या सच में इस विशाल बांध की जरुरत है?

लगभग 5 दशक बाद, इस जल विद्युत परियोजना को पुनः शुरू करने के राज्य सरकार के निर्णय ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. जिस समृद्ध वन संपदा, जैव विविधता, इन्द्रावती नदी की अपनी खास किस्म की जल संरचना, वन्य प्राणियों के पर्यावास और व्यापक पर्यावरण पर विनाश को देखते हुए इसे वन स्वीकृति देने से मना कर दिया गया था, क्या आज भी वे सारी स्थितियां कहीं और अधिक संरक्षण की मांग नहीं कर रही हैं? लेकिन इसके उलट अब इस विनाशकारी परियोजना को फिर से मंजूरी दी जा रही है. जब पूरी दुनिया गंभीर जलवायु परिवर्तन के संकट से जूझ रही है, तब हम अपने सबसे समृद्ध वनों का विनाश कर सकते हैं ?

विशेषज्ञों का कहना है कि पिछली सदी में पूरी दुनिया में कितने ही बड़े-बड़े बांध बनाए गए, नदियों को बर्बाद किया गया और अरबों लोग अपने जंगल जमीन से बेदखल किये गए. मध्यप्रदेश के ही सरदार सरोवर बांध की त्रासदी हमारे सामने है. गुजरात के खेतों में पानी दिए जाने के उद्देश्य से बनाए गए इस विशाल बांध ने मध्यप्रदेश के सैकड़ों गाँवों और कस्बों को उजाड़ दिया या यूँ कहें कि नर्मदा किनारे की एक पूरी सभ्यता को ख़त्म कर दिया. आज भी प्रभावित समुदाय पुनर्वास की मांग को लेकर संघर्षरत हैं. इस व्यापक विनाश के वाबजूद सरदार सरोवर का पानी गुजरत के किसानों के खेतों में पहुँचने के बजाए बड़ी- बड़ी कम्पनियों को दे दिया गया.

लगभग 4 दशक से नदी बचाने और पर्यावरण पर कार्य कर रहे श्रीपद धर्माधिकारी कहते हैं- “बोधघाट परियोजना, जो वर्षों पहले अव्यवहारिक और पर्यावरणीय दृष्टि से बहुत ज्यादा हानिकारक होने के नाते रद्द कर दी गयी थी, इसे फिर से पुनर्जीवित करने का प्रयास देखकर आश्चर्य होता है. दशकों पहले के सारे कारण आज भी मौजूद हैं और कहीं अधिक प्रबलता से मौजूद हैं तो सरकार का यह निर्णय कई सवाल खड़े करता है.”

श्रीपद का कहना है कि एक तरफ तो हम दुनिया में कई जगह बने हुए बांधों को हटा कर नदियों को पुनर्जीवित करने के प्रयास देख सकते हैं. खास कर अमरीका और यूरोप में हमें ऐसे कई उदहारण मिलते है, थाईलैंड जैसे देश में भी पाक मून बांध में गेट्स खुले रख कर मछलियाँ बचाने का प्रयास दिखता है. जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के परिणाम सामने आते जायेंगे, बांधों के लिए खतरे और बढ़ते जायेंगे और बांधों को हटाने के प्रयास और महत्त्व के होंगे, यह निश्चित है.

श्रीपद धर्माधिकारी कहते हैं-“बोधघाट जैसी परियोजनाओं के लाभ भी बहुत महंगे साबित होंगे. जल विद्युत् परियोजनाओं की लागत बढ़ती ही जा रही है और योजनायें पूरी होने में अधिक विलम्ब होते नजर आता है. केंद्रीय विद्युत् प्राधिकरण (CEA) की “निर्माणाधीन जल विद्युत् परियोजनाओं की प्रगति” की ताजा रिपोर्ट (मई 2020) त्रैमासिक समीक्षा रिपोर्ट के अनुसार देश में 11975 MW जल विद्युत् क्षमता निर्माणाधीन है, जिन में औसतन विलम्ब 100 महीने अर्थात 8 साल से ऊपर है, और लागत दुगनी हो चुकी है. नए जल विद्युत् संयंत्रों से बनी बिजली अब सबसे अधिक महँगी बिजली के रूप में उभर कर आ रही है. परियोजना मंजूर करते समय सस्ती बिजली के सपने दिखाए जाते हैं, पर परियोजना पूरी होते होते इसकी असली कीमत सामने आती है.”

श्रीपद की राय है कि इन्हीं कारणों से म.प्र. सरकार ने महेश्वर जल विद्युत् परियोजना से बिजली खरीदी समझौता रद्द कर दिया है. इसी तरह पंजाब और राजस्थान के विद्युत् वितरण कंपनियों ने तीस्ता-3 जल विद्युत् परियोजना से बिजली के अत्यधिक दाम के चलते समझौता होते हुए भी बिजली खरीदने में अनिच्छा और झिझक दिखाई है. बोध घाट परियोजना का भी यही हाल होने की पूरी आशंका है.

परियोजना से सिंचाई के राज्य सरकार के दावे पर श्रीपद धर्माधिकारी का कहना है कि अब यह स्पष्ट हो गया है कि बड़े बंधों से सिंचाई बहुत महँगी साबित होती है और इसके कई सस्ते विकल्प भी हैं. कई सरकारी रिपोर्ट– जैसे केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय की Committee on Restructuring the CWC and CGWB की रिपोर्ट A 21st Century Institutiona. Architecture for India’s Water Reforms –बड़े बांध केन्द्रित सिंचाई के विकास मॉडल पर प्रश्नचिन्ह खड़े करते हैं. ऐसे में बोध घाट को सिंचाई के लिए बनाना भी तर्कहीन है.

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