सीरिया के लिए न्याय
श्रीनिवास बुर्रा
युद्ध की मार झेल रहे सीरिया के लोगों के लिए शांति कायम करने के लिए कई स्तर पर काम करने की जरूरत है. 7 अप्रैल को तथाकथित तौर पर सीरिया सरकार द्वारा रसायनिक हथियार हमले में आम नागरिकों की जान जाने के बाद वहां अमेरिकी हमले की पटकथा तैयार होती दिख रही है. वहां की बशर अल-असद सरकार के खिलाफ माहौल बन रहा है. पिछले आठ सालों में यहां लाखों लोगों की जान गई है या घायल हुए हैं. मानवीय स्तर पर इस संघर्ष के कई परिणाम हैं. शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त की रिपोर्ट के मुताबिक 2011 से अब तक 54 लाख लोग सीरिया छोड़कर भाग चुके हैं. इन लोगों ने अलग-अलग देशों में शरणार्थी के तौर पर शरण ली है. 61 लाख लोग सीरिया के अंदर विस्थापित हुए हैं और बड़ी संख्या में लोग संघर्ष की वजह से फंसे हुए हैं.
असद सरकार के खिलाफ शुरुआती प्रदर्शनों के बाद गैर-सरकारी सशस्त्र समूहों का गठन हुआ. इससे आंतरिक हथियारबंद संघर्ष शुरू हुआ. स्थितियां और मुश्किल तब हो गईं जब रूस सीरिया सरकार के समर्थन में उतर गया और अमेरिका और उसके साथियों ने इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ने के लिए हस्तक्षेप किया. अमेरिका ने आत्मरक्षा, सामूहिक आत्मरक्षा और मानवता के नाम पर अपने हस्तक्षेप को सही ठहराया. रूस ने अपने हस्तक्षेप को यह कहकर सही ठहराया कि उससे गैर-सरकारी हथियारबंद समूह से लड़ने में सीरिया सरकार ने मदद मांगी है. कई देशों के हस्तक्षेप की वजह से सीरियाई संकट और उलझ गया है. यह देखा गया है कि इसमें शामिल सभी पक्ष संघर्ष से संबंधित कानूनों की अवहेलना करके दखल दे रहे हैं और इससे एक मानवीय त्रासदी पैदा हो रही है. इस संघर्ष को रोकने के लिए किए जाने वाले प्रयास में कई स्तर पर पहल की जरूरत है.
पहली बात तो यह कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा कूटनीतिक प्रयास किए जाने चाहिए. इसकी शुरुआत विदेशी शक्तियों को वहां से बाहर निकालने से होनी चाहिए. ऐसा करने पर सीरिया में सत्ता परिवर्तन की मांग भी उठेगी. असद सरकार के साथ कूटनीतिक बातचीत से विश्वास बहाली का रास्ता खुलेगा. इस पहल का मतलब यह नहीं होगा कि सीरिया सरकार के साथ नरमी बरती जा रही है बल्कि यह होगा कि सीरिया और वहां के लोगों की संप्रभुता का सम्मान किया जा रहा है. किसी भी ऐसे कूटनीतिक प्रयास के लिए संयुक्त राष्ट्र सबसे सही मंच है. हालांकि, सुरक्षा परिषद में वीटो पावर रखने वाले देश यहां किसी निर्णय को बाधित करते हैं लेकिन संयुक्त राष्ट्र आम सभा का रचानात्मक इस्तेमाल इस काम में किया जा सकता है.
दूसरा महत्वपूर्ण कदम मानवीय संकट को दूर करने के लिए उठाना चाहिए. सीरिया के 1.1 करोड़ से अधिक लोगों को मदद की आवश्यकता है. इसमें सीमा पार करने वाले शरणार्थी, आंतरिक विस्थापित और संघर्ष में फंसे लोग शामिल हैं. पश्चिम देशों ने शरणार्थियों के अपने यहां आने पर काफी हल्ला मचाया. लेकिन सच्चाई यह है कि तुर्की, लेबनान और जाॅर्डन जैसे पड़ोसी देशों ने अधिकांश शरणार्थियों को पनाह दी है. इन लोगों को अपने देश में लौटने में मदद करने की जरूरत है. यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि वापस लौटने पर वे सुरक्षित रहेंगे. इसके साथ ही उन्हें अपना जीवन फिर से खड़ा करने के लिए आर्थिक और सामाजिक मदद की जरूरत होगी. इसके लिए विभिन्न देशों और संगठनों के बीच समन्वय की आवश्यकता है.
संघर्ष के दौरान हुए ज्यादतियों के बारे में भी कदम उठाने की जरूरत है. इंटरनेशन कमेटी ऑफ दि रेड क्राॅस के मुताबिक सीरिया में मानवाधिकार कानूनों की जमकर अवहेलना हुई. इसमें कब्जा जमाना, शहरी क्षेत्रों में अत्याधिक हमले, नागरिकों और नागरिक सेवाओं को निशाना बनाना शामिल है. संयुक्त राष्ट्र की एक समिति ने हाल ही में यौन और लैंगिक हिंसा पर एक रिपोर्ट तैयार किया है.
2016 में संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने सीरिया में हो रहे अपराधों से संबंधित आंकड़ों और सबूतों को जमा करने के लिए एक समिति का गठन किया था ताकि भविष्य में अंतरराष्ट्रीय आपराधिक कार्यवाही की जा सके. इसके पहले अंतरराष्ट्रीय अपराध अदालत में मामले को ले जाने की कोशिश नाकाम हुई. पहले के अनुभव बताते हैं कि ये कार्यवाही बहुत सीमित मामलों में वैश्विक शक्ति संतुलन के आधार पर की जाती हैं. इसके बावजूद पीड़ित इसकी ओर उम्मीद से देखते हैं. इसलिए सीरिया में जिन पर भी अंतरराष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघन का आरोप है, उनके खिलाफ कार्यवाही शुरू करने की पहल होनी चाहिए. इसके लिए स्थानीय और अंतराष्ट्रीय भागीदारी वाला एक ट्राइब्यूनल बनाना चाहिए ताकि यह स्वतंत्र तौर पर बगैर भेदभाव के काम कर सके.
शांति कायम करने की किसी भी कोशिश में प्रभावितों की भागीदारी जरूरी है. अगर शांति बहाल करने के लिए सरकार बदलना जरूरी है तो यह निर्णय सीरिया के लोगों पर छोड़ देना चाहिए. दूसरे कदमों के लिए सत्ता परिवर्तन की पूर्व शर्त नहीं होनी चाहिए.
लेखक नई दिल्ली के दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं और यह इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित लेख का अनुवाद है.