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असहयोगात्मक संघीय ढांचा

15वें वित्त आयोग को सौंपे गए कार्यों में संशोधन की जरूरत है अन्यथा राज्यों की वित्तीय शक्तियां खत्म हो जाएंगी. वित्त आयोग एक संवैधानिक संस्था है. संसाधनों के बंटवारे के मामले में यह केंद्र और राज्यों के बीच एक मध्यस्थ है. आयोग का मूल काम केंद्र सरकार की करों का केंद्र और राज्यों के बीच बंटवारे का तरीका सुझाना है. ताकि केंद्र और राज्य संविधान की सातवीं सूची के मुताबिक अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन कर सकें. वित्त आयोग ने यह काम बखूबी किया है और इससे इसकी प्रतिष्ठा भी कायम हुई है.

भारत के संघीय ढांचे की यह एक खासियत है कि इसमें एक स्वतंत्र वित्त आयोग का प्रावधान है. इस आयोग ने देश के संघीय ढांचे को मजबूत करने का काम किया है. आयोग का सौंपे गए काम टर्म ऑफ रिफरेंस में दर्ज रहते हैं. 15वें वित्त आयोग को सौंपे गए कार्यों की सूची पर विवाद चल रहा है. कुछ राज्यों को इस पर एतराज है. आयोग ने 2011 के बजाए 1971 की जनसंख्या को आधार बनाया है. माना जा रहा है कि इससे कुछ राज्यों को कम हिस्सा मिलेगा. यह भी कहा जा रहा है कि टर्म ऑफ रिफरेंस केंद्र सरकार की ओर झुका हुआ है. अगर 15वें वित्त आयोग को लेकर एक संतुलित राय नहीं अपनाई गई तो यह टर्म ऑफ रिफरेंस संघीय ढांचे को ध्वस्त करके केंद्र और राज्यों के बीच आदेश और नियंत्रण का संबंध विकसित करने वाला साबित हो सकता है. योजना आयोग के खत्म होने के बाद यह पहला वित्त आयोग है, इसलिए इसे संसाधनों के बंटवारे के मामले में व्यापक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए.

14वें वित्त आयोग ने पहली बार संसाधनों और खर्चों पर व्यापक दृष्टिकोण अपनाते हुए 42 फीसदी हिस्सा राज्यों को आवंटित किया था. 14वें वित्त आयोग ने 2015-16 से लेकर 2019-20 तक के आकलन के हिसाब से केंद्र सरकार को इतने संसाधन दिए हैं कि वह अपनी जिम्मेदारियां निभा सके. जबकि 15वें वित्त आयोग को यह कहा गया है कि वह इस बात का अध्ययन करे कि राज्यों को अधिक हिस्सेदारी से केंद्र सरकार की माली हालत पर क्या असर पड़ रहा है और इससे नया भारत-2022 के विजन पर क्या असर पड़ रहा है. यह नया भारत-2022 क्या है? क्या वह सरकार जिसका कार्यकाल 2019 में खत्म हो रहा है, वो वित्त आयोग को 2022 तक संसाधन रोककर रखने के लिए कह सकती है जिसे नई सरकार को किसी और सरकार के विजन के क्रियान्वयन के लिए खर्च करना हो.

एक ऐसे संघीय ढांचे में जहां केंद्र और राज्यों द्वारा किए जाने वाले कुल खर्च का 52 फीसदी राज्य खर्च करते हों, वहां एक राष्ट्रीय विकास एजेंडा तैयार करके राज्यों को दिया जाने वाला पैसा रोकना ठीक है? इस टर्म ऑफ रिफरेंस का परिणाम स्पष्ट है. केंद्र सरकार अधिक वित्तीय स्वायत्ता की व्यवस्था को पलटना चाह रही है और राज्यों के संसाधनों पर अधिक नियंत्रण रखना चाह रही है.

अनुच्छेद-275 के तहत राज्यों को मिलने वाले अनुदान से राज्यों की वे आर्थिक जरूरतें पूरी होती हैं जो राजस्व बंटवारे से नहीं हो पातीं. वित्त आयोग को इस बात की भी पड़ताल करनी है कि क्या राजस्व घाटे के लिए सभी को अनुदान दिया जाना चाहिए या नहीं. अगर आयोग इसे खत्म कर देती है तो फिर वैकल्पिक व्यवस्था क्या होगी? आयोग को यह भी सुनिश्चित करना है कि राजस्व बंटवारे के बाद किसी राज्य का कोई घाटा न रहे. यह एक तरह से वित्त आयोग पर इस बात के लिए दबाव बनाना है कि वह राज्यों के अवास्तविक राजस्व अनुमानों और जरूरतों को सही ठहराए.

टर्म ऑफ रिफरेंस कई तरह की शर्तों पर आधारित है. इसमें यह भी लिखा है कि आयोग राज्यों के लिए प्रदर्शन आधारित प्रोत्साहन की सिफारिश पर विचार कर सकता है. इस बारे में कई सवाल हैं. क्या आयोग राज्यों के प्रदर्शन को मापने और उन्हें प्रोत्साहन देने के लिए सही संस्था है? अगर करों का बंटवारा प्रोत्साहन पर आधारित होगा तो वित्तीय बराबरी हासिल करने के लक्ष्य का क्या होगा? अगर यह लक्ष्य अनुदान के जरिए हासिल किया जाना है तो क्या इससे करों के बंटवारे से मिलने वाले संसाधन कम नहीं होंगे? केंद्र सरकार द्वारा प्रोत्साहन और अनुदान गैर वित्त आयोग अनुदानों के जरिए दिया जाना चाहिए. वित्त आयोग के कामकाज को क्यों प्रभावित किया जा रहा है?

अंत में कर्ज, घाटा और वित्तीय जिम्मेदारियों के सवाल आते हैं. राज्य वित्तीय तौर पर दूरदर्शी हैं. सभी राज्यों का वित्तीय घाटा 2017-18 के बजट अनुमानों में 2.7 फीसदी है. ऐसे में 15वें वित्त आयोग के जरिए राज्यों को दिए जाने वाले कर्ज पर कोई शर्त लगाने से विकास पर उनके खर्च की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. केंद्र सरकार से अपना वित्तीय प्रदर्शन सुधारने के लिए कहना चाहिए, राज्यों से नहीं. हमें यह याद रखना चाहिए कि केंद्र सरकार ने वित्तीय जिम्मेदारी और बजट प्रबंधन कानून, 2008 का पालन नहीं किया.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय

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