गरीबों में तेजी से बढ़ रहा है मधुमेह
मधुमेह या डायबिटिज के बारे में यह माना जाता रहा है इसके शिकार अमीर ही होते हैं.लेकिन अब इसकी जद में भारत के गरीब लोग भी आ रहे हैं. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च यानी आईसीएमआर ने एक अध्ययन में यह पाया है. एशिया के बड़े हिस्से में फैली इस बीमारी के बारे में माना जाता है कि अधिक वसा खाने वाले, मीठी चीजें खाने वाले और अधिक वजन वाले लोग ही इसके शिकार होते हैं. लेकिन हाल के अध्ययन में यह बात सामने आई है कि विकसित और विकासशील देशों में शहरी गरीब इसके शिकार होते जा रहे हैं.
मधुमेह की वैश्विक राजधानी के तौर पर जाना जाने वाला भारत भी इसी राह पर है. आईसीएमआर ने स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के साथ मिलकर जो अध्ययन किया है उसमें यह बात सामने आई है कि आर्थिक तौर पर संपन्न राज्यों में अमीरों के मुकाबले गरीबों में मधुमेह के मामले अधिक हैं. इससे साफ पता चलता है कि अब यह रोग वहां तक पहुंच गया है जिसे अब तक इससे दूर माना जा रहा था.
यह सिर्फ चिंता की बात नहीं बल्कि एक चेतावनी है. मधुमेह एक ऐसी बीमारी है जिससे दिल, किडनी और आंखों को नुकसान पहुंचने का अंदेशा बना रहता है. ठीक से देखभाल न हो तो गैंगरीन का खतरा भी रहता है. जिस तरह की स्वास्थ्य व्यवस्था देश में है, उसमें गरीबों को अपने इलाज का खर्च खुद ही उठाना पड़ता है. इसलिए इस अध्ययन को एक गंभीर संकेत मानते हुए तुरंत जरूरी कदम उठाए जाने चाहिए.
आईसीएमआर ने बताया है कि 15 राज्यों में मधुमेह का औसत 7.3 फीसदी है. बिहार में यह 4.3 फीसदी है तो पंजाब में 10 फीसदी. 60,000 लोगों से एकत्रित की गई जानकारियों के आधार पर इस रिपोर्ट में कहा गया है कि देश की 70 फीसदी आबादी गांवों में रहती है और अगर मधुमेह रोगियों का प्रतिशत थोड़ा भी बढ़ता है तो इलाज कराने वालों की संख्या काफी बढ़ जाएगी लेकिन उनके आसपास जो स्वास्थ्य केंद्र हैं उनकी हालत बुरी है.
चंडीगढ़, महाराष्ट्र और तमिलनाडु समेत सात संपन्न राज्यों में इस रोग के शिकार लोगों की संख्या शहरी क्षेत्रों में अधिक है. इसमें भी शहरी गरीब सबसे अधिक प्रभावित हैं. इससे यह पता चलता है कि शहरों में आर्थिक तौर पर जो संपन्न लोग हैं, उनमें मधुमेह को लेकर जागरूकता है और वे अधिक खर्च करके इसके खतरों को कम कर ले रहे हैं.
पोषण की समझ रखने वाले लोगों का मानना है कि जंक फूड कम पैसे में आसानी से मिल रहे हैं, इसलिए वसायुक्त खाने की खपत गरीबों में बढ़ी है. लेकिन इसके अलावा और भी कई वजहें हैं. शहरों के गरीब लोगों के लिए पोषणकारी भोजन का खर्च उठा पाना मुश्किल है. ऐसे में जंक फूड की खपत उनके लिए पसंद या स्वाद से अधिक कीमत से जुड़ा हुआ है.
अध्ययन में आमदनी में बढ़ोतरी, कम शारीरिक श्रम वाले काम, मोटरयुक्त परिवहन तंत्र और घरेलू उपकरणों के इस्तेमाल में बढ़ोतरी को भी मधुमेह से जोड़कर देखा गया है. हालांकि, शहरों में काम के लिए लंबी दूरी तय करके जाना और मोटरयुक्त परिवहन तंत्र का इस्तेमाल करना भी कोई इच्छा का विषय नहीं रहा. इन सभी वजहों ने मधुमेह के मामलों को बढ़ाने का काम किया है.
दक्षिण एशिया में टाइप-2 मधुमेह अपेक्षाकृत कम उम्र में लोगों को हो रहा है. इससे स्वास्थ्य तंत्र पर भी दबाव बढ़ रहा है. भारत समेत जिन देशों में मधुमेह बढ़ रहा है, वहां शारीरिक गतिविधियों में कमी आई है. महिलाओं के मामलों में यह कमी और अधिक है.
इस अध्ययन ने आंकड़ों के साथ उन बातों को स्थापित कर दिया है जिनके बारे में छोटे अध्ययनों में पहले भी बात की जा रही थी. कैंसर, मधुमेह और हृदय रोग को रोकने के लिए 2010 से राष्ट्रीय अभियान चल रहा है लेकिन हालिया अध्ययन बताता है कि लघु अवधि और दीर्घ अवधि के कदम तुरंत उठाए जाने चाहिए. सरकार, गैर सरकारी संगठनों और चिकित्सकों को एक साथ आकर लोगों में जागरूकता बढ़ाने का काम करना होगा. पोषक खान-पान के साथ शारीरिक श्रम वाले मनोरंजक गतिविधियों को बढ़ाना होगा. इसके अलावा कई दीर्घकालिक कदम भी उठाने होंगे. इन्हें सिर्फ फास्ट फेड की पैकजिंग और विज्ञापन तक ही सीमित नहीं रखना होगा.
संक्रामक रोग विकासशील देशों के लिए चिंता के सबब रहे हैं. लेकिन मधुमेह जैसी गैर संक्रामक बीमारियां भी तेजी से बढ़ रही हैं. 1921 में इंसुलिन की खोज के पहले तक जो मधुमेह का मतलब मौत ही होता था. कुछ दशक पहले तक बचने की उम्मीद आधी रहती थी. अगर 21वीं सदी में आबादी के एक बड़े हिस्से को अधूरी जिंदगी की ओर नहीं धकेलना चाहते तो हमें एक साथ मिलकर त्वरित गति से काम करना होगा.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद