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किसान की आय दोगुनी करने के दावे का सच

2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने यह वादा किया थाकि अगर वह सत्ता में आई तो किसानों की आमदनी दोगुनी कर देगी, बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा करेगी और काला धन वापस लाएगी. चुनावी वादों की क्या गति होती है, यह इस देश में किसी से छिपा हुआ नहीं है. लेकिन इस सरकार को लेकर अंतर यह है कि लोगों से यह भी वादा किया गया था कि उन्हें एक ऐसा नेता मिलेगा जो हर काम पूरा करने के लिए जाना जाता है.

इसलिए अक्सर भूल जाने वाली जनता इस बार अपने उस नेता को वादों की याद दिला रही है. भाजपा पूरे देश में किसानों के गुस्से को महसूस कर रही है और किसान यह बता रहे हैं कि उनकी समस्या जस की तस बनी हुई है. नोटबंदी ने भी इन समस्याओं को बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाई.

महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में किसानों ने 10 दिनों की ऐतिहासिक हड़ताल की. यह पूरे देश के लिए और खास तौर पर भाजपा के लिए चैंकाने वाला था. आम तौर पर असंगठित और कुछ नहीं बोलने वाले किसान एक बड़ी राजनीतिक ताकत के तौर पर सामने आकर अपनी बात रख रहे थे. हड़ताल करने वाले किसानों ने स्वामिनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की मांग रखी. साथ ही नोटबंदी और अधिक उपज की वजह से कीमतों में आई कमी से होने वाले नुकसानों की भरपाई की मांग की.

अधिक उपज की समस्या इन क्षेत्रों में दो साल के सूखे के बाद आई है. इसलिए यह आंदोलन अपेक्षाकृत बेहतर सिंचाई सुविधा वाले केंद्रों महाराष्ट्र के पुणे और नाशिक और मध्य प्रदेश के उज्जैन से उभरा. न कि सूखाग्रस्त मराठवाड़ा, विदर्भ, चंबल और बुंदेलखंड से. प्रकृति की मार के अलावा और भी कई समस्याओं से देश की किसानी जूझ रही है. लागत में हो रही बढ़ोतरी, उपज की कीमतों में कमी, सरकारी मदद में कमी और बाजार में बढ़ती अस्थिरता ने कृषि समस्याओं को और बढ़ा दिया है. खेतों के स्वामित्व में कमी और उत्पादकता में कमी से किसानों की आमदनी घटी है. इससे खेती घाटे का काम बन गया है. इससे छोटे और सीमांत किसान, खेतों में काम करने वाले मजदूर और गांवों के श्रमिक सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं.

दोनों राज्यों में भाजपा की अगुवाई वाली सरकारें इन विरोध-प्रदर्शनों से ठीक से निपटने में नाकाम रहीं. पहले इन लोगों ने आरोप लगाया कि यह विपक्ष की साजिश है. फिर यह कहा कि विरोध करने वाले असली किसान नहीं हैं. इससे आंदोलन और बढ़ा. महाराष्ट्र सरकार ने फूट डालो और शासन करो की नीति अपनाई. किसानों की प्रतिनिधित्व करने वाली समिति में हेरफेर करने की कोशिश महाराष्ट्र सरकार ने की. लेकिन अंततः मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को झुकना पड़ा और छोटे व सीमांत किसानों के लिए 30,000 करोड़ रुपये की कर्जमाफी, अगले सीजन के लिए तुरंत कर्ज देने, दूध की कीमतों में अच्छी बढ़ोतरी करने और इसका 70 फीसदी हिस्सा किसानों को देने की घोषणा करनी पड़ी. उन्होंने यह भी कहा कि वे केंद्र सरकार को इस बात के लिए राजी करने की कोशिश करेंगे कि न्यूनतम समर्थन मूल्य उत्पादन लागत से 50 फीसदी अधिक तय हो सके.

ये महत्वकांक्षी घोषणाएं जमीनी स्तर पर बेहद चुनौतीपूर्ण साबित होंगी. क्योंकि न तो कर्ज माफी के लिए असली जरूरतमंद किसानों की पहचान करना आसान होगा और न ही सही उत्पादन लागत निकाल पाना. साथ ही इन घोषणाओं के अपनी आर्थिक चुनौतियां भी हैं. दरअसल, यह नीतियों में बदलाव का मामला है. भाजपा यह मानती रही है कि कृषि में सरकार का दखल नहीं होना चाहिए. मध्य प्रदेश में मौत की संख्या सात होने के बावजूद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान सीमित कदम उठाते ही दिख रहे हैं. इनमें कर्ज पर ब्याज माफी और बातचीत का न्यौता शामिल है. इससे प्रदर्शनकारी शांत होने के बजाए और मजबूती से विरोध करते दिख रहे हैं.

मूल बात यह है कि भाजपा को ग्रामीण भारत और कृषि की ओर ध्यान देने की जरूरत है. कारोबारी और शहरी लोगों के अनुकूल होने की पहचान रखने वाली भाजपा को ग्रामीण वोट जातिगत जोड़तोड़ और अर्थव्यवस्था व कृषि का कायापलट करने के वादे पर मिले हैं. यही वादे अब उसे सता रहे हैं. अभी जो संकट दिख रहा है वह लंबे समय से सरकार द्वारा चलाई जा रही नीतियों का परिणाम है. इसके लिए सिर्फ भाजपा को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है लेकिन अभी जो मांगें उठ रही हैं, उसका सामना उसे ही करना होगा.

पहले भाजपा ने कांग्रेस सरकार द्वारा चलाई जा रही ग्रामीण विकास योजनाओं का विरोध किया था. इनमें रोजगार गारंटी योजना भी शामिल है. लेकिन खुद भाजपा की सरकार ने जमीन अधिग्रहण कानून में जिन संशोधनों की कोशिश की और नोटबंदी का निर्णय लिया, उससे यह पता चलता है कि अब भी वह ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर ध्यान नहीं देना चाह रही है. रिजर्व बैंक ने 7 जून को जो मौद्रिक नीति जारी की उसमें भी यह बताया गया कि कृषि उत्पादों की कीमतों में कमी आने की वजह से किसानों को आनन-फानन में औने-पौने कीमतों पर अपना उत्पाद बेचना पड़ा. नोटबंदी के बाद जिस तरह से नगदी का संकट गांवों, छोटे शहरों और बाजारों में हुआ उससे कृषि उत्पादों की कीमतें घट गईं. यह हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में दिख रहा है. आने वाले दिनों में कर्नाटक में विरोध प्रदर्शन तेज होने की आशंका है.

एक कटु तथ्य यह भी है कि महाराष्ट्र के उसी अहमदनगर जिले से इस बार किसानों की हड़ताल की शुरुआत हुई जहां मराठा मोर्चे की शुरुआत हुई थी. दोनों अभियानों की मांगें अलग थीं और तरीके भी अलग थे. लेकिन दोनों ने ही बहुत कम समय में गति पकड़ी. यह किसी भी सरकार के लिए चिंता की बात होनी चाहिए. एक मजबूत विपक्ष के अभाव में लोगों के बीच के बढ़ते गुस्से ने इस सरकार को काबू में रखने की कोशिश की है.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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