जाति व्यवस्था और फैंटम-मैन्ड्रेक
सुनील कुमार
अमरीका में अभी एक मुस्लिम बच्चे ने घर पर घड़ी बनाई, और उसे स्कूल ले गया. स्कूल ने कुछ शिक्षकों ने समझा कि यह बम है, और उन्होंने आनन-फानन पुलिस बुला ली. पुलिस ने वहां के कानून के मुताबिक, कानून का इस्तेमाल करते हुए उस बच्चे को हथकड़ी लगाई, और उसे थाने ले जाकर घंटों पूछताछ की. बाद में एक मुस्लिम बच्चे से ऐसे बर्ताव पर शर्मिंदगी जाहिर करते हुए अमरीकी राष्ट्रपति ने उसे राष्ट्रपति भवन का न्यौता दिया.
लेकिन इस एक घटना से परे भी अमरीका में रंगभेद, नस्लभेद, और धार्मिक नफरत के मामले सिर चढ़कर बोलते हैं. वे गिनती में बहुत कम हो सकते हैं, लेकिन हैं. किसी चर्च का ऐसा पादरी निकल आता है, जो कि कुरान के पन्नों को सार्वजनिक रूप से जलाता है, और वहां के कानून में इसकी इजाजत भी है. हर कुछ महीनों में अमरीका में किसी सिख पर हमले, या हमले की सजा की खबर आती है, और बहुत से मामलों में सिखों को दाढ़ी और पगड़ी की वजह से मुस्लिम समझ लिया जाता है, और अमरीका पर ओसामा के आतंकी हमले के बाद से दाढ़ी-पगड़ी को आतंक का उसी तरह एक संकेत मान लिया गया है, जैसा कि भारत में पंजाब के आतंक के दिनों में बाकी प्रदेशों में भी लोग सिखों से मजाक करने लगे थे. लेकिन ऐसे मामले अमरीका में भी कम है, और भारत में भी.
आमतौर पर समाज मिलजुलकर रहते दिखता है, यह एक और बात है कि खबरें तभी बनती हैं जब कोई हिंसा होती है, या कोई वारदात होती है. अब ऐसी सामाजिक सोच के पीछे के पूर्वाग्रह अगर देखें, तो भारत के हिन्दू समाज में सदियों से शूद्रों और आदिवासियों को समाज के इंसानी ढांचे में पांवों की जगह दी गई है, और हकीकत में ऊंची जाति होने का अहंकार रखने वाले लोगों ने उन्हें अपने पांवों तले कुचला भी है. ऐसा ही हाल अमरीका में सदियो से रहा जब गोरों ने कालों को कुचला, और रंगभेद की हिंसा अश्वेत लोगों के चर्च जलाने तक खुलकर सामने आती थी. आज भी वहां श्वेत अहंकार के प्रतीक संगठन सड़कों पर खुलकर काम करते हैं, और इसे अपनी धार्मिक स्वतंत्रता बताते हैं.
ऐसे रंगभेद को बढ़ावा देने का काम कुछ ऐसे साहित्य या कुछ ऐसी फिल्मों से होता है जो कि देखने में बड़े मासूम लगते हैं. अमरीका से शुरू दुनिया के सबसे लोकप्रिय कॉमिक्स, फैंटम और मैन्ड्रेक न सिर्फ अमरीकी अंग्रेजी में बल्कि दुनिया की बहुत सी भाषाओं में खूब छपे और खूब बिके. अपने बचपन में आज से कोई आधी सदी पहले मेरे सरीखे लोग भी इन कॉमिक्स का इंतजार करते थे, और इन्हें इकठ्ठा करके इनको बाईंड करवाकर भी रखते थे.
अमरीका में 1930 के दशक में शुरू हुए इन दोनों कॉमिक्स के पीछे एक गोरा लेखक ही था. और अब अगर इन दोनों को देखें तो फैंटम या वेताल की कहानी जंगल में काले आदिवासियों के मददगार एक ऐसे गोरे मुखिया की है जो कि सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहा है, और एक खास पोशाक में उसकी पीढिय़ां एक के बाद एक कालों को बचाने, मुजरिमों को पकडऩे का काम करते चलती हैं, और आदिवासी यही समझते हैं कि यह चलता-फिरता प्रेत कभी नहीं मरता. जंगल के काले आदिवासी उसके सेवक रहते हैं, और वह उनको परेशानियों से बचाता है. इसी लेखक की दूसरी कहानी मैन्ड्रेक में एक गोरा जादूगर रहता है जो कि दुनिया की बुराइयों से लड़ता है. और उसका सहायक, उसका दोस्त, उसके साथ पूरे वक्त चिपके रहने वाला एक ऐसा अश्वेत बाहुबली है जो कि अपने आपमें अफ्रीका के किसी एक देश का राजकुमार है, लेकिन वह पूरी जिंदगी मैन्ड्रेक का सहायक ही बने रहता है. लोथार नाम का यह राजकुमार अपनी खुद की जिंदगी छोड़कर हर वक्त मैन्ड्रेक की मदद को मौजूद रहता है.
अब इन दोनों कहानियों को देखें, तो इनको पढऩे वाले न सिर्फ अमरीकी, बल्कि दुनिया भर की अलग-अलग भाषाओं वाले करोड़ों-अरबों बच्चों और बड़ों के जेहन में यह बात बिना पढ़े और बिना कहे भी घर कर जाती है कि मुखिया गोरा होता है, और काला उसका सहायक होता है. कालों को बचाने के लिए एक गोरा जरूरी होता है, फिर चाहे वह पीढिय़ों से चले आ रहा वेताल हो, या फिर दुनिया का सबसे बड़ा जादूगर मैन्ड्रेक हो.
इस किस्म का रंगभेद, जातिभेद, धर्मभेद बहुत से देशों और भाषाओं के साहित्य में चले आता है, और यह खुलकर शब्दों में हिंसक चाहे न हो, यह लोगों के मन में पूर्वाग्रह बढ़ाते चलता है. काले रंग के खिलाफ, छोटे कद के खिलाफ, किसी हकलाने वाले, किसी तुतलाने वाले, किसी मोटे चश्मे वाले, किसी भारी बदन वाले, किसी चेचक के दाग वाले, किसी विकलांग के खिलाफ जिस तरह की कहावतें भारत में भी सदियों से चली आ रही हैं, उनके असर से समाज का बचना नामुमकिन सा रहता है. भारत की बहुत सी कहानियों में ऊंची जाति और नीची जाति कहे जाने वाले समुदायों के लोगों की समझ, उनकी क्षमता, उनके हुनर, इन सबके बीच जो फर्क किया जाता है, वह बचपन से ही लोगों को जाति व्यवस्था, धर्म व्यवस्था के अलावा बाकी किस्म के सामाजिक भेदभाव की तरफ धकेल देता है.
दिक्कत यह है कि जो साहित्य या फिल्में खुलकर रंगभेद या जातिभेद की हिंसक बातें करते हैं, वे तो उजागर हो जाते हैं, लेकिन पुरानी संस्कृति, रीति-रिवाज, धर्म, कहावतों, इन सबसे जोड़कर जब बिना जाहिर हिंसा के ऐसे भेद को बढ़ावा दिया जाता है, तो बहुत से लोगों को वह भेद दिखता भी नहीं है. समाज में जो लोग ऐसे हिंसक भेदभाव को समझते भी हैं, उनमें से भी बहुत कम लोग इसके खिलाफ मुंह खोलना चाहते हैं, क्योंकि भेदभाव करने वाले ताकतवर तबकों से भला कौन उलझे? दूसरी तरफ ऐसे भेदभाव के शिकार जो तबके होते हैं, उनकी आवाज बहुत संगठित हुए बिना कहीं तक पहुंचती नहीं हैं, और कानून के इस्तेमाल के बिना उनको अपना हक मिलता भी नहीं है. लेकिन कानून सामाजिक भावनाओं का हक नहीं दिला सकता, सरकारी आरक्षण जरूर दिला सकता है. ऐसे में भेदभाव बने रहता है.
दुनिया भर में आज समझदार लोगों को इस पर चर्चा और बहस की जरूरत है कि धर्म, जाति, रंग, और भेदभाव की बाकी अनगिनत किस्मों के पूर्वाग्रह कैसे खत्म किए जाएं. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि दुनिया भर में विरोध के लिए जो काले झंडे दिखाए जाते हैं, काली रिबिन बांधी जाती है, वह भी रंगभेद है. उनका मानना है कि काले रंग को विरोध का रंग बनाकर समाज में जिन लोगों का रंग काला है, उनको एक बुरी किस्म बता दिया जाता है. ऐसा कहा तो नहीं जाता है, लेकिन रंग के ऐसे इस्तेमाल का लोगों की मानसिकता पर ऐसा ही असर होता है.
कानून से ऐसी बारीक बातें नहीं सुलझ सकतीं, इनके लिए लगातार बातचीत और जागरूकता की जरूरत है.