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ओह, ये ही होते हैं पत्रकार !

जगदलपुर से रायपुर
जगदलपुर में पत्रकारिता करते हुए 1996 में अचानक एक दिन वही पुराने संजय सवाई एक सज्जन को लेकर तोकापाल पहुंचे. परिचय करवाया अमरनाथ तिवारी से, साथ में अरूणिमा भी आईं थीं. (अब दोनो दुनिया में नहीं हैं. इसके बाद किसी काम से रायपुर पहुंचा तो फिर वहीं रह गया.

वहां कचहरी चौक पर अंदरवाली गली में रिसेंट का दफ्तर हुआ करता था. साप्ताहिक रिसेंट! उसमें अमरनाथ तिवारी के साथ काम करने का अवसर मिला. पत्रकारिता की बुराई देखी, बहुत कुछ सीखा. वहां रिसेंट के लिए कंपोजिंग होती थी, पेस्टिंग होती थी, प्रिंटिंग के लिए समवेत शिखर के प्रिंटर में समता कॉलोनी लेकर जाते थे. रायपुर में साप्ताहिक समाचार पत्रों को उनके अधिकार के लिए संगठित करने साप्ताहिक समाचार पत्र पत्रकार संघ का गठन किया गया. हालांकि बाद में यह संगठन कहां गया पता नहीं. इस संगठन में रम्मू श्रीवास्तव, भूपेंद्र टिकरिहा जैसे पत्रकार भी शामिल थे.

भूपेंद्र टिकरिहा रिसेंट में कुछ समय के लिए काम करने पहुंचे थे. अरूणिमा पत्रकारिता में एमजे की विद्यार्थी रहीं. अमरनाथ-कौशल किशोर की मित्रता और पत्रकारिता में कड़ुवाहट का दौर भी देखने को मिला. महाकौशल के कौशल किशोर से नाराज अमरनाथ अपने अखबार में ‘बद्जात’ कहानी छाप रहे थे. इसके जवाब में कौशल किशोर ने अपने दीवापली अंक में ‘हाथी और कुत्ते’ की कहानी छापी. जो आज भी याद है.

रिसेंट अखबार में ही पहली ‘संपादकीय’ लिखने का गौरव हासिल हुआ. हुआ यूं कि अमरनाथ ने कहा कि इस बार तुम संपादकीय लिख दो. मैं शुरू से ही स्टाइल चोर तो था ही, मैंने उस समय जो संपादकीय लिखी थी उसका शीर्षक था ‘ नर केसरी बनकर माने सीताराम’. उस दौर में कांग्रेस में उठा पटक का दौर चल रहा था. कोषाध्यक्ष सीताराम केसरी को अध्यक्ष बनाया गया था. उसके बाद उनके द्वारा की गई कार्रवाई पर यह संपादकीय लिखी गई थी. रायपुरिया पत्रकारिता के तीसरे दर्जे का अध्ययन करने के बाद वापस जगदलपुर लौट आया. इस दौरान करीब एक बरस रायपुर में काटे, जो आज भी याद है. हां एक बात और. संजय सवाई जी से पत्रकारिता के माध्यम से बने संबंध कब पारिवारिक हो गए, पता भी नहीं चला. आज भी वे पारिवारिक सदस्य हैं.

लौट के..
करीब एक बरस रायपुर में बिताने के बाद 1997 में बस्तर में वापसी हुई. तब तक बहुत कुछ बदला नहीं था. पत्रकारिता का वही दौर उसी अंदाज में चल रहा था. कुछ प्रमुख अखबारों के प्रतिनिधियों को प्री पैड फेक्स कार्ड की सुविधा थी. शायद कुछ ने कम्प्यूटर लगा लिया था.

अधिकतर पत्रकार अपनी खबरों को लिखकर, टाइप करवाकर कोरियर से भेजा करते थे. तीसरे दिन चार दिन पुरानी बासी खबर ताजा बनकर अखबार के साथ पहुंचती थी. अखबारों से हिदायत थी कि महत्वपूर्ण होने पर ही खबरें फैक्स की जाएं! शायद खर्चा बहुत लगता था.

मैं आया और घर बैठ गया. कुछ दिनों बाद फिर पवन दुबे और देशबंधु. वहां बस्तर के वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र बाजपेई जी पवन दुबे के साथ आ गए थे. किसी समय किरीट दोशी के करीबी. श्री बाजपेई जी की मुलाकात ललित जी के मित्र प्रवीण भाई चितालिया ने पवन दुबे से करवाई थी. यो कहें कि प्रवीण भाई के कहने पर ही राजेंद्र बाजपेई जी देशबंधु में शामिल हुए. वह दौर काफी मजेदार रहा.

इसके बाद देशबंधु जगदलपुर ने एक बड़ी शुरूआत की. जिसके तहत साप्ताहिक अंक छापना शुरू किया, जो चार पेज का होता था. उसके लिए मैटर, विज्ञापन आदि का जुगाड़ लोकल स्तर से करना होता था. इसमें काफी मेहनत की गई. परिणाम बढ़िया रहा. देशबंधु के साप्ताहिक अंक के लिए विज्ञापन जुटाने का काम जिंदगी बदल देगा, यह कभी सोचा नहीं था.

हाईवे चैनल
1998 में बस्तर में पत्रकारिता का नया दौर शुरू होने को था. यहां देशबंधु समूह ने ‘हाईवे चैनल’ सांध्य दैनिक के लिए प्रयास शुरू किया. पवन दुबे को जिम्मेदारी सौंपी गई. पहले स्थान का चयन फिर मशीनों की फिटिंग, उसके बाद प्रकाशन का प्रारंभ. अद्भूत अनुभव का दौर. इस दौर में रायपुर से दो दिग्गज पत्रकार जगदलपुर ट्रांसफर किए गए पहले थे सुदीप ठाकुर और दूसरे हेमंत कश्यप. दोनो रायपुर के अनुभवी थे.

सुदीप अक्षर पर्व जैसी साहित्यिक पत्रिका का संपादन कार्य संभाल रहे थे. उन्हें स्थानीय संपादक नियुक्त किया गया. हेमंत कश्यप रिजनल रिपोर्टिंग देखते थे. हाईवे चैनल में पत्रकारों की भर्ती की गई थी जिसमें द्वारिका तिवारी, केटी विमल रायपुर से भेजे गए थे. कुल मिलाकर बेहद नया अनुभव. पवन दुबे को ललित जी ने पर्ची लिखकर दी जिसमें उनके नाम के सामने प्रकाशक, मुद्रक लिखा हुआ था. बड़ी खुशी हुई.

हाईवे चैनल की धमाकेदार शुरूआत हुई. अफसोस शुरूआती टीम में मुझे मार्केंटिंग में शामिल किया गया. सुबह सुदीप बैठक लिया करते. डेड लाइन, डेट लाइन जैसी बातें अब समझ में आने लगी. मैं मैंनेजमेंट का हिस्सा हो चुका था. खैर मैंनेजमेंट का होने के बाद भी लिखने का क्रम जारी रखा. कई खबरें लिखीं. इस बीच सुदीप और पवन के बीच खट-पट खबरों को लेकर होने लगी थी. सुदीप समझौते को तैयार नहीं थे. सो वापस जाना उचित समझा. पर इस बीच वे काफी कुछ सीखा गए. पत्रकारिता का एक स्तर देखने, सीखने को मिला.

काम करते-करते मैं कब मार्केटिंग प्रबंधक से महाप्रबंधक बन गया पता ही नहीं चला. करीब छह माह के जीएम कार्यकाल के बाद एक दिन खबर आई कि राजमन तिवारी जी को जगदलपुर भेजा जा रहा है. मुझे बुरा लगा. मेहनत करने के बाद भी परिणाम नहीं. श्री तिवारी के आते ही मैंने हाईवे चैनल छोड़ दिया.

कितना दोगे ?
हाईवे चैनल छोड़ने के बाद मैं किसी बेहतर विकल्प की तलाश में जुटा था. तय कर चुका था कि अब रिश्तेदारी नहीं बल्कि पत्रकारिता ही करूंगा. करीब चार माह बाद दैनिक भास्कर के ब्यूरो भंवर बोथरा ने आफर किया. मैंने स्वीकार कर लिया. पर पहले सवाल किया-क्या दोगे?

बस्तर का संभवत: मैं पहला पत्रकार था, जिसने बैनर के स्थान पर कीमत पूछकर, जानकर, उचित होने पर ही काम करना स्वीकार किया. कीमत बताई गई. बात बन गई. 2500 रुपए में काम शुरू किया. 2000 की शुरूआत में इतने भी बहुत होते थे. दैनिक भास्कर में सिटी रिपोर्टिंग की पहली तन्ख्वाह हाथ में आई. बवाल मच गया.

इसी स्थान पर मुझ से पहले से काम कर रहे पत्रकारों को 13 सौ से 17 सौ रुपए प्रति माह दिए जाते थे. इकलौते सुरेश रावल थे, जिन्हें पीएफ काटने के बाद 2525 रुपए हाथ में मिलते थे. फिर से मन माफिक काम मजा आने लगा. दैनिक भास्कर में बहुत कुछ सीखा. कम्प्यूटर में पेज लगाना, तेजी से टाइप करना, विज्ञप्तियां बनाना, फ्रंट पेज के लिए खबरें निकालना. भंवर बोथरा जी ने जो विश्वास जताया था, उसे पूरा करने में कोई कसर नहीं रखना चाहता था. बहुत सी खबरें फ्रंट पेज पर प्रकाशित हुईं. भास्कर अकादमी भोपाल में ट्रेनिंग का मौका आया. अपने बैच में प्रथम स्थान पर रहा.
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आवारा है, पत्रकार बना लो

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